अखबारों के विज्ञापन क्या कहते हैं? पहले पन्ने पर एक बड़ा-सा आर्टिकल इन विज्ञापनों के मॉडर्न होने का दावा कर रहा है. इनमें मॉडर्न, एजुकेटेड, कल्चर्ड, इंटेलेक्चुअल जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया गया है. मॉडर्निटी के इन दावों से अभिभूत आप आगे बढ़ते हैं. विज्ञापनों को खंगालते हुए ब्राह्मण, ठाकुर, अग्रवाल, पंजाबी, बनिया, भूमिहार की मोटी-मोटी हेडलाइनों से गुजरते हुए निगाहें एक हेडिंग पर रुकती हैं. बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है-कॉस्मोपॉलिटन/नो कास्ट बार (जाति बंधन नहीं). चलिए कुछ विज्ञापनों की पड़ताल करते हैं:
*जाट सिख खूबसूरत, वेल बिहेव्ड लड़की, 27, 5.7 फीट, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), कास्ट नो बार, (एससी-एसटी एक्सक्यूज).
*सुटेबल मैच फॉर ब्राह्मण बॉय, 32, 5.9 फीट, गवर्नमेंट टीचर, कास्ट नो बार, (एससी, एसटी, ओबीसी एक्सक्यूज.) चलिए इन्हें एक्सक्यूज दे देते हैं, क्योंकि ये कनफ्यूज नहीं कर रहे हैं. अब इस विज्ञापन पर नजर डालिए :
*प्रोफेशनल, सीए, 31, 5.9 फीट, को तलाश है खूबसूरत, प्रोफेशनल लड़की की. कास्ट नो बार.
जाति बताए बगैर कास्ट नो बार की कैटेगरी में दिए इस विज्ञापन पर आप एक लड़की का रिश्ता लेकर फोन करते हैं तो पता चलता है कि लड़का कान्यकुब्ज ब्राह्मण है. लड़की पढ़ी-लिखी है, खूबसूरत है, बैंक में नौकरी करती है. ये सारी बातें जरूरत के फ्रेम में बिल्कुल फिट हैं, लेकिन एक बिंदु पर आकर फ्रेम चटक जाता है.
''लड़की दलित है.''
फोन के दूसरी तरफ कुछ सेकेंड की चुप्पी के बाद एक आवाज सुनाई देती है, ''ओह, कोई बात नहीं, लेकिन हमें एससी में शादी नहीं करनी.''कुछ दिन पहले चित्रकूट का रहने वाला एक व्यक्ति विवेक तिवारी शादी के तीन साल बाद और हाल ही में एक बच्चे के जन्म के बावजूद अपनी पत्नी की हत्या कर देता है. वजह? जिस पत्नी को वह अब तक पूजा मिश्रा समझ्ता आया था, वह तो असल में पिछड़ी जाति की थी. वह ब्राह्मण नहीं है, यह जानना तिवारी के लिए जबरदस्त सदमा था.
समाज में जातियां हैं, और जाति भेद भी, यह बात दिन के उजाले-सी साफ है. फिर कास्ट नो बार का टैग लगाकर शहरी आधुनिक मध्यवर्ग किसे बेवकूफ बना रहा है?
इंटरनेट पर 'कास्ट नो बार-एससी/एसटी एक्सक्यूज' लिखने पर अठारह लाख पेज खुलते हैं और 'ओबीसी एक्सक्यूज' लिखने पर चौवन हजार. लेकिन इनमें भी 'जाति बंधन नहीं' का दावा करने वाले जातिवादी विज्ञापनों की संख्या सबसे ज्यादा है. ये छिपा हुआ चेहरा है. इंडिया टुडे ने अंग्रेजी के दो प्रमुख अखबारों में पिछले तीन महीने में छपे कॉस्मोपॉलिटन और कास्ट नो बार के विज्ञापनों में से 100 से संपर्क किया, जिनमें से 52 ब्राह्मण (बंगाली, तमिल, कान्यकुब्ज, सभी), 24 क्षत्रिय, 11 राजपूत, छह अरोड़ा, चार यादव और तीन अग्रवाल थे. हालांकि सभी विज्ञापनों में लड़के की ऊंची नौकरी और लड़की के खूबसूरत रंग-रूप का दावा था, लेकिन उससे ज्यादा बुलंद आवाज में वे कह रहे थे-कास्ट नो बार.
निस्संदेह ये विज्ञापन भरोसा दिलाते हैं कि एक छोटे शहरी और पढ़े-लिखे तबके में ही सही, जाति की दीवारें टूट रही हैं. 150 विज्ञापनों में 15 ही सही, लेकिन ऐसे लोग तो हैं, जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि नाम के आगे मिश्र या झ लिखा है, मौर्य या विश्वकर्मा. लेकिन आप 'समाज बदल रहा है' के इस खुशफहम सपने में ज्यादा देर नहीं टिके रह सकते क्योंकि जैसे ही इन विज्ञापनों के दावों की पड़ताल शुरू करते हैं, सच का एक दूसरा ही चेहरा सामने आता है.
कास्ट नो बार का पहला ही विज्ञापन फाइव डिजिट सैलरी वाले एक सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल के लिए किसी भी जाति की पढ़ी-लिखी और वर्किंग लड़की की डिमांड कर रहा है. आप किसी लड़की का रिश्ता लेकर उन्हें फोन करें तो पता चलता है कि लड़का ब्राह्मण है. फोन पर रिश्ते के लिए काफी बातें होती हैं, लेकिन यह बातचीत तभी तक सहज रह सकती है, जब तक आप यह खुलासा न कर दें कि लड़की दरअसल दलित है.
दलित, वाल्मीकि, जाटव, चर्मकार, कुम्हार, बढ़ई, धोबी सुनते ही कास्ट नो बार का विज्ञापन देने वाले ऊंची जाति के मॉडर्न लोगों की मॉडर्निटी हवा हो जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं. कोई साफ मना कर देता है, कोई गुस्से में फोन काट देता है तो कोई अपनी डीटेल मेल कर दीजिए, कहकर फोन रख देता है.
अब तक आप ब्राह्मण मैट्रीमोनी डॉट कॉम या अग्रवाल-भूमिहार विवाह समाज को ही जातिवादी मानते आए थे, लेकिन अब हिंदुस्तान की उच्च जातियों के एक छिपे हुए जातिवाद का चेहरा खुलने लगा है. पता चलता है कि ऊंची जातियों का कास्ट नो बार दरअसल कुछ खास ऊपरी जातियों के दायरे तक ही सीमित है. ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया और बहुत हुआ तो कायस्थ तक शादी की जा सकती है, लेकिन उससे नीचे नहीं. दलित नहीं, पिछड़ा नहीं, आदिवासी कतई नहीं.
दलित विचारक कांचा इलैया कहते हैं, ''कास्ट नो बार का विज्ञापन देने वाले अधिकांशतः सवर्ण होते हैं. जाति बंधन न मानने का दावा कोई दलित नहीं करता क्योंकि इस सामाजिक विभाजन में वह सबसे निचले पायदान पर है. खुद तथाकथित ऊंचे और श्रेष्ठ होने के बावजूद अपनी श्रेष्ठता को स्वीकार न करने का दंभ तो कोई सवर्ण ही दिखा सकता है.''
दिल्ली यूनिवर्सिटी से राजनीतिशास्त्र में रिसर्च कर रही 25 वर्षीया अपरा मिश्र कहती हैं, ''मेरे मम्मी-पापा मुझे और मेरे भाई दोनों से कहते हैं कि हम दलित और मुसलमान छोड़कर अपनी मर्जी से किसी भी जाति में शादी कर सकते हैं.''
कास्ट नो बार की अपेक्षा भी अमूमन पुत्र के वैवाहिक विज्ञापन में होती है. लड़की के मामले में यह तभी होता है, जब वह तलाकशुदा हो, विधवा हो, उसकी संतान हो या उसमें शारीरिक विकलांगता हो. मनोवैज्ञानिक सुधीर कक्कड़ कहते हैं, ''हिंदुस्तानी समाज पितृसत्तात्मक है, जहां वंश पुरुष के नाम से चलता है. इसलिए लड़की की तुलना में लड़के का अंतरजातीय विवाह करना आसानी से स्वीकार्य हो जाता है.''
आज से करीब दस साल पहले दलित लेखक जयप्रकाश कर्दम ने एक कहानी लिखी थी, जिसका शीर्षक कास्ट नो बार ही था. कहानी का नायक वैवाहिक विज्ञापन में 'कास्ट नो बार' का विज्ञापन देखकर लड़की वालों के घर मिलने जाता है. सुखद पारिवारिक माहौल में हो रही बातचीत उस वक्त एक कटु मोड़ पर आकर खत्म हो जाती है, जब लड़की वालों को पता चलता है कि लड़का दलित है. विज्ञापन में कास्ट नो बार के साथ वे एक शब्द जोड़ना भूल गए थे-कास्ट नो बार विदिन सवर्ण कास्ट.
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के गांव शोभापुर के प्रशांत दुबे जाति से बैकवर्ड कटनी की रोली शिवहरे से विवाह करना चाहते थे. आदिवासियों और किसानों के बीच जागरूकता के लिए काम करने वाले इन दोनों सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अपने ही परिवार की रूढ़िवादिता से लड़ना बड़ी चुनौती थी. प्रशांत को सिर्फ उसी लड़की से विवाह की इजाजत थी, जो जाति से ब्राह्मण हो. प्रशांत की जिद आखिरकार रंग लाई, लेकिन पांच साल के लंबे इंतजार और संघर्षों के बाद.
इसी तरह बारह साल पहले इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर डॉ. सूर्यनारायण सिंह अचानक शहर के ठाकुरों और ऊंची जाति वालों की हंसी के पात्र बन गए, जब उन्होंने एक बैकवर्ड महिला से विवाह का निर्णय लिया. लोग उन पर हंसते और धीरे से चुटकी लेते, ''क्यों भई, कोई ठकुराइन नहीं मिली क्या?'' प्रगतिशील ठाकुरों की भौंहें तनी हुई थीं. लोग उन्हें सूर्यनारायण यादव कहकर चिढ़ाने लगे.
ट्रिपल आइटी, इलाहाबाद में प्रो. डॉ. उमाशंकर तिवारी और मजीदिया इस्लामिया में केमिस्ट्री की लेक्चरर डॉ. पद्मा सिंह ने 1986 में प्रेम विवाह किया. यह दो सवर्ण जातियों के बीच हुआ विवाह था, फिर भी दोनों परिवार इन्हें अपना नहीं पाए. पद्मा की मां ने मरते दम तक उनसे या उनके बच्चों से कोई संबंध नहीं रखा. डॉ. तिवारी कहते हैं, ''बेशक हम दोनों ने ही कभी यह नहीं सोचा कि हमारी जाति क्या है? हम उस विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, जहां इंसान जाति और धर्म की पहचान से बहुत ऊपर उठ जाता है. लेकिन यह सच है कि किसी रोमांटिसिज्म में आप दलित-आदिवासी बस्ती में प्रेम करने नहीं जाएंगे. अपने आसपास मौजूद लोगों से ही प्रेम होता है.''
दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में रिसर्च कर रही 28 वर्षीया अनुराधा सिंह कहती हैं, ''बहुत क्रांतिकारी अंतरजातीय विवाह कैसे मुमकिन हैं? हमारे आसपास की सर्कल में कितने दलित, आदिवासी या मुसलमान हैं?''
महिला समाख्या में काम करने वाली शहनाज परवीन ने अपने से उम्र में छोटे और जाति से ब्राह्मण के.के. पांडेय से प्रेम विवाह किया. यहां सिर्फ जाति ही नहीं, धर्म का भी फासला था. परिवार ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन समाज ने भी कम मुश्किलें नहीं खड़ी कीं. किराए का घर लेने से लेकर घर खरीदने तक में धर्म आड़े आता रहा. समाज लाख बदलने का दावा कर ले, लेकिन यह रास्ता चुनने वालों का सफर आज भी आसान नहीं है. आधुनिक शहरी समाज में जातिवाद की जड़ें आज भी बहुत मजबूत हैं. दलित और आदिवासी मुद्दों पर अंकुर जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशक श्याम बेनेगल कहते हैं, ''मैंने अब तक ग्रामीण परिवेश में ही जातीय भेदभाव पर फिल्म बनाई है, लेकिन अब मुझे लगता है कि मॉडर्न शहरी परिवेश के कास्टिज्म को भी समझने की जरूरत है.'' बंगलुरु से निकलने वाली पत्रिका दलित वॉइस के संपादक वी.टी. राजशेखर कहते हैं, 'हुआजादी के बाद से बड़े पैमाने पर आर्थिक और राजनैतिक बदलावों के बावजूद हिंदुस्तान में कोई दूसरी चीज इतनी अपरिवर्तनशील और मजबूत नहीं रही है, जितना कि कास्ट सिस्टम है.''
एक दलित महिला एक्टिविस्ट अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताती हैं, ''मैंने 26 साल पहले एक ब्राह्मण लड़के से प्रेम विवाह किया था. तब मुझे लगता था कि वह जाति बंधन नहीं मानता. लेकिन वक्त के साथ उसके जातिवादी अहंकार का एक दूसरा चेहरा सामने आया. वह कभी अपनी महानता के इस बोध से बाहर नहीं निकल सका कि ऊंची जाति का होने के बावजूद उसने दलित लड़की से शादी की.''
यथार्थ यही है कि ऊपर से दुनिया जितनी बदली दिखती है उतनी नहीं बदली है. अखबारों में कॉस्मोपॉलिटन और कास्ट नो बार' के विज्ञापन जरूर बढ़ गए हैं, लेकिन ये भ्रम से ज्यादा कुछ पैदा नहीं करते. इलैया कहते हैं, ''यह कॉस्मोपॉलिटन वर्ग उस बंगाली भद्रलोक की तरह है, जो हमेशा कुछ सवर्ण जातियों के भीतर विवाह कर जाति-बंधन न मानने के महानता-बोध से ग्रस्त रहता है.''
जाति मुक्त विवाह: तेवर का तमाशा कास्ट नो बार
जाति-बंधन न मानने का दावा करने वाले विज्ञापनों में एक वाक्य अक्सर छिपा होता है-कास्ट नो बार विदिन अपर कास्ट.

अपडेटेड 19 मई , 2012
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