सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में पुराने और नए शायरों के इंकलाबी नज्मों और शेरों को गुनगुनाया जा रहा है. उनकी शायरी में लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई है और उन्हें लगता है कि वे उनकी भावनाओं को बहुत सटीक अंदाज में बयान करते हैं. इन नज्मों-शेरों का इस्तेमाल हमख्याल लोगों में जोश-जज्बा भरने के लिए भी हो रहा है
प्रतिरोध के सबसे बड़े शायर अब भी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ही हैं. वे अपनी शायरी की बदौलत लोगों के दिलों में बसते हैं.
लोगों की भावनाओं को उन्होंने शब्दों में ढाला और खुद को मजलूम समझने वाला शख्स उनको गाकर लोगों में जोश भरता है.
शनिवार को ही जामिया की सड़क पर किनारे आठ-दस लोगों की मंडली बैठी है.
नीली जैकेट पहने पालथी मारकर बैठा युवक गाए जा रहा हैः ‘कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएंगे’.
हर लाइन के बाद उसकी मंडली उसे दोहराती है और कड़ाके की सर्दी में भी उनके माथों पर पसीना दिखता है.
सामने किसी ने चाय का प्याला रख दिया है, पर उसे अपने तराने के आगे कोई सुध नहीं है.
चाय ठंडी हो गई. जब पूरा तराना खत्म हुआ तो उसने गला तर करने के लिए चाय एक ही सांस में पी गया.
फ़ैज़ का तराना आप भी गुनगुना सकते हैंः
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुंचा है
जब तख़्त गिराए जाएंगे जब ताज उछाले जाएंगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएंगे
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएंगे
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएंगे
इस नज्म को गाने के बाद काफी देर बाद उस नीली जैकेट वाले लड़के से मुलाकात हुई. पता चला कि वह जामिया स्कूल का पूर्व छात्र है. नाम है मोहम्मद, न आगे कोई शब्द, न पीछे. आपको इतनी लंबी लंबी नज्में कैसे याद हैं? ‘‘जो दिल पर गुजरती है ये उसको बयान करता है. खुद ब खुद याद हो जाती है.''
वह कहता है कि आपने शहीद भगत सिंह का नाम तो सुना ही होगा, उनके बारे में जानते भी होंगे. ‘‘वे शहीद हो गए. मैं भी शहीद हो जाऊंगा लेकिन जुल्म बर्दाश्त नहीं करूंगा.'' वह शख्स आइपी यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रहा है और उसके दूसरे साथी भी छात्र ही हैं.
फ़ैज़ ने लोगों को प्रतिरोध जताने के लिए नज्म के रूप में शब्द दे दिए हैं, जिन्हें तरन्नुम के साथ गाया जा रहा है. एक रोज रात में करीब दो बजे जामिया के बच्चे फ़ैज़ की मशहूर नज्म ‘हम देखेंगे’ को गाने और सुनने के लिए जमा थे.
एक लड़की पूरे तरन्नुम के साथ बुलंद आवाज में सीढ़ी पर बैठकर गा रही थी और उसके दोनों ओर उसके साथी बैठे थे. कोई वाद्य नहीं बस गले की आवाज. सोशल मीडिया पर प्रसारित इस नज्म को काफी लोग अपनी रजाई में घुसकर सुन रहे थे.
इसके बारे में दिलचस्प बात यह है कि 1985 में पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जियाउल हक की फरमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी.
पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने अपना विरोध जताने के लिए लाहौर के स्टेडियम में 50,000 दर्शकों को सामने इस नज्म को गाया.
वे काले रंग की साड़ी और ब्लाउज में अपने साजिंदों के साथ स्टेडियम में बैठी थीं और इस नज्म को सुनकर लोग जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे.
लोगों के नारे के बीच इतना शोर शुरू हो गया कि तबला वादक अपने तबले पर सिर्फ थप-थप करके लोगों के नारे के साथ सुर मिलाने लगा.
इसके बाद यह नज्म हर हिंदुस्तानी के लिए प्रतिरोध का प्रतीक बन गया. एक्टिविस्ट, लेखक और पत्रकारों ने भी अपने लेखों में इसे उद्धृत करना शुरू कर दिया.
पूरी नज्म हैः
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
अब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
यही वही नज्म है, जिस पर आइआइटी कानपुर के फैकल्टी सदस्यों की शिकायत है कि यह किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देता है और हिंदू विरोधी है. इसे नादानगी ही कहेंगे क्योंकि अव्वल तो फ़ैज़ ने इसे सीएए-एनआरसी के खिलाफ नहीं लिखा था, दूसरा यह जनता जनार्दन को हाकिमों से ऊपर रखती है. इसके बारे में जावेद अख्तर और मुनव्वर राणा समेत काफी लोगों ने बहुत कुछ बयान कर दिया है, लिहाजा इस पर सफाई पेश करने की जरूरत नहीं है.
दरअसल, इसमें अल्लाह शब्द है और उसकी विशेषताएं भी हैं कि वह गायब भी है, हाजिर भी, दिखता भी है और अदृश्य भी.
यही नहीं लौह-ए अजल का भी जिक्र है जिसमें सारी बातें पहले ही लिख दी गई हैं.लेकिन अनल हक क्या है? इसका अर्थ है, मैं सच हूं. यानी अहं ब्रह्मास्मि. लेकिन क्लासिक इस्लाम में तो ऐसी बातों के लिए गुंजाइश नहीं है.
यही बोलने के लिए तो दिल्ली में ही एक सूफी सरमद की गर्दन कलम कर दी गई थी. उनकी मजार जामा मस्जिद के पास है. नंगे फकीर शहीद सरमद की कहानी भी काफी दिलचस्प है, जिसे फिर कभी सुनाऊंगा.
इसके अलावा सोशल मीडिया पर फ़ैज़ की दूसरी नज्में वायरल हो रही हैं. उनमें से एक हैः जिस देस में... पाकिस्तान के हालात पर लिखी गई इस नज्म में लोगों की परेशानियों और हाकिमों की लापरवाही या लूट का जिक्र है.
फिर आखिर के दो लाइनों में लोगों से कहते हैं कि ऐसे हाकिमों से सवला पूछना और उन्हें सूली पर चढ़ाना वाजिब है. जाहिर है, आसानी से समझ में आने वाली इस नज्म में भारत के कुछ लोग के भी अपने हालात वैसे ही देखते हैं.
जिस देस से मांओं बहनों को अग़ियार उठाकर ले जाएं
जिस देसे से क़ातिल ग़ुंडों को अशराफ़ छुड़ाकर ले जाएं
जिस देस की कोर्ट कचहरी में इंसाफ़ टकों पर बिकता हो
जिस देस का मुंशी क़ाज़ी भी मुजरिम से पूछ के लिखता हो
जिस देस के चप्पे चप्पे पर पुलिस के नाके होते हों
जिस देस के मंदिर मस्जिद में हर रोज़ धमाके होते हों
जिस देस में जां के रखवाले ख़ुद जानें लें मासूमों की
जिस देस में हाकिम ज़ालिम हों सिस्की न सुनें मजबूरों की
जिस देस के आदिल बहरे हों आहें न सुनें मासूमों की
जिस देस की गलियों कूचों में हर सिम्त फ़हाशी फैली हो
जिस देस में बिन्ते हव्वा की चादर भी दाग़ से मैली हो
जिस देस में आटे चीनी का बोहरान फ़लक तक जा पहुंचे
जिस देस में बिजली पानी का फ़ुक़दान हलक़ तक जा पहुंचे
जिस देस के हर चौराहे पर दो चार भिकारी फिरते हों
जिस देस में रोज़ जहाज़ों से इमदादी थैले गिरते हों
जिस देस में ग़ुर्बत मांओं से बच्चे नीलाम कराती हो
जिस देस में दौलत शुर्फ़ा से नाजाएज़ काम कराती हो
जिस देस में ओहदेदारों से ओहदे न संभाले जाते हों
जिस देस में सादा लौह इनसां वादों पे ही टाले जाते हों
उस देस के हर इक लीडर पर सवाल उठाना वाजिब है
उस देस के हर इक हाकिम को सूली पे चढ़ाना वाजिब है
यक़ीनन यह नज्म पाकिस्तान के हालात पर लिखी गई है, लेकिन आज सीएए-एनसीआर के खिलाफ आवाज उठाने वाले छात्रों और आम लोगों को यह अपने हालात की तर्जुमानी करती हुई मालूम होती है. इसका ऑडियो वायरल हो रहा है.
उर्दू अदब में दिलचस्पी रखने वाले लोगों की बैठकों में फ़ैज़ के कलाम पढ़े जा रहे हैं, जिनमें उन्होंने अपने जमाने में हालात का जिक्र किया है. मिसाल के तौर पर एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ने अपने व्हाट्सऐप पर शेयर कियाः
निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले
इसी तरह कैद के दौरान उनके जोश का परिचय देने वाला यह किता भी लोगों को वाह, वाह करने के लिए मजबूर कर रहा हैः
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
ज़बाँ पे मोहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में ज़बाँ मैं ने
इन शेरों-नज्मों ने आम लोगों को फ़ैज़ और उनके कलाम के बारे में और जानने के लिए प्रेरित किया है. जिन लोगों को कुछ शब्दों के अर्थ नहीं मालूम हैं, वे लोगों से पूछ रहे हैं और अक्सर जगहों पर कई लोग बड़े आराम से उनके मतलब बताते मिल जाएंगे.
जारी...
(मोहम्मद वक़ास इंडिया टुडे के सीनियर एडिटर हैं)
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