अस्ति
उद्भ्रांत
नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज,
नई दिल्ली-2,
कीमतः 750 रु.
विपुलता में विश्वासः उद्भ्रांत
उद्भ्रांत ऐसे कवि हैं जो सदैव अपने समय से उत्प्रेरित रहे हैं. उनके पहले के काव्य संग्रह चाहे वह सदी का महाराग हो और चाहे हंसो बतर्ज रघुवीर सहाय अपने दौर को अभिव्यक्त करते रहे हैं. इसी तरह से हाल ही आया अस्ति कविता संकलन भी अपने दौर से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है-विषय की बहुलता और आकार-प्रकार में बहुलतम (विशालकाय).
यह संकलन लगभग 500 पृष्ठों का है, जिसके तीन खंड हैं-'जैसे सपना एक चकमक पत्थर है', 'उलटबांसी' और 'नींद में जीवन.' पहले खंड में स्मृतिगत कविताएं अधिक हैं-चाहे वे स्थानों की हों या संबधों की, वहीं दूसरे खंड में आस-पास का वातावरण अधिक मूर्त हुआ है-साधारणता लिए हुए वस्तुओं से लेकर जीव-जंतुओं तक. तीसरे खंड में चिंतन प्रधान कविताएं अधिक हैं जो दार्शनिकता से संबद्ध हैं-वर्तमान परिवेशगत दिक्कतों का समाधान-सा खोजती हुईं.
इस संकलन में जगह-जगह भूमंडलीकरण से उत्पन्न अपसंस्कृति की पहचान की गई है. मीडिया और चारों ओर लगे विज्ञान के होर्डिंगों से/पूंजी के बाजार का/लिपा-पुता/ उत्तर आधुनिक वस्त्रों में लिपटा/हजार शीश वाला एक राक्षस/हजार अपने हाथों के साथ/मंडरा रहा है सभी दिशाओं में; पूंजी का राक्षस/विश्व में फैल गई/चकाचौंध से भरी/मंडी में करता अट्ठाहास. इसके चलते भारत में उत्तर आधुनिकता ने/संस्कृति का अवमूल्यन किया' और जातिवादी, सांप्रदायिक/ताकतों का वर्चस्व बढ़ा. यही वजह है कि कवि उद्भ्रांत छीजती हुई संस्कृति का पाठ पढ़ाए जाने की प्रस्तावना करते हैं.
अस्ति में बहुत-सी ऐसी कविताएं हैं, जो स्थानों की विशिष्टता को चिक्कित करती हैं. नवलगढ़, कानपुर, चेन्नै का समुद्र तट, त्रिवेंद्रम की सांझ एक स्मृति पेठा आगरे की शान ऐसी ही कविताएं हैं. वे कविताएं भी ऐसी ही हैं जिनमें वे अपने पिता को, दादाजी को, अपने प्रेम को याद करते हैं तो लोक की, गांव की, छोटे शहरों की स्मृतियां भी साथ लगी चली आती हैं.
गांवों, शहरों से लगाव वास्तव में भूमंडलीकरण के बरक्स स्थानीयता को, देश को महत्व देना, उसकी सांस्कृतिक विशिष्टता को रेखांकित करना है. भूमंडलीकरण यानी विश्व पूंजी का राक्षस इस विशिष्टता को नष्ट कर रहा है. कवि उद्भ्रांत की कविता किसी भी देश में इस सत्य को उजागर करती है. किसी भी देश के/किसी भी शहर में/एक जैसी सोसाइयियां/सोसाइटियों में एक जैसे फ्लैट/फ्लैटों में एक जैसी संस्कृति. यानी एकरूपता, गैर-लोकतांत्रिकता.
गैर-लोकतांत्रिकता और एकरूपता की प्रवृत्ति सांप्रदायिकता में भी हम देखते हैं. उद्भ्रांत अपनी कविताओं के माध्यम से इस दैत्य का भी विरोध करते हैं. अयोध्या पर उनकी सात कविताएं हैं.
इनमें से कवि अयोध्या के हजारों वर्ष के इतिहास पर लगी कालिख पर दुख जताते हैं, राम के उस रूप को याद करते हैं जो हाशिए के लोगों के बीच मौजूद है. वे आंखें बंद करते हुए कामना करते हैं कि गहन सांप्रदायिक अंधेरे के बीच मुहब्बत, सौहार्द का दीपक सदा जलता रहे. इन्हीं में से एक कविता 'सीता रसोई. इसमें आज के स्त्री-प्रश्नों की अनुगूंज है-अपहरण का चिमटा/अशोक वृक्ष की लकड़ी/और अग्नि परीक्षा की आग/ धोबी के घर से भेजा गया/लोकापवाद का तवा था/ अपने ही घर से निष्कासन का चकला/और बाल्मीकि आश्रम का बेलन.
उद्भ्रांत ने स्त्रियों पर अनेक कविताएं लिखी हैं, जिनमें काशी की कन्याएं हैं, जो रिवाज को ही बदल देती हैं, बांग्लादेशी औरतें हैं, जो विस्थापित होकर हमारे देश में लोगों के घरों में काम करती हैं, तवायफ है जो कि हर पल मृत्यु की ओर तेज गति से बढ़ती है. बच्चों पर भी कई कविताएं हैं.
आदिवासियों की जीवन स्थितियों को उकेरने वाली कविताओं में बेकारी से जूझ्ने वालों को वास्तविक दलित कह दलित शब्द को एक नया आयाम दिया गया है. कबीर पर लिखी उनकी कविताएं कबीर के साहस को उजागर करती हैं-काशी का वह जुलाहा/सदियों पर सदियां पार करते/आज भी सक्रिय हैं-जीवंत/जाति-पांति पर/कर्मकांड पर/अस्पृश्यता पर/कोड़े पर कोड़े बरसाता. जाति आधारित भेदभाव किसी राक्षस से कम नहीं है. उद्भ्रांत ऐसे तबकों के प्रति संवेदनशील हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक विकास में उचित जगह और भागीदारी नहीं मिली और जो विकास के सामने हार गए.
कवि ने लुप्त होते जा रहे वातावरण को, ब्रह्मांड को कविता में जगह दी है. यह वातावरण मनुष्यों का, जीव-जंतुओं का, पशुओं का, पक्षियों का, पेड़-पौधों का, खेतों का, पहाड़ों, नदियों, झ्रनों का समवेत रूप है, इसमें वे चीजें भी शामिल हैं जो प्रगति के चलते अपना महत्व खो रही हैं जैसे 'पोस्टकार्ड.
कवि की एक बड़ी चिंता इन कविताओं के जरिए यह सामने आती है कि मनुष्य की 'प्रवृत्ति' बहुत हिंस्त्र हो गई है और उसी के रहने के लिए यह जगह कम पड़ रही है फिर अन्यों का क्या होगा? एक कविता 'पान का बीड़ा' है. पान की संस्कृति गैर-सांप्रदायिक है और रचनाकारों की एक पूरी परंपरा से जुड़ी हुई है, जिसे कवि याद करता है नामवर जी की खुशबूदार/वाचिक समालोचना के अलावा/भगवती चरण वर्मा, नागर जी और/ उनके शिष्य मनोहर श्याम जोशी की/अद्भुत किस्सागोई के पीछे/पान खिलखिलाता है.''
अपने समकालीन कवियों में उद्भ्रांत जितनी विपुल मात्रा में कविताएं किसी ने नहीं लिखीं. उनकी कविताओं में समूचा ब्रह्मांड व्याप्त है, तमाम समकालीन जीवन तरंगायित होता है और दुनिया को सुंदर बनाने वाले तमाम विचार उनमें अनुस्यूत हैं. फिर भी न जाने उनकी कविताओं में ऐसा क्या है कि वे प्रभावित नहीं करतीं. कुछ न कुछ ऐसा है जो रह-सा जाता है.
कविताओं को मुकम्मिल शक्ल नहीं मिल पाती. इनमें इनका कवि रूप कम, विचारक रूप ही अधिक उभरता है. इसका कारण शायद कवि का स्वतःस्फूर्तता पर जरूरत से ज्यादा निर्भर होना है-जो जैसा आता जाता है, कवि उसको वैसा ही कागज पर उतारता जाता है. त्याग और ग्रहण का विवेक ऐसे में खो जाता है उनकी कविताओं में और कविताएं असंबद्ध ही ब्रह्मांड में व्याप्त वैचारिक स्फुलिंग की तरह तैरती नजर आती हैं.