वो दौर सुनहरा
तहमीमा अनम (अनुवादः शिवानी खरे)
पेंग्विन बुक्स,
पंचशील पार्क,
नई दिल्ली-17,
कीमतः 225 रु.
यह छोटी-छोटी मानवीय छायाओं वाला दिलचस्प उपन्यास है, जिसमें बांग्लादेश की मुक्ति की लड़ाई की कथा बेहद नाजुक तरीके से अभिव्यक्त है. तहमीमा अनम स्त्री लेखिका हैं, इसकी कोमल उपस्थिति पुस्तक के किरचे-किरचे में समाई हुई है.
उपन्यास का विषय 1971 के पाकिस्तान और बांग्लादेश की ऐतिहासिक उथल-पुथल और जद्दोजहद का है. पर पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि पानी जैसे हल्के और गहरे प्रवाह के साथ कहानी आगे बढ़ रही है, जिसे पढ़ते हुए सुकून और तसल्ली होती है. कहानी गहरी छुअन के साथ हमारे दिलों में उतरती है. कथानक दंगे-फसाद का होने के बावजूद यह हमें अराजक और विद्रोही नहीं बनाता बल्कि हमें आत्मीय सुखों और दुखों के होने का बोध कराता है.
उपन्यास की केंद्रीय पात्र रेहाना है, जिसके शौहर का इंतकाल अचानक हृदय गति रुक जाने से हो जाता है. अब उसके सामने अपने दो छोटे बच्चे सुहैल और माया की परवरिश का प्रश्न है. रेहाना के शौहर इकबाल के बड़े भाई फैज और परवीज, जो निस्संतान हैं, बच्चों को अपने साथ लेकर लाहौर चले जाते हैं.
रेहाना ढाका में अब अकेली है, जिसके पास पूंजी के तौर पर शौहर और बच्चों की यादें हैं. पर उसमें उम्मीद और विश्वास बाकी है. इसलिए वह सारे दर्दों से लड़ते हुए भी एक समानांतर दुनिया रचती है, जिसमें आस-पड़ोस के लोग हैं. परिश्रम से बनाए गए घर और खेत का रचाव-बसाव है. लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद एक दिन वह अपने बच्चों को वापस लाने में सफल होती है.
उपन्यास आगे बढ़ता है. सुहैल और माया जवान हो गए हैं. वे यूनिवर्सिटी के छात्र हैं. देश-दुनिया की समझ है दोनों को. सुहैल की आंखें आशा से चमकती रहती हैं और माया जिम्मेदार हो गई है. अचानक जंग की शुरुआत हो जाती है. पूर्वी पाकिस्तान में अलगाव की लहरें जोरों पर हैं. पूरा ढाका शहर फौजियों के कब्जे में चला जाता है.
सुहैल अपने दोस्तों जॉय और आरेफ के साथ जेहादियों को घर में पनाह देता है. माया स्टुडेंट्स कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो जाती है. वह सफेद साड़ी पहनती है. सुहैल कई कामों के साथ असरदार भाषणों के लिए मशर हो जाता है. रेहाना बागियों को हर पल नजदीक से देख रही है.
पाकिस्तानी फौज का निशाना असहाय लोग बनते हैं. बंगाल चोटों-जख्मों से सहम जाता है. भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भेजी मुक्ति वाहिनी सेना बंगालियों की सही समय पर मदद करती है. काफी लोग बंगाल से कलकत्ता आ जाते हैं. रेहाना भी. एक समय आता है जब बांग्लादेश स्वतंत्र मुल्क बन जाता है. रेहाना के बेटे-बेटी की कुरबानी नहीं ली गई है. वे गोल्डन बंगाल वापस आ जाते हैं.
उपन्यास की बुनावट बेहद खूबसूरत है. इसमें जंग है तो मोहब्बत भी है. इस सारे वाकये में रेहाना कुछ दिन के लिए अपने यहां छिपे मेजर से इश्क में नजरबंद हो जाती है. और गलती के लिए वह अपने शौहर से माफी मांगती है.
बेटे सुहैल को पड़ोस की साधारण सिल्वी से बेहद प्यार है, जिसकी शादी फौजी से हो जाती है पर सुहैल के लिए सिल्वी अब भी जरूरी है. उपन्यास की भाषा चमकदार है. उर्दू शब्दों की रूमानियत सारे उपन्यास में है. अनुवाद बेहतर है. भाषा में खनक और गहराई है.