कथाः अंक-16
संपादकः अनुज
कथा प्रकाशन,
बाबा खड़कसिंह मार्ग, दिल्ली, कीमतः 100 रु.
editor.katha@yahoo.com
अनुजः नई पारी की शुरुआत
कथा नाम से हिंदी में एक महत्वपूर्ण पत्रिका की शुरुआत प्रतिष्ठित जनोन्मुखी कथाकार मार्कण्डेय ने 1969 में की थी. उनके संपादन में इसके कई अंक निकले, जिनकी हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में अपनी विशिष्ट जगह है. 2010 में मार्कंडेय का निधन हो जाने के बाद कथा का एक अंक मार्कंडेय को याद करते हुए सामने आया और अब मीरांबाई पर केंद्रित उसका यह विशेषांक मई 2012 में छपा है. मार्कंडेय की बेटी और कथा की प्रबंध संपादक डॉ. स्वस्ति सिंह और कथाकार अनुज ने कथा को जारी रखने तथा उसे नियमित बनाने का संकल्प कर मार्कण्डेय के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की है.
संपादन का जिम्मा अब अनुज के हाथों में हैं. मीरां पर अंक निकालना मार्कंडेय की अधूरी साध थी. उसी की पूर्ति के साथ अनुज ने अपनी पारी की शुरुआत की है. इसके लोकार्पण समारोह में डॉ. नामवर सिंह ने ठीक ही कहा कि ''मेरे जानने में किसी भी पत्रिका द्वारा मीरांबाई पर केंद्रित करके निकाला जाने वाला और इतना समृद्ध यह पहला विशेषांक है.'' स्त्री-विमर्श संबंधी चर्चाओं से तो पिछले दो दशकों का हिंदी साहित्य पटा पड़ा है, पर मीरां पर व्यवस्थित काम नहीं के बराबर हुआ है.
हिंदी के बड़े समकालीन आलोचकों में से अकव्ले विश्वनाथ त्रिपाठी ने ही उनमें एक स्वतंत्र पुस्तक का विषय बनने की पात्रता देखी. मध्यकाल में मीरां अपने जीवन और सृजन के संश्लेषण से जिस तरह की ऐतिहासिक परिघटना के रूप में उभरती दिखती हैं, उसका विश्लेषण और प्रशंसन अभी तक खासा अधूरा रहा है. उसे ही पूरा करने का काम कथा का यह अंक करता है और इस आत्मसजगता के साथ करता है कि मीरां पर बात करने का मतलब एक परिघटना पर बात करना है. संपादकीय में अनुज ने मैनेजर पांडेय के जिन उत्साहवर्द्धक शब्दों को उद्घृत किया है, वे बिल्कुल दुरुस्त हैं: ''मीरांबाई पर विशेषांक निकालना स्त्री-स्वाधीनता के पक्ष में खड़े होने की घोषणा करने जैसा है...''
इस अंक की विशेषता यह है कि इसमें मीरांबाई के अध्ययन का एक बहुत बड़ा दायरा घेरने की कोशिश की गई है. इसीलिए इसमें छपे नाम कई अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं. अगर इरफान हबीब ने पृष्ठभूमि के रूप में मध्यकालीन समाज में स्त्री की स्थिति पर आलेख दिया है, तो नामवर सिंह ने मीरां के मुख्तलिफ मूल्यांकनों के बारे में सारगर्भित टिप्पणी की है.
विश्वनाथ त्रिपाठी और मैनेजर पांडेय से लेकर रेखा अवस्थी से होते हुए बजरंग बिहारी तिवारी तक, आलोचकों की एक पूरी फेहरिस्त है जिन्होंने मीरां पर छोटे या बड़े आलेख लिखे हैं.
अनामिका से लेकर मनीषा कुलश्रेष्ठ और अल्पना मिश्र तक, रचनाकारों की भी एक सूची है, जिन्हें मीरां को याद करते देखा जा सकता है. इन सबके बीच कुमकुम संगारी का आलेख, ओमा शर्मा द्वारा गुलजार का साक्षात्कार, जबरीमल्ल पारख द्वारा गुलजार की मीरा का विश्लेषण और अनुज तथा निशांत मिश्र के लिखे 'मीरांमय' यात्रा-संस्मरण पूरे संकलन के स्वाद में खासा वैविध्य भरते हैं.
एक और विशेषताः इस अंक में एक तिहाई लेखन महिलाओं का है. आज की तारीख में भी इस तादाद को बड़ा कहना अफसोसनाक भले हो, गलत नहीं है. किसी भी पत्रिका में, शायद कथा के ही आगामी अंकों में, आप यह अनुपात मुश्किल से ही पाएंगे. एक संपादक के रूप में अनुज के लिए यह चुनौती होगी कि वे मीरां से अलग तरह के विषयों पर भी इतनी लेखिकाओं को नियमित रूप से जगह दें.