देवेंद्र सत्यार्थीः एक सफरनामा
प्रकाश मनु
प्रकाशन विभाग,
भारत सरकार
कीमतः 195 रु.
लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की औघड़ जिंदगी को उनके पास बैठकर नजदीक से महसूस किया है लेखक प्रकाश मनु ने. सत्यार्थी से उनकी लगातार मुलाकातों के बाद तैयार हुई यह किताब. उसी के कुछ अंश पेश हैं यहां:
इन यात्राओं में बार-बार भूख और फटेहाली सामने आकर खड़ी हो जाती. कई बार किसी पेड़ के नीचे या फुटपाथ पर भूखा सोना पड़ता. बीच-बीच में मेहनत-मजदूरी से उन्हें गुरेज न था. उन दिनों गुजारे के लिए सत्यार्थी जी ने टाटानगर में टीन की चद्दरें उठाने से लेकर अखबार बेचने, ट्यूशन, ह्ढूफरीडग जैसे काम किए. अजमेर में एक प्रेस में सत्यार्थ प्रकाश छपता था. वहां काम करते हुए उन्होंने अपना नाम 'सत्यार्थी' रखा और पारिवारिक नाम 'बत्ता' से छुट्टी पा ली, जो उन्हें बचपन से ही अप्रिय था (पेज 35-36).
सत्यार्थी जी से शांतिनिकेतन और गुरुदेव के बारे में सुनना सचमुच एक आनंददायक अनुभव था. ऐसे क्षण जब वे पूरी तरह खुद में डूब जाते और उनके शब्दों में गुरुदेव और शांतिनिकेतन का बड़ा ही छबीला चित्र उभरता था...''मैं तो रमता जोगी था, घूमते-घूमते ही शांतिनिकेतन पहुंचा था.'' सत्यार्थी जी ने मुस्कराते हुए बात का सिरा पकड़ा और फिर सुर में आकर बताने लगे. ''उन दिनों शांतिनिकेतन की दूर-दूर तक कीर्ति फैल चुकी थी. एक से एक बड़ी प्रतिभाएं वहां थीं. उनसे मिलने, बात करने का मन होता था, पर सबसे बढ़कर तो गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से मिलने की लालसा थी. तब तक गुरुदेव से छोटी-मोटी मुलाकातें तो हुई थीं लेकिन खुलकर बात नहीं हुई थी. उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे किसी से पैर नहीं छुआते थे. एक दफा मैंने धोखे से उनके पैर छू लिए तो उन्होंने मुझे प्यार से आशीर्वाद दिया. उसके बाद मैंने विस्तार से उनसे अपने लोकगीत संग्रह की चर्चा की तो बड़े गौर से सुनते रहे. खुश होकर बोले कि मैंने भी बचपन में बैलगाड़ी में बैठकर पूरे देश की यात्रा करनी चाही थी और 'पल्ली गीत' इकट्ठे करने की योजना बनाई थी, पर वह काम अधूरा रह गया. मुझे खुशी है कि जो काम मैं नहीं कर सका, वह तुम कर रहे हो.'' रवींद्रनाथ ठाकुर ने ही उन्हें बताया कि बंगाल में लोकगीतों को 'पल्ली गीत' कहा जाता है...शांतिनिकेतन में गुरुदेव से तो मिलना होता ही था, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर तथा और भी न जाने कितनी विभूतियों से वे वहां पहले-पहल मिले...(पेज 45-46).
आचार्य (हजारीप्रसाद) द्विवेदी से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग सत्यार्थी जी अक्सर सुनाते थे...सत्यार्थी जी शांति निकेतन में उनसे मिलने के लिए गए. कुछ साहित्य प्रसंग, कुछ घुमक्कड़ी की चर्चा और गपशप हुई. द्विवेदी जी बड़ी रुचि से सत्यार्थी जी से उनकी लंबी और अनवरत यात्राओं के बारे में पूछते रहे. फिर अचानक बातों-बातों में उन्होंने पूछा, ''आजकल क्या लिख रहे हैं?'' उस समय सत्यार्थी जी के हाथ में एक रेखाचित्र था, 'इरावती'. उन्होंने वह द्विवेदी जी को पढ़ने के लिए दिया. द्विवेदी जी ने वह लेख रख लिया. दो-एक दिन बाद सत्यार्थी जी को लौटना था...लेख वापस मांगा. पर द्विवेदी जी ने गंभीर मुखमुद्रा के साथ कहा, ''वह लेख तो अब आपको न मिल सकेगा.'' सत्यार्थी जी चौंके, ''क्यों भला?'' इस पर उन्होंने कहा, ''वह तो विश्वभारती में छप रहा है. मैंने तभी प्रेस में भेज दिया था. आप आज रात को रुकें तो उसके ह्ढूफ भी देखते जाइए.'' (पेज 51).
अज्ञेय से सत्यार्थी जी के रिश्तों का ग्राफ बड़ा पेचीदा रहा है. एक समय वे साथ रहे, फिर दूरियां भी आईं. मन मिले भी, टकराव भी हुआ. पर सच्चाई यह थी कि सत्यार्थी जी अज्ञेय का काफी सम्मान करते थे और वे भी उन्हें काफी आदर देते थे (पेज 99-100).
सत्यार्थी जी पाकिस्तान की यात्रा पर गए तो बगैर घर वालों को बताए, महीनों वहीं टिक गए थे. तब लोकमाता को पं. नेहरू को खत लिखना पड़ा. सत्यार्थी जी से इस बारे में पूछा गया...वे बताने लगे, ''नेहरू जी ने वह पत्र पाकिस्तान में भारत के राजदूत को भिजवाया. उन्होंने जोर लगाया, पाकिस्तान के लेखकों ने भी समझया, तब मैंने वापस दिल्ली का टिकट कटाया.'' सत्यार्थी जी...लाहौर के डीएवी कॉलेज में उनके सम्मान में हुए जलसे का जिक्र करना नहीं भूलते थे...उर्दू के बड़े-बड़े अदीब जिनमें फैज अहमद फैज और मियां बशीर अहमद भी थे,...फैज ने इस जलसे में बोलते हुए कहा कि उन्होंने बरसों पहले आल इंडिया रेडियो पर समीक्षा करते हुए, सत्यार्थी जी की पहली उर्दू किताब मैं खानाबदोश को लोकगीत यायावर का एक अजीम सफरनामा करार देने की खुशनसीबी हासिल की. मियां बशीर अहमद ने बड़े दिलकश अंदाज में बताया कि उन्होंने मैं खानाबदोश का दीबाचा (भूमिका) लिखा था, जिसे स्याही में भिगोने के लिए उन्हें कराची के समंदर के किनारे एक बंगले में कुछ दिन गुजारने.