धर्मस्थल
प्रियंवद
अंतिका प्रकाशन, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-5,
कीमतः 110 रु.
उपन्यास धर्मस्थल न्याय व्यवस्था और सत्य के विडंबनाग्रस्त स्वरूप पर केंद्रित है. यह प्रियवंद का चौथा उपन्यास है. इससे पहले पाठक उनके तीन उपन्यास वे वहां कैद हैं, परछाई नाच और छुट्टी के दिन का कोरस' के साथ-साथ तीन कहानी संग्रह और इतिहास से संबंधित विषयों पर लिखीं दो पुस्तकों से परिचित हो चुके हैं. हम जिस न्यायप्रणाली में रह रहे हैं उसका बहुलांश औपनिवेशिक शासन द्वारा प्रदत्त है. प्रियंवद इस उपन्यास में उसकी आरंभिक और बुनियादी विसंगतियों को रचनात्मक रूप से सामने लाने का प्रयास करते हैं.
8 फरवरी 2012: तस्वीरों में इंडिया टुडे
वे रचना में किसी एक सत्य, नैतिकता, न्याय, व्यवस्था को अंतिम नहीं मानते बल्कि इनके स्वरूप में आने वाले बदलावों, गड़बड़ियों को बेहतर ढंग से पहचानते हैं. वे संदेह के भीतर से जन्म लेने वाले सच को तो प्रमुखता देते हैं लेकिन किसी 'एब्सोल्यूट' सत्य को मान्यता नहीं देते. वे इतिहासविद् साहित्यकार हैं. विसंगति के मूल में जाते हुए वे 1775 में दिए गए पहले ऐतिहासिक निर्णय को रचना में पिरोते हैं. इस खोज में वे औपनिवेशिक शासन के समय में 5 अगस्त, 1775 को नंदकुमार को मिली फांसी को सबसे पहला और झूठ पर टिका मुकदमा बताते हैं.
1 फरवरी 2012: तस्वीरों में इंडिया टुडे
प्रियंवद अपने रचनाकार रूप में जब ऐसी जानकारियां इतने तथ्यात्मक रूप में सामने लाते हैं तो वह उपन्यास की बजाए शोध-लेख का हिस्सा लगने लगता है. इस उपन्यास का केंद्रीय विषय न्याय व्यवस्था और रचना के सच को जानना है. कामिल और उसके सर्जक पिता इसके केंद्रीय चरित्र कहे जा सकते हैं. कामिल इस उपन्यास के कथावाचक का मित्र और कथानायक है. वह अपने शिल्पी रचनाकार पिता का संवेदनशील पुत्र है. एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार जिसमें मां, पिता और भाई का परिवार है. कामिल अपने दोस्त विजन के साथ धर्मस्थल में घूमता है. धर्मस्थल शब्द व्यंग्यात्मक है. इसे प्रियंवद न्यायालय के न्याय विरोधी आचरण के लिए प्रयोग में लाते हैं. पिता रात भर जागकर कला की साधना करते हैं.
25 जनवरी 2012: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
कामिल परिवार की स्थितियों के चलते पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान न देकर टाइपिंग सीखता है. बाद में वकीलों के यहां टाइप करने का काम करने लगता है. कानून और न्याय व्यवस्था को जानता चलता है. कचहरी में काम करने वाले आनंद स्वरूप के लिए काम करता है. उनकी बेटी दाक्षायणी से वह प्रेम करने लगता है. बाद में कामिल से विमुख होकर वह मादल पर अनुरक्त हो जाती है. कामिल एक झूठे मुकदमे में जेल चला जाता है. पर उसका स्थितियों के प्रति लगातार आत्मसमर्पण करते जाना खटकता है.
धर्मस्थल प्रियवंद के पिछले उपन्यास छुट्टी के दिन का कोरस से काफी छोटा और सुगठित है. भाषा में पठनीयता है लेकिन वाक्य संरचना जान-बूझकर कहीं-कहीं ऐसी बनाई गई है जो प्रवाह को बाधित करती है. मसलन वाक्यों में सर्वनाम को एकाधिक बार अंत में दिया गया है. ऐसी स्थितियां कथा-रस को भंग करती हैं. खैर विषय ऐसा है जो हमारी-आपकी जिंदगी से जुड़ता भी है और उस पर कभी-कभी प्रभाव भी डालता है. पर वर्ग-विभक्त विषमताग्रस्त, समाज में न्याय व्यवस्था के वर्गीय चरित्र की ओर प्रियंवद कोई संकेत नहीं करते.
18 जनवरी 2012: तस्वीरों में देखिए इंडिया टुडे
इस तरह के कथ्यों के लिए जिस रचना-माहौल की जरूरत होती है, उसे प्रियंवद बड़ी सावधानी से बुनते हैं. पात्रों का अकेला होना, दार्शनिक मनस्थिति से घटनाओं पर प्रतिक्रिया करना, घर और आसपास की निस्संगता, भुतहा माहौल, अजीब दिनचर्याएं, आदतें, बातचीत के जीवन-निरपेक्ष विषय सब कुछ को प्रियंवद रचना में शामिल करते हैं. कई बार पाठक को लगने लगता है कि यह ठहरा हुआ उदास, निस्संग जीवन ही तो कहीं रचना का कथ्य नहीं है. फिर उसमें मृत्यु, कब्रिस्तान, जेल, पुरानी बेतरतीब स्मृतियां, तर्कातीत आदतें, सेक्स, जीवन से बेरुखी का भाव सब कुछ चेतना प्रवाह शैली में आता चलता है. इतिहास और स्मृतियां निर्जीव रूप में कथित-चित्रित दिखती हैं.
प्रियंवद इतिहास से तथ्यों को लाकर दिखाते हैं कि कैसे न्याय व्यवस्था में शुरू से ही छद्म न्याय के रूप में अन्याय होता रहा है. वर्तमान स्थितियों में वे कामिल के उदाहरण के अलावा न्याय व्यवस्था की अमानवीयता से पाठकों को अवगत जरूर कराते हैं, पर संवेदित नहीं कर पाते.