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किताबें/ नाटक: टूटती मर्यादाओं की त्रासदी

जब सारी मर्यादाएं टूट जाएं, सारे मूल्य नष्ट हो जाएं...बचे सिर्फ अधिकार-सत्ता की निरंकुशता, मनमाने सुख का खुला खेल, तो जीवन-खासकर .जहीन और सही व्यक्ति का-कितना बेबस, त्रासद हो सकता है; इसी का एहसास ही हिंदी के आधुनिक क्लासिक नाटककार सुरेंद्र वर्मा के नए नाटक रति का कंगन का मकसद है.

अपडेटेड 1 अक्टूबर , 2011

रति का कंगन
सुरेंद्र वर्मा
भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली-3,
कीमतः 150 रु.

प्रेम की वही चिरपरिचित जमीनः
जब सारी मर्यादाएं टूट जाएं, सारे मूल्य नष्ट हो जाएं...बचे सिर्फ अधिकार-सत्ता की निरंकुशता, मनमाने सुख का खुला खेल, तो जीवन-खासकर .जहीन और सही व्यक्ति का-कितना बेबस, त्रासद हो सकता है; इसी का एहसास ही हिंदी के आधुनिक क्लासिक नाटककार सुरेंद्र वर्मा के नए नाटक रति का कंगन का मकसद है.

इसके मुख्य क्षेत्र हैं-शिक्षा और प्रकाशन. विश्वविद्यालयों की नियुक्तियां और पीएचडी की डिग्रियां योग्यता नहीं, पद और देह-सुख पाने की मनमानियां हैं, ''शोध छात्र का शरीर, हृदय और आत्मा निर्देशक की मुट्ठी में रहते हैं.'' जिस किताब से प्रकाशक करोड़पति बनता है, उसके लेखक को सैकड़े में भी रॉयल्टी नहीं देता-''इससे घिनौना, कुत्सित और वीभत्स संबंध दूसरा नहीं.'' इस नाटक का नायक मल्लिनाग दोनों का शिकार है.

लेकिन वर्मा की हर रचना की तरह इस नाटक में भी अभिव्यक्ति का माध्यम प्रेम और काम संबंध हैं. मनमानी यहां भी है. उन्होंने 1970 के दशक में विवाह के बाद संतानोत्पत्ति के लिए काम-संबंध की मर्यादा को तोड़ा था, तो लोगों को मनमानी लगी थी. तब उन्होंने इसके लिए प्रेम का मूल्य स्थापित किया था.

अब उनके देखते यह भी धसक रहा है. देह के लिए देह, वह भी जब तक जिससे मन माने, और बीच में किसी अन्य से भी...यानी वही मनमानी हैः ''मैं प्रेम नहीं करता, अंतरंग लेकिन सीमित आत्मीयता का लेन-देन करता हूं...प्रेमी संज्ञा अब उतनी ही लिजलिजी हो गई है, जितनी प्रागैतिहासिक काल में पति थी...आज के इस टुच्चे और लुच्चे समय में स्त्री-पुरुष अपनी भावनात्मक प्रकृति की खोज-पड़ताल करें...दूसरी स्त्री में बड़ा आकर्षण होता है...''

इन सबसे लगा था कि सहचर संबंध (लिव-इन रिलेशनशिप), उन्मुक्त यौन-रिश्ते और विज्ञापनों में स्त्री की खुली छवियों आदि की तरफ  बात जाएगी, लेकिन कटाक्ष रूप में इन सारे फे.जे.ज से गुजरने और कई-कई युवतियों के संपर्क में आने के बाद की मूल्यहीन मनमानियों से विमुख होकर मल्लिनाग मेघांबरा से सच का प्रेम करने लगता है और मानता है, ''जिसे तृप्ति कहते हैं, वह प्रतिबद्धता के बाद ही आती है.'' और ''एकनिष्ठता प्रेम का चिरंतन मूल्य है और रहेगा' का ही प्रतीक है रति का कंगन.

इसका धारक यदि किसी अन्य स्त्री से कोई भी संबंध बनाता है, तो ऐसे रति-कंगन-दोष के पापी का संपूर्ण बहिष्कार होगा-मतािधकार से भी वंचित. कामसूत्र की रचना के रूप में स्थितप्रज्ञ, आध्यात्मिक स्वरूप तक का संधान हुआ है. प्रतिशोध को एकमात्र मूल्य मानने और कूटनीति से ही दुनिया रचने वाले अर्थशास्त्र के प्रणेता कौटिल्य भी अपनी प्रेमिका के लिए यहां आजीवन तड़पते हैं, यानी वर्मा की दुनिया इसी प्रेम और प्रेममय मूल्यों की दुनिया है.

इस प्रकार वे अपनी उसी प्रेम की जमीन पर आते हैं, जिसे लेकर सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक से चले थे और जिसे कई प्रेम संबंधों के बीच से मुझे चांद चाहिए की वर्षा ने पाया था. और दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता के पुरुष वेश्या नायक ने भी इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाकर जान तक गंवा दी थी. यहां इसका हामी है-मेघांबरा द्वारा अपना दिया रति का कंगन वापस ले लेना.

लेकिन इन सबके बावजूद पुरजोर यकीन है कि हर रचना की तरह काम-निरूपण को ही मकसद मानकर (दो मुदोर्हूं के लिए गुलदस्ता के लिए गोपाल राय जैसी) छीछालेदर की त्रासदी से इसे भी गुजरना होगा.

यानी न वर्मा अपनी जमीन छोड़ेंगे, न .जमाना अपना रवैया- ''वो अपनी खूं न छोडेंग़े, हम अपनी वजअ क्यों छोड़ें.'' और .जमाने की इस खूं के साथ वर्मा का सलूक नरम नहीं, तेज से तेजतर होता जा रहा है. इस बार ऐसों के लिए आठवां सर्ग के कला-अनाड़ियों से भी ज्‍यादा हास्यास्पद पात्र और प्रसंग वियोगी के रूप में आया है, जो उद्यान में दुष्यंत-शकुंतला के चुंबन-दृश्य के लिए कालिदास को संस्कृति-भंजक बताता है.

और काम-संबंधों का गाढ़ापन रचना-दर-रचना बढ़ता जा रहा है. पिछली कृति काटना शमी वृक्ष का पद्म पंखुरी की धार से से नाभि-उरोजादि पर विशेषक बनाने की श्रृंखला में अब कटि के नीचे और ऊपर के अंगों की संवहन (मालिश) पद्धतियों के साथ पर-स्त्रियों को अंगिया और नितंब-पीतांबर पहनाने के कारण मल्लिनाग को मिला 'रति का कंगन' वापस होता है. सौंदर्य-स्पर्धाओं को स्वीकृति-सी देने और प्रोफेसर लवंगलता द्वारा अपने शोध छात्र का यौन-शोषण...आदि समाविष्ट हैं. प्रेम-वंचित नीलांबरा का राजनीति की क्रूरता तले बेटी के साथ बलात्कृत होते रहने के बाद आत्महत्या में नाट्य और वीभत्सता का चरम है.

लेकिन संस्कृत से तराश कर बनाए पुरलुत्फ  शब्दों से सजी तत्समी भाषा और शैली के कटाक्ष भरे गाढे़ विनोद और व्यंजना शक्ति के कुशल प्रयोग आदि से बने आभिजात्य में यह सारा दृश्य-संभार तनिक भी अश्लील न होकर पर्याप्त रंजक हो जाता है.

यह गुर नाट्य का श्रृंगार तो है ही, मंच पर इनके ऐसे ही क्लासिक निर्वाह के लिए रंग-निर्देशकों को चुनौती भी देता है और ढेरों स्कोप भी. नाट्यकर्मियों और पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो इन ममोर्हूं को समझ्ता है. और कौन-सी ऐसी रचना है, जिसके साथ समूचा समाज खड़ा होता हो?

नाटकों से आने पर वर्मा के उपन्यास नाट्यमय होकर कलावृद्धि को प्राप्त हुए हैं. पर अब उपन्यासों के असर में कई सौ वषोर्ं (भास से लेकर बाणभट्ट-शंकराचार्य तक) के समय और कई शाखाओं में चलने लगी है कथा.

इनके सूत्र तो जोड़ दिए गए हैं, पर इसके लिए सूत्रधार के सर्वत्र विराजमान पात्रत्व के बावजूद नाट्य की केंद्रीयता बिखरी है और इसी के साथ रति के कंगन की आत्मरति में नाटक का पसार ऐसा दोगुना हो गया है कि ट्रायलॉजी के वजन पर साढे़ तीन घंटे का बॉ-योलॉजी हो सकता है.

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