हिंदी का आलोचना पर्व
कृष्णदत्त पालीवाल
सामयिक प्रकाशन,
जटवाड़ा, दरियागंज,
नई दिल्ली-2,
कीमतः 695 रु.
दिनकर और बच्चन के संदर्भ में उनके सही मूल्यांकन में बड़ी बाधा उनका मंच का लोकप्रिय कवि होना भी रही है. पालीवाल ने इस 'मंचीय पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विचार करने के साथ उनके साथ हुए इस आलोचकीय अन्याय का प्रतिकार भी किया है.
इधर एक अरसे से हिंदी में आलोचना की स्थिति को लेकर काफी बयानबाजी होती रही है. बयानबाजी शब्द का इस्तेमाल साभिप्राय किया जा रहा है क्योंकि गंभीर विमर्श का स्थान वक्तव्यों ने ले लिया है. मंच और अवसर के हिसाब से, और देश-काल के परिदृश्य को भांपते हुए निष्कर्षात्मक वक्तव्यों से गंभीर आलोचना नेपथ्य में चली गई है. कुछ अगर-मगर के बावजूद इस पर व्यापक सहमति-सी दिखाई देती है.
डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल इस रूप में उक्त तथ्य के अपवाद कहे जा सकते हैं कि उन्होंने पिछले दो दशकों में मध्यकालीन हिंदी कविता से लेकर बिल्कुल आज तक के कवियों और उनके कवि कर्म पर बेबाकी से लिखा है. अज्ञेय और अज्ञेय के कवि-गुरु मैथिलीशरण गुप्त की ग्रंथावलियों के संपादन के क्रम में लगता है, पालीवाल ने आधुनिक हिंदी कविता को पूरी तरह खंगाल डाला है. इसकी एक बानगी उनकी नवीनतम पुस्तक हिंदी का आलोचना पर्व में साफ दिखाई देती है.
यह पुस्तक वैसे अलग-अलग समय और अवसरों पर लिखे गए निबंधों का 'संकलन' है और कुल मिलाकर इक्कीस निबंधों में सत्रह कवियों के काव्य-जगत का विश्लेषण-विवेचन किया गया है, जिसमें मैथिलीशरण गुप्त से लेकर विनोद कुमार शुक्ल तक शामिल हैं, लेकिन यह आधुनिक हिंदी कविता का कोई सिलसिलेवार और मुकम्मल इतिहास प्रस्तुत नहीं करती.
महादेवी वर्मा को छोड़कर छायावाद और प्रगतिवाद के तमाम कवि इस विमर्श में पूरी तरह अनुपस्थित हैं. ऐसा इसलिए कि पालीवाल इसमें इतिहासकार की तरह किनारे पर खड़े होकर कवि और कविता का संस्पर्श भर नहीं करते, बल्कि वे कवियों के काव्य-सागर में भीतर तक उतरे हैं.
छायावाद-प्रगतिवाद और नई कविता के बीच माखनलाल चतुर्वेदी, बच्चन और दिनकर हिंदी कविता के अत्यधिक महत्वपूर्ण कवि हैं जिन पर अभी तक ढंग से विचार नहीं हुआ है. इसका एक कारण संभवतः यह हो सकता है कि हिंदी कविता को वादों और आंदोलनों में बांधकर देखने के हम इस हद तक अभ्यस्त हो गए हैं कि वाद और आंदोलन का अपेक्षाकृत छोटा कवि भी इतिहास और आलोचना में जगह पा जाता है और इनसे मुक्त सशक्त कवि भी फुटकर कवि रह जाता है.
दिनकर और बच्चन के संदर्भ में उनके सही मूल्यांकन में बहुत बड़ी बाधा उनका मंच का लोकप्रिय कवि होना भी कहीं-न-कहीं रही है. पालीवाल ने इन कवियों पर इस 'मंचीय पूर्वाग्रह' से मुक्त होकर विचार करने के साथ उनके साथ हुए इस आलोचकीय अन्याय का प्रतिकार भी किया है.
इन निबंधों में लेखक की केंद्रीय चिंता कोई है तो वह है हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा को विस्मृति और उपेक्षा के कुहासे से बाहर लाना. उनका स्वर देखिएः ''हाय री विडंबना! हिंदी की आधुनिक आलोचना ने देशभक्तिपरक रचना-कर्म को तुच्छ भावुकता की सतही कविता कहकर ठुकरा दिया है. इस ठुकराने के पीछे हिंदी के उन आलोचकों की साजिश है, जो विदेशी विचारधाराओं के प्रचारक या कपट मुनि हैं. ये आलोचक देश भक्ति के नाम से ऐसे बिदकते-भड़कते हैं, जैसे पागल पानी से डरता है.''
पालीवाल निस्संदेह विजयदेव नारायण साही से प्रभावित दिखते हैं, इसलिए इन तमाम निबंधों में वे बार-बार साही को उद्धृत करते हैं, स्मरण करते हैं, अपनी बात के प्रमाण के लिए साही को उपस्थित कर देते हैं. फिर साही पर लिखे उनके निबंध में उनका आलोचकीय तेवर अपने सबसे तेजस्वी रूप में उभर कर सामने आया है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
साही पर निबंध की वे शुरुआत ही कुछ ऐसे करते हैं, ''विजय देव नारायण साही की स्मृति नई पीढ़ी के दिमाग में बसी इतिहास, समाज, संस्कृति और परंपरा के चिंतन सूत्रों की वह कभी न खत्म होने वाली स्मृति है, जो हमारी प्रगतिशीलता और भारतीयता के दोनों किनारों को गर्म रखती है.'' वे आगे साही के प्रसिद्ध निबंध लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस के संबंध में लिखते हैं, ''अकेले इसी एक लेख ने साही को हिंदी समीक्षा के केंद्र में ला दिया है. इस लेख के वाक्यों को विवश होकर मार्क्सवादी आलोचकों ने अपना 'हनुमान चालीसा' बनाया तथा जोर-जोर से गाकर अपना भय भी दूर किया.''
पुस्तक में अलग-अलग निबंधों में रामनरेश त्रिपाठी, अज्ञेय, सर्वेश्वर, कुंवरनारायण, गिरिजाकुमार माथुर, भवानी भाई, रघुवीर सहाय, धूमिल, राजकमल चौधरी, बालकृष्ण राव और विनोद कुमार शुक्ल के काव्य संसार की भी पड़ताल की गई है जो इन कवियों के बहुत-से अनछुए-अलक्षित पहलुओं का खुलासा करते हैं. विश्लेषण क्षमता और स्मृति संपदा पर प्रबल हमला हो रहा है. ऐसे विकट समय में इस ग्रंथ के निबंध हिंदी में सर्जनात्मक आलोचना का एक नया पाठ ही उजागर करते हैं.