अरुण प्रकाश
अंतिका प्रकाशन,
गाजियाबाद,
कीमतः 350 रु.
antika56@gmail.com
लब्बोलुआब
हमारे समय में जानकारियों का विस्फोट हो रहा है. सूचनाओं का तंत्र इतना विकसित हो गया है और हो रहा है कि गति के कारण सब कुछ अस्थिर, गतिमान लग रहा है. इस सबका दबाव साहित्य पर पड़ना अनिवार्य है. उसकी वस्तु के साथ-साथ उसके रूप तट भी टूट रहे हैं. वस्तु की व्याख्या-विश्लेषण करने वालों की कमी नहीं है लेकिन रूप पर गंभीर विचार करने वाले कम क्या, दुर्लभ हैं.
ऐसी स्थिति में प्रतिष्ठित कथाकार और चिंतक अरुण प्रकाश की साहित्य रूपों पर मौलिक विचार करने वाली इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है. इस किताब के प्रारंभ में ही रूप-बंध और विधा को पृथक करते हुए फार्म के लिए रूपबंध और जेनर के लिए विधा शब्द का प्रयोग किया गया है. रूप-बंध शब्द-संयोग मौलिक है. हिंदी आलोचना में अब तक रूप और विधा में ऐसा अंतर नहीं किया जाता था. आशा है कि अरुण प्रकाश द्वारा प्रस्तावित प्रयोग-अंतर मान्य होगा.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ही गद्य की प्रखरता स्थापित कर दी थी. गद्य हमारे सामाजिक व्यवहार का लगभग एक मात्र भाषा-रूप बन गया है. इसीलिए उसमें नए-नए रूपबंधों और विधाओं का आविष्कार निरंतर हो रहा है. अरुण प्रकाश ने इस पुस्तक की रचना हिंदी गद्य के इतिहास में निर्णायक और अभूतपूर्व सक्रिय दौर में की है और इस सक्रियता से उपजी समस्याओं और विवेचन-विश्लेषण का मूल्यांकन किया है. विचार प्रक्रिया से गुजरने वाला पाठक इस बात का अनुभव आद्यंत करता रहता है कि लेखक ने जिन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाले हैं वे विश्वसनीय तो हैं ही, विचारक ने उन्हें अंतिम या स्थिर नहीं, निरंतर विकसमान और गत्वर माना है. अरुण प्रकाश ने आसान नहीं कठिन रास्ता चुना है.
तथ्य संकलन इतने व्यापक स्तर पर किया गया है कि प्रत्येक रूप-बंध (या विधा) का इतिहास भी लपेट में आ गया है और उसके प्रमुख नाम भी. यह काम हिंदी के ही नहीं, अनेक भाषाओं के क्षेत्रों तक फैला है. पाठक किताब पढ़ते हुए अनेकानेक विद्या अनुशासनों और सामाजिक इतिहास की दुर्लभ (कभी-कभी चौंकाने वाली) सूचनाओं से मुखातिब होता है. इन सूचनाओं का कारण निस्संदेह लेखक का बहुज्ञ होना है. लेखक पत्रकार तो हैं ही, वे इतिहास में विशेष रुचि रखते हैं.
पुस्तक में गद्य की अद्यतन विधाओं का निरूपण किया गया है. उन विधाओं के उद्भव के सामाजिक, ऐतिहासिक संदर्भ का नेपथ्य बताया गया है. ये विधाएं परस्पर इतनी मिली-जुली और समान हैं कि इनकी रूपात्मक निजता अकसर ओझ्ल हो जाती है. अनुभवी ही जानते हैं कि साहित्य की विधाओं पर काम करने वाले को मनोविश्लेषक के साथ-साथ मानसिक प्रवृत्तियों की भी पहचान होनी चाहिएः ''स्मृति के वल सूचना नहीं है कि उसे शुद्ध रूप से फिर से हासिल कर लिया जाए.
स्मृति, हमारी सूचना को पहचनाने की क्षमता को भी धूमिल करती है. आप खोज रहे हैं कुछ, मिला उससे मिलता-जुलता कुछ और...इसीलिए संस्मरण को संदेह से देखा जाना चाहिए. उसे संदेह से परे मानने की गलती कतई नहीं करनी चाहिए.''
यह पुस्तक एक पत्रकार, उससे बढ़कर एक रचनाकार और उससे भी बढ़कर समाजवादी विचारधारा से लैस देशप्रेमी बहु-पठ व्यक्ति द्वारा लिखी गई है. यह वस्तुतः आलोचना की पुस्तक है. अपनी लेखन शैली के कारण यह आलोचना के साथ विधाओं के इतिहास की भी पुस्तक बन गई है. बीच-बीच में अरुण प्रकाश का रचनाकार आता है जो इस आलोचना-इतिहास की पुस्तक को सर्जनात्मक पठनीयता से संपृक्त कर देता है. डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, राजकिशोर को शायद पहली बार हिंदी निबंधकारों की श्रेणी में रखकर विचार किया गया है. गद्य की पहचान ऐसी दुर्लभ आलोचना कृति है जो वस्तुनिष्ठता के साथ सर्जनात्मकता से भूषित है. सच्ची आलोचना भी सर्जना होती है और गद्य की पहचान इस कथन का सार्थक उदाहरण है.