संचयिताः हकु शाह
संपादन-अनुवादः पीयूष दईया
वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर-3,
कीमतः 900 रु.
लक्ष्मी; कांसे की बकरी; और चींटी का ब्याह
साहित्य की विधा के रूप में अब महाकाव्य लोकप्रिय नहीं है, फिर भी, हकु शाह के आलेखों, निबंधों और वार्ताओं की यह संचयिता महाकाव्यात्मक ही कही जा सकती है. महाकाव्यात्मक कई अर्थों में: पूरे भारत में गांव-देहात-जंगल में बसे कुछ विख्यात और अधिकांश अज्ञात कलाशिल्पी इस के नायक-नायिका हैं.
जन्म, बल्कि गर्भाधान से लेकर अंतिम यात्रा तक, व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में हर मोड़ पर कलात्मक सर्जना के असंख्य विजय अभियान इसमें चित्रित या संकेतित हैं. रामायण या महाभारत की तरह ही, ये निबंध अगर मनोयोग से पढ़े जाएं तो इनकी प्रेरणाएं हमारी जागृत-सुप्त-सुषुप्त अवस्थाओं का अभिन्न अंग बन जा सकती हैं.
संचयिता एक बार फिर चेताती है कि कला जीवन का अविभाज्य अंग है. चित्रांकन, मूर्ति-रचना, गायन, वादन, नर्तक इत्यादि तमाम कला रूप जीवन को जीने के उल्लास से निकलते हैं. ''घास की एक पत्ती, तुमड़ी, कपड़ा, टहनी, अन्न, पिन, प्लास्टिक के बटन, शंख, पंख, पत्ती या फूल अथवा कुछ भी जब एक आदिवासी छूता है तो वह उसके आर-पार देखता है, उसे सुनता है, उसकी गंध लेता है और यहां इसके/ची.जों के साथ होने का एक अनुष्ठान आरंभ हो जाता है. यह निर्जीव वस्तु सजीव हो उठती है...उसके होने, उसकी हस्ती का एक भाग बन जाती है. इस बिंदु पर यह बात बिल्कुल बेमतलब ही ठहरती है कि वह गरीब और असाक्षर है'' (गर्भ नो खहरो, पृष्ठ 111).
देश भर में ह.जारों तरह के घड़े आदि बनाने वाले कुम्हार, मिट्टी-लकड़ी-पत्तियों-कान्नग.ज वन्नगैरह से खिलौने बनाने वाले शिल्पी, आसपास की वस्तुओं से रंग बनाकर पिठोरा या मधुबनी के चित्र, या तुमड़ी-बांस-घास वन्नगैरह से डोवडूं नामक वाद्य बनाने वाले आदिवासी-ग्रामवासी कलाकार के रूप में समादृत नहीं है. हकु शाह के वचनों की विशेषता यह है कि वे शिल्प और कला का भेद मिटा देते हैं.
एक बहुत रोचक प्रसंग यह भी है कि बकरी का शिल्प बनाने में पाब्लो पिकासो का दिमान्नग लगभग वैसे ही काम कर रहा था जैसा कि एक आदिवासी या ग्रामीण रचनाकार का! रचना-सामग्री की परख और उससे तादात्म्य. अपनी रचनाओं के लिए उपयुक्त औ.जारों और साधनों का अन्वेषण.
प्रत्येक रचना का अपना निराला व्यक्तित्व-पनघट पर या नल पर एक ही कुम्हार के बनाए घड़े हों तब भी प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना घड़ा पहचान लेता है; हकु शाह इस उदाहरण से बताते हैं कि साधारण ग्राम-शिल्पी भी लकीर का .फ.कीर नहीं होता.
कला के अनेक रूपों में अपने प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध हकु शाह देश-विदेश के अनेक उच्च-भ्रू संस्थानों से भी संबद्ध रहे हैं. वे श्ुद बड़ौदा के विश्वविद्यालय (कला संकाय) की उपज हैं. फिर भी, इस पूरे देश की माटी-हवा-वनस्पति के साथ, और इसी मटीरियल से अनोखे कपड़े, गहने, खिलौने, देवी-देवता, वाद्य इत्यादि बनाने वाले देहाती-आदिवासी शिल्पकारों के साथ उनका निश्छल और प्रगाढ़ जुड़ाव रोमांचित करता है. उन्होंने निरक्षरों और अति-साक्षरों के साथ अनेक कार्यशालाएं की हैं-और रचनाशीलता के कपाट खुलवाए हैं.
बड़े आकार की निहायत सुंदर और सुरुचिपूर्ण यह पुस्तक अपने अनूदित लेकिन आत्मीय गद्य और रेखांकनों-चित्रों के साथ किसी भी गंभीर पाठक के मन में उथल-पुथल मचाएगी. संचयिता पढ़ने के बाद हम अपने ही घर, आंगन, दीवार, सड़क और तमाम वस्तुओं को शायद एक निराली नजर से देखना शुरू कर सकते हैं. स्कूल-कॉलेज के बच्चों की जन्मजात प्रतिभाओं को उभारने के लिए, उनकी कल्पना को मुक्त उड़ान दिलाने के लिए संचयिता में अपार सामग्री है.
लेकिन यह भी सच है कि सहज सर्जना, स्वतःस्फूर्त अन्वेषण और जीवन-उत्सव की ये धाराएं सूखती जा रही हैं. औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण का, बनी-बनाई वस्तुओं का, एक-जैसे-पन का आतंक इतना सर्वव्यापी है कि हकु शाह (जन्म 1934) की उपलब्धियां और स्वप्न पुनः अदेखे रह जा सकते हैं. उन देसी कलाकारों की उपलब्धियों की ही तरह, जो देश-विदेश में संग्रहालय या नुमाइशों में, भले झ्लक जाएं, जीवन-शैली से ओझ्ल हो गई हैं.

