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पुस्तक समीक्षाः माटी मानुष चून प्राकृतिक अंदेशों के भविष्य का उपन्यास है

जिस तेजी के साथ हम पर्यावरण की अनदेखी कर रहे हैं और समझने को तैयार नहीं है उसे देखते हुए हम अपना भविष्य लगभग तय कर चुके हैं. इसी भविष्य की कहानी है माटी, मानुष, चून. 2074 की कहानी कहता ये उपन्यास फरक्का बांध के टूटने से आई प्रलय के साथ शुरू होता है. और फिर गंगा पथ पर विकास दिखाते विनाश को खोल कर रख देता है.

उपन्यासः मोती मानूस चून
उपन्यासः मोती मानूस चून
अपडेटेड 16 अप्रैल , 2020

पंकज रामेंदु

इन दिनों पर्यावरण, जल, वायु, प्रदूषण ऐसा विषय है जिस पर खूब बात हो रही है. पूरी दुनिया बात कर रही है. लेकिन ये बात उस तोते की तरह है जिसने रट लिया है कि शिकारी आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछाएगा, दाना मत चुगना, जाल में मत फंसना. हम लगातार अपनी करनी, अपने सीमाओं के आगे जाकर संसाधनों के दोहन के लालच में फंसते जा रहे हैं.

जितनी मुखरता से सरकारें और संस्थाएं इस विषय पर बात कर रहे हैं उतनी ही गंभीरता के साथ इसे बर्बाद भी कर रहे हैं.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा है. बीते एक दशक में गंगा पर खूब बात हुई, खूब गंगा पुत्र भी उभरे. इसका नतीजा सिर्फ इतना ही निकला की गंगा के घाट सुंदर हो गए. बाकि गंगा का गंगत्व तो अब उसमें बचा ही नहीं.

गंगा में मौजूद आर्सेनिक जो कभी मानव जाति के लिए खतरा नहीं बना वो अब इतना बड़ा खतरा बन कर उभर रहा है कि उसे संभाल पाना मुश्किल है. बनारस से बलिया तक की पूरी पट्टी कैंसर का शिकार हो रही है. हम प्रकृति के साथ लगातार खिलवाड़ करते जा रहे हैं औऱ उसे लगातार चुनौती देते जा रहे हैं.

फिर भी हम समझने को राजी नहीं है कि प्राकृतिक आपदाएं वक्त दे कर नहीं आती हैं. उसकी कोई तारीख तय नहीं की जा सकती है. मौसम विभाग की चेतावनियों और मानसून के आंकलन की तरह ये वक्त दिनों मे तो नहीं लेकिन सालों में 20-25 साल इधर उधर हो सकता है लेकिन जिस तेजी के साथ हम पर्यावरण की अनदेखी कर रहे हैं और समझने को तैयार नहीं है उसे देखते हुए हम अपना भविष्य लगभग तय कर चुके हैं.

इसी भविष्य की कहानी है माटी, मानुष, चून. 2074 की कहानी कहता ये उपन्यास फरक्का बांध के टूटने से आई प्रलय के साथ शुरू होता है. और फिर गंगा पथ पर विकास दिखाते विनाश को खोल कर रख देता है. लेखक पत्रकार अभय मिश्र के इस उपन्यास को पढ़ते हुए हम एक अंजान डर के साये मे आगे बढ़ते हैं.

इसे एक विस्तृत रिपोर्ताज की शक्ल लिए हुए उपन्यास के रूप में पढ़ा जाना चाहिए. ये एक तरफ आपको भविष्य की भयावहता दिखाता है साथ ही भूत में उसकी वजह को भी साफ करता चलता है. इससे पाठक के मन में कोई संशय नहीं रह जाता है. मसलन गंगा के किनारे लगातार बढ़ते आर्सेनिक औऱ इससे होने वाले पलायन को लेखक ने बेहद ही सहज तरीके से समझाया है. ‘आर्सेनिक का संबंध प्रदूषण से नहीं है.

यह सदियों पहले हिमालय से नदियों के साथ बहकर आया औऱ तलहटी मे जमा हो गया. वक्त बीता औऱ नदियों ने अपना रास्ता थोडा बदला, जिससे पहले के रास्ते पर मिट्टी जमा हो गयी. समाज ने नदी की उस जगह को अपना मानकर वहां गांव और कस्बे बसा लिए. मेरा अपना भोजपुर भी कुछ इसी तरह बसा. गांव को पानी चाहिए तो कुएं खोदे गए लेकिन ज़रूरत बढती गयी. करीब सौ साल पहले सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया गया जिसमें कहा गया कि कुएं का पानी पीने लायक नहीं है, हैंडपंप एक सुरक्षित तरीका है पानी के दोहन का. कुओं के स्थान पर हैंडपंप का आना पहला कदम था मानव जाति का आर्सेनिक की तरफ’ .

एक जगह पर उपन्यास बताता है कि ‘गंगा के दोनों किनारे धान की अकूत पैदावार देते थे. इसी तरह गंहूं, दाल, और सब्जियां क्या नहीं था जो गंगा ना देती हो. लेकिन आर्सेनिक ने सबसे पहले धान को पकड़ा और उनकी थाली में पहुंच गया जो गंगा के किनारे नहीं रहते .

अनाज औऱ सब्जियों में आर्सेनिक आने के कारण वो चारा बनकर आसानी से डेयरी में घुस गया और गाय-भैसों के दूध से भी बीमारियां होने लगी.

जिस अमृत के लिए सभ्यताएं खिंची चली आती थी, वह हलाहल में तब्दील हो गया, नतीजा –विस्थापन. लाखों बेमौतो मारे गए और करोड़ों साफ पानी की तलाश में गंगा से दूर हो गए. गंगा से दूर साफ पानी की तलाश, कहने में भी अजीब सा लगता है नहीं ?’

अभय मिश्र ने जिस तरह से गंगा पथ का बारीकी से शोध करके वर्तमान में जो हम कर रहे है उसके भविष्य के परिणामों की कल्पना की है वो किसी भी पर्यावरण की चिंता करने वालें के लिए जानकारी का सागर बन सकती है.

माटी,मानुष, चून की कहानी 2074 से शुरू होती है जब फरक्का बैराज का गेट नंबर 109 टूट जाता है. ये वो गेट है जिसके बारे में किसी को जानकारी नहीं है क्योंकिं ये गेट ज़मीन के अंदर मौजूद है. इसके टूटने से एक भयंकर त्रासदी होती है और कई लोग जान गंवा बैठते हैं. इसके बाद नीतियों, सत्ता, राजनीति और पर्यावरण के तमाम दावों की सच्चाई परत दर परत खुलती जाती है. और पाठकों के सामने एक ऐसा भविष्य आता है जो डराने औऱ चेताने का काम एक साथ करता है.

आगे उपन्यास में भारत की तरफ से होने वाली राजनीति, फरक्का बैराज त्रासदी को प्राकृतिक आपदा बताने की कोशिश, बाढ में बह कर बांग्लादेश पहुचें लोगों को दोनों ही देशों द्वारा स्वीकार ना करना और जिस गांव पर सबसे ज्यादा विपत्ति आती है वहां के बाशिंदों को इंसान से ज्यादा बांग्लादेशी घुसपैठिये मान कर हाथ झाड़ना, उसके बाद बांग्लादेश का अंतरराष्ट्रीय अदालत में भारत को घसीटना और जांच के लिए भारत आई साक्षी की कहानी के कई रोचक पहलू सामने आते हैं.

सच्चाई के साथ शोध करके उसे जिस तरह कहानी में पिरोया गया है उसे पढ़कर पाठक ना सिर्फ रोमांच से सिहरता है बल्कि साथ ही वो कई सारी जानकारियों को भी एकत्र करता जाता है.

जानकार जानते होंगे कि जहर हमेशा से फूलों को रंग देता है यही वजह है कि वैली ऑफ फ्लॉवर के नाम से मशहूर पर्यटक स्थल में पाए जाने वाले ज्यादातर फूल ज़हरीले होते हैं. इसी जहर की बात को किताब में जिस विकास के साथ हो रहे विनाश के साथ दर्शाया गया है वो काफी बेहतरीन है. मसलन कहानी में एक जगह सरकारी दफ्तर का एक नुमाइंदा जांच के लिए आई अधिकारी साक्षी को एक गुलाब का गुलदस्ता देता है, नायिका गुलाब के फूलों की तारीफ करती है जिस पर सरकारी अधिकारी जवाब देता है, ‘बंगाल से लेकर बिहार-उत्तर प्रदेश की सीमा तक गंगा के किनारे इन गुलाबों की खेती होती है, सरकारी सहयोग के चलते गंगा पथ फूलों से लहलहा रहा है.’ खास बात ये है कि इन फूलो से नदारद खुशबू एक और सच को सामने लाती है कि किस तरह दूषित नदी के पानी ने फूलों से खुशबू छीन ली.

सुंदरबन में लगातार बढ़ रहे डेल्टा और लोगों के विस्थापन की विकरालता को बताती इस कहानी में कई छोटे चरित्र बड़ा संकेत कर देते हैं - ‘ ये कलाम चौधरी हैं, एक समय में गोसाब में पचास बीघे के किसान थे. डेल्टा में पचास बीघे का मतलब कितना होता है यहां बैठे लोग आसानी से समझते ही होंगे, लेकिन आज यह एक फेरी लेकर लोगों को सजनाखली से गोसाबा पहुंचाते हैं चौधरी साहब की सारी ज़मीन आज डेल्टा का हिस्सा है, चौधरी साहब जैसे लोग नदी नियन्त्रण का अनिवार्य परिणाम हैं. ’

उपन्यास हमें बताता है कि दरअसल नदी वास्तव में हमारे पास समुद्र की अमानत है हमने पानी को उस तक पहुंचने से रोका और अमानत में खय़ानत की . गंगा-ब्रह्मपुत्र का पानी रोकने के कारण समुद्र अपने अधिकार को पाने के लिए जमीन की तरफ बढा, जो गंगासागर द्वीप 30 किलोमीटर लंबा और 16 किलोमीटर चौड़ा होता था, वो अब आधा भी नहीं बचा है.

विकास का शिकार होती नदी, मानव महत्वाकांक्षाओं का शिकार होती प्रकृति, बांध निर्माँण से खत्म हो रही बायोडायर्वसिटी और अपने विनाश का अध्याय लिखने में अग्रसर स्वार्थी मानवजाति पर सवाल उठाती किताब दरअसल पर्यावरण को बचाए रखने के लिए और उसे समझने के लिए एक बेहद जरूरी और संदर्भ ग्रंथ के रूप में लिखा गया है. जिसमे बताया गया है कि नदी किसी एक की नहीं है बल्कि नदी हम सबकी है और जब तक हम ये मान कर उसे नियन्त्रित करना नहीं छोड़ेंगे तब तक हम विकास के नहीं विनाश के पथ पर ही चलते रहेंगे. बानगी देखिए - ‘आपको क्या लगता है बांग्लादेश पहले बना या गंगा पहले आयी’ इस अजीब से सवाल पर अधिकारी अचकचा गया. साक्षी ने दोबारा कहा- आपने जवाब नहीं दिया, पहले बांग्लादेश बना या पहले गंगा धरती पर आयी.

जी गंगा, मतलब गंगा पहले आयी. ‘तो आगे से याद रखियेगा, गंगा का पानी बांग्लादेश चला नहीं जाता है, गंगा बांग्लादेश बहती है, जैसे वो भारत में बहती है .’

जाने माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने कहा था कि प्रकृति का अपना कैलेंडर होता है औऱ कुछ सौ बरस में उसका पन्ना पलटता है . नदी को लेकर क्रांति एक भोली-भाली सोच है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. वो कहते थे हम अपनी जीवनचर्या से धीरे-धीरे ही नदी को खत्म करते हैं और जीवनचर्या से धीरे-धीरे ही उसे बचा सकते हैं . उनके प्रकृति के कैलेंडर की बात ही इस उपन्यास की कथा का आधार है. जिसे पढा जाना और इस पर चर्चा होना बेहद ज़रूरी है. बाकि पर्यावरण पर्यावरण तो हम चिल्ला ही रहे हैं.

किताबः माटी, मानूस, चून (उपन्यास)

लेखकः अभय मिश्र

प्रकाशकः वाणी प्रकाशन

कीमतः 199 रुपए

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