हम जिस समय में रह रहे हैं निश्चित ही वह बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता हैं. पिछले कुछ समय में एक नहीं कई दिल को झकझोरने वाली घटनाएं घटी हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. पहनावा, खानपान और व्यक्ति की अपनी सोच उसकी जान की दुश्मन बन रही है. हमारे मन मस्तिष्क के गलियारे हमें एक ऐसी अंधेरी सड़क की ओर ले जा रहे हैं जिसकी दिशाएं विलुप्त हैं और एक दिशाहीन सड़क व्यक्ति का मार्गदर्शक कैसे बन सकती है. हमारी आंखों के सामने एक सन्नाटा सा है एक खामोशी सी मगर इस खामोशी में भी एक शोर है, संताप है, चीख है, जो अन्याय, शोषण दमन और अन्य ज्यादतियों की अति हो जाने का संकेत है. हर युग किसी न किसी तरह की बर्बरता का गवाह होता है और उसके खिलाफ भड़की चिंगारी का भी। ऐसी ही एक खामोश सी चिंगारी जलाती है मशहूर वैज्ञानिक और फिल्मकार गौहर रज़ा की हाल ही में आई किताब ‘ख़ामोशी’.
रज़ा एक वैज्ञानिक होने के साथ ही एक संवेदनशील इंसान भी हैं और उनकी यह संवेदनशीलता निकल कर आई है उनके नज़्मों के माध्यम से. बतौर कवि यह रज़ा का दूसरा संग्रह है मगर वो एक मंझे चिंतक भी हैं और शब्दों के जादूगर भी. उनके पास जिंदगी का अनुभव है और बेशक काम का भी और उन्होंने अपने दोनों अनुभवों को मिलाकर नज़्मों की जो चाशनी तैयार की है वो बिल्कुल परफेक्ट है. रज़ा साहब ने अपनी इस किताब में पूरी दुनिया में फैले नफरत, हिंसा, बेगुनाहों की निर्मम हत्या और बर्बताओं का शाब्दिक चित्रण किया है. उनकी गजलों और कविताओं में अन्याय से उपजा दुख है, आक्रोश है और इस अन्याय से लड़ने का जज़्बा भी है मगर बड़ी संजीदगी, खामोशी और तबीयत से उन्होंने कलम का हथियार चलाया है.
ये किसका लहू
टपका टप-टप
ये कौन नहाया
फिर ख़ूं में
धर्म, समाज और पेशे के नाम पर हो रहे खून खराबे और भेदभाव से रज़ा व्यथित हैं और उनकी यह व्यथा अधिकतर कविताओं, नज़्मों में दिखाई पड़ती है.रज़ा जी इंसानियत के पैरोकार हैं और उसी की जय पूरी दुनिया में चाहते हैं. रज़ा अपने आक्रोश और व्यथा को बताने के लिए न तो अधिक हिंसक होते हैं और न बहुत कमजोर पड़ते हैं उन्होंने बीच का रास्ता निकाला है जो कहीं अधिक प्रभावी है.
संकलन में शामिल ग़ज़लों की भाषा बिल्कुल सहज, सरल और आसानी से पाठक के दिल तक पहुंचने वाली है. जटिलताओं के अभाव में नज़्में और भी प्रभावशाली ढंग से संप्रेषण करती हैं.
मोहब्बत, अमन, दोस्ती, भाईचारा
है हमने निभाया, निभा कर तो देखो
तुम्हारा है कूड़ा हमारे सरों पर
कभी अपने सर पर उठा कर तो देखो
संकलन में छंदमुक्त कविताएं भी शामिल की गई हैं. छोटी-बड़ी लाइनें पन्ने पर बिफरी सी, कहीं -कहीं पर सिर्फ एक शब्द है मगर ये एक शब्द भी पूरी लाइन की व्याख्या करते हैं और छोटी-बड़ी लाइनें ओस की बूंदों की तरह लगती हैं जो एक लय में कपड़े सुखाने वाली रस्सी में लटकी हुई हैं.
किताब का शीर्षक भले ही ख़ामोशी है मगर कविताएं सारी बोलती हैं और बहुत कुछ बोलती हैं.
‘ख़ामोशी’ कविता संग्रह में गौहर रज़ा की 71 नज़्में है जो 174 पृष्ठों पर फैली हुई हैं.
किताब - ख़ामोशी - 71 नज़्में और ग़ज़लें
कवि-- गौहर रज़ा
प्रकाशक -राजपाल एण्ड सन्ज
पृष्ठ--174
कीमत-225/- मात्र
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