सांप्रदायिक हिंसा और लक्षित हिंसा (न्याय और हर्जाने तक पहुंच) के बारे में सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के विधेयक 2011 का प्रारूप तैयार होने के साथ ही विवाद में फंस गया है. इसमें सांप्रदायिकता के शिकार लोगों की व्याख्या ''किसी भी राज्य में धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यक समूह.... या अनुसूचित जाति और जनजाति'' के तौर पर की गई है.
इससे नाराज राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने इस पर हमले की अगुआई की. उन्होंने एक कॉलम में लिखा, ''विधेयक का मसौदा इस धारणा को जन्म देता है कि सांप्रदायिक गड़बड़ी सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों की ओर से की जाती है, अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य ऐसा कभी नहीं करते.'' उधर कांग्रेस परेशानी में है. अल्पसंख्यक वोट बैंक को लुभाने की यह कोशिश बहुसंख्यक समुदाय को अलग-थलग कर सकती है.
एनएसी के सदस्य हर्ष मंदर भाजपा की इस आलोचना का जवाब देते हैं, ''बात को पूरी तरह से समझा नहीं गया है. अल्पसंख्यक शब्द किसी भी राज्य में उनकी तादाद के बारे में हैः यह देश भर में बदलने वाली और अस्थिर श्रेणी है.
महाराष्ट्र और असम में बिहारी क्षेत्रीय या भाषायी अल्पसंख्यक हैं; जबकि पंजाब, पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर सहित सात राज्यों में हिंदू धार्मिक अल्पसंख्यक हैं. अनुसूचित जाति में लगभग सभी हिंदू हैं और अनुसूचित जनजाति में ज्यादातर हिंदू हैं.'' वे कहते हैं, ''बड़े समुदाय को निशाना बनाकर होने वाली हिंसा से बहुसंख्यकों की हिफाजत करने और उसे इंसाफ दिलाने के लिए देश के सामान्य कानून काफी हैं क्योंकि राज्यों के संस्थान बहुसंख्यकों के पक्ष में हैं.
घरेलू हिंसा विधेयक का यह मतलब नहीं है कि पति की पिटाई नहीं हो सकती, लेकिन विधेयक पति की रक्षा नहीं करता क्योंकि सामान्य कानून उसकी रक्षा करता है.'' उनकी बात का कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी समर्थन करते हैं, ''जेटली विधेयक को सांप्रदायिक रंगत दे रहे हैं और जान-बूझ्कर गलत जानकारी फैला रहे हैं. मैं पंजाब का हिंदू हूं जिसकी वजह से इस विधेयक के अंदर मेरी गिनती अल्पसंख्यकों और सुरक्षित लोगों में होती है.'' क्या इसका मतलब यह है कि हिंदू पंजाब में कभी सांप्रदायिक दंगा नहीं भड़का सकते और इसके लिए सिखों को ही दोषी ठहराया जाएगा?
तिवारी कहते हैं, ''भगवान न करे, अगर किसी राज्य में किसी अल्पसंख्यक समुदाय के भड़काने पर हिंसा होती है तो उनसे सामान्य कानून के मुताबिक निपटा जाएगा. अगर किसी राज्य में बहुसंख्यकों के उकसावे पर हिंसा होती है तब आइपीसी के अलावा इस विधेयक को काम में लाया जाएगा.''
कांग्रेस के पास एनएसी के दिखाए रास्ते पर चलने के अलावा कोई चारा नहीं है जबकि इस विधेयक का मसौदा एक्टिविस्ट लोगों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने तैयार किया है. यह रवैया लोकपाल विधेयक पर अण्णा हजारे और उनके साथियों के प्रति रूखे और ठंडे बर्ताव के ठीक उलट है.
अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद का कहना है, ''अल्पसंख्यकों को सुरक्षा (और भाषायी अल्पसंख्यकों को शामिल करने का मतलब है असुरक्षित बहुसंख्यक भी) मुहैया कराने पर जोर देने की कोशिश संविधान के तहत सकारात्मक कार्रवाई करने के ही मुताबिक है. यह समानता से हटना नहीं है बल्कि समानता को प्रभावी तरीके से लागू करना है.''
एनएसी ने इस विधेयक के पहले तैयार किए मसौदे को 25 मई को अंतिम रुप दे दिया था. इसे प्रतिक्रिया जानने के लिए वेबसाइट पर डाल दिया गया था. तब से इसमें 49 संशोधन किये जा चुके हैं. लेकिन पीड़ित समूह की परिभाषा नहीं बदली गई. विरोध का अंदाज लगाते हुए एनएसी ने एक स्पष्टीकरण तैयार किया है. ''यह विधेयक सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा की शुरुआत करने वाले समूह के बतौर किसी गुट को न तो वर्गीकृत करता है और ही इसकी कल्पना करता है.''
भाजपा की प्रवक्ता निर्मला सीतारमन विधेयक के मसौदे की प्रकृति पर सवाल उठती हैं जिसकी वजह से विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था, यह कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति की विचारधारा को दर्शाती है. ''उत्तर प्रदेश और गुजरात में अगले साल चुनाव होने के मद्देनजर यह एक ऐसा आरोप है जिससे कांग्रेस पीछा नहीं छुड़ा सकती.''
एनएसी ने अपने दूसरे मसौदे में उस उपवाक्य को हटा दिया है जिसमें सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को ''आंतरिक गड़बड़ी'' का नाम दिया गया था क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 355 के दायरे में आता है, जिससे केंद्र को दखल देने का अधिकार मिल जाता है.
एनएसी की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, ''इस उपवाक्य को हटा दिया गया क्योंकि इससे गलती से यह डर पैदा होता है कि यह संघीय ढांचे में दखल दे सकता है.'' तिवारी यह कहते हुए इसकी वकालत करते हैं, ''अगर आप गुजरात का हाल देखें जहां राज्य की मिलीभगत से तीन महीने तक बलात्कार, भीड़ के हमले और मार डालने की घटनाएं हुईं वहां यह केंद्र को अनुच्छेद 355 के तहत दखल देने का अधिकार देता है. कम से कम तब ऐसा तो नहीं होगा कि मुख्यमंत्री मारकाट का मूक दर्शक बनकर बैठा रहे और प्रधानमंत्री केंद्र में सो रहा हो.''
एनएसी के स्पष्टीकरण वाले नोट में कहा गया है, ''विधेयक का मकसद बस यह देखना है कि जब एक राज्य में किसी ऐसे गुट पर हमला हो रहा है जो बहुत प्रभावी नहीं है, तब राज्य के अधिकारियों को किसी भी तरह का पक्षपात नहीं करने देना चाहिए.'' मंदर का कहना है, ''यह विधेयक किसी नए अपराध की बात नहीं करता सिवा जनता के प्रति कर्तव्य में लापरवाही बरतने के.
यही इस विधेयक का सार है. चाहे वह 1984 का दंगा हो या बाद में 2002 का गुजरात दंगा. यह इसलिए हुए क्योंकि सरकार अपने कर्तव्य का पालन करने में नाकाम रही. राज्यों के वर्तमान कानून अपनी जनता की रक्षा करने के लिए काफी हैं बशर्ते वे कार्रवाई करें. राज्य की भागीदारी के बिना कोई भी दंगा कुछ घंटे से ज्यादा नहीं चल सकता.''
प्रस्तावित विधेयक में राज्य के अधिकारियों को आपराधिक तौर पर जवाबदेह बनाने का प्रस्ताव है, चाहे वे कार्रवाई नहीं करके या पक्षपातपूर्ण ढंग से कार्रवाई करके, हिंसा में भागीदार बनते हैं. मंदर कहते हैं कि यह कानून का अहम बिंदु है न कि अल्पसंख्यकों वाली धारा. उनके लिए अफसोस की बात यह है कि जेटली की इस दलील को मानने वालों की तादाद बढ़ रही है कि ''यह विधेयक अल्पसंख्यक समुदाय के किसी भी सदस्य को दरअसल निर्दोष करार देता है .''
विशेषज्ञ सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए एक अलग विधेयक की जरूरत पर सवाल उठाते हैं. भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा का कहना है कि दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा कानून हैं. उन्होंने मीडिया को बताया, ''वर्तमान कानूनों में अगर खामियां हैं तो उनका पता लगाने और उनमें संशोधन करने की जरूरत है.''
सुप्रीम कोर्ट के वकील हरीश साल्वे का कहना है, ''वर्तमान कानून पर्याप्त हैं. जरूरत अच्छी जांच और मुकदमों का जल्द निपटारा करने की है. हिंसा से निबटने को आइपीसी काफी है. हिंसा का मकसद, सांप्रदायिक उकसावा, दोष सिद्धि के लिए नहीं बल्कि सजा देने के लिए प्रासंगिक है. आपराधिक कानून के अंतर्गत समुदायों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस कानून से केवल वोटों का ध्रुवीकरण होगा.
समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता इससे सहमत हैं, ''मेरा मानना है कि ये सब लोगों का ध्यान बांटने के तरीके हैं. हिंसा भड़काने के खिलाफ कानून पहले से ही हैं. सवाल नए विधेयक का नहीं बल्कि कानून को सख्ती से अमल में लाने का है.'' वे 1984 के सिख विरोधी दंगों की मिसाल देते हैं, ''मुझे याद है सेना के एक जनरल ने गृह मंत्रालय से कर्फ्यू लगाने की बात कही थी. ऐसा नहीं हुआ. इसी तरह 2002 में गुजरात में प्रशासनिक मिलीभगत थी.''
एनएसी की भूमिका पर अप्रत्यक्ष हमला करते हुए उन्होंने कहा, ''कुछ लोग सूरज में धब्बा चाहते हैं और नीति निर्धारण का हिस्सा बनना चाहते हैं. मैं इसे नीति की आत्ममुग्धता कहता हूं.'' स्पष्ट है कि माध्यम और संदेश दोनों ही विवाद में पड़ गए हैं. भाजपा अल्पसंख्यक वाली धारा को बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर आमादा है, यह कांग्रेस पर उलटा पड़ सकता है.