'नियुक्ति प्रक्रिया पूरी होने के बाद खाली रहने वाले पदों की सूचना सुप्रीम कोर्ट को देंगे. कोर्ट की अनुमति होगी तो उन्हें भरेंगे, वर्ना पद सरेंडर कर दिए जाएंगे.'' पी.के. शाही, मानव संसाधन विकास मंत्री एक अरसे से आर्थिक तंगी में जीवन बसर कर रहे प्रमोद कुमार को फरवरी में जीवन पटरी पर लौटता लगा क्योंकि उन्हें लगभग ढाई दशक के इंतजार के बाद अध्यापक की नौकरी मिल रही थी. पर नवादा के इस प्रशिक्षित अध्यापक की यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रहने वाली. जीवन के 60वें पड़ाव पर चल रहे प्रमोद को इसी साल जून में रिटायर होना है.
कुछ ऐसा ही किस्सा इसी जिले के कृष्ण कुमार का भी है. उन्हें भी फरवरी में नौकरी मिली लेकिन मार्च में रिटायर होना है. शिक्षक की नौकरी के लिए उन्होंने 1971-73 सत्र में नवादा टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से डिग्री ली थी. 2006 में जब संविदा पर शिक्षकों को रखा जाने लगा तब उन्हें मौका नहीं मिला.
लिहाजा, डेढ़ बीघे की खेती से तंगहाली में जिदंगी जीना उनकी मजबूरी बन गई. अरसे के इंतजार के बाद प्रशिक्षित अध्यापकों के पक्ष में कुछ समय पहले आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उनकी उम्मीदें जगीं. फरवरी, 2012 में कृष्णकुमार की बहाली कौआकोल ब्लॉक के चोंगवा पनसगवा मिडल स्कूल में हो भी गई. पर हकीकत सामने आने पर वे बोल पड़े, ''निराश होना उतना खतरनाक नहीं, जितना उम्मीदों का मरना.''
प्रमोद और कृष्ण अकेले ऐसे शिक्षक नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बिहार में 34,540 पदों पर बहाल किए जा रहे ज्यादातर शिक्षकों की व्यथा कुछ ऐसी ही है. रजौली के दोपटा गांव के कामता प्रसाद सिंह को ही लें. उनके पिता भगीरथ सिंह उन्हें अपनी तरह शिक्षक बनाना चाहते थे. कामता ने 1972-74 में औरंगाबाद से डिग्री हासिल भी की. 1985 में शिक्षकों की बहाली के लिए प्रशिक्षित उम्मीदवारों के पैनल में उनका नाम भी था.
सरकारी नीतियों का नतीजा कि 16 साल पहले भगीरथ बेटे को शिक्षक बनाने का सपना लिए चल बसे. अब जब कामता 2 मार्च, 2012 को 60 साल के होने जा रहे हैं तो फरवरी में बभनौर के मिडल स्कूल में उनकी बहाली हुई है. वे कहते हैं, ''मेरे कई साथी बड़े पदों से रिटायर होने वाले हैं, तब दो माह के लिए शिक्षक बनने का मुझे मौका मिला है. कैसी विडंबना है!''
प्रमोद, कृष्णकुमार और कामता जैसे लोग फिर भी किस्मत वाले निकले, जिन्हें चंद माह के लिए शिक्षक बनने का मौका तो मिला. राज्य में सैकड़ों प्रशिक्षित उम्मीदवारों का शिक्षक बनने का सपना उनकी मौत के साथ ही दफन हो गया. 30-31 जनवरी को काउंसलिंग थी, तभी 30 जनवरी को रोह के कशमारा निवासी शशिनाथ शर्मा का निधन हो गया. यही नहीं, 60 साल की उम्र पार चुके सैकड़ों प्रशिक्षित उम्मीदवार शिक्षक नहीं बन पाए.
दरअसल, प्रशिक्षित अध्यापकों की परेशानियों की यह कहानी ढाई दशक पुरानी है. 1988 तक शिक्षकों की बहाली प्रशिक्षित उम्मीदवारों की वरीयता के आधार पर होती थी. प्रशिक्षित अध्यापकों की परेशानी 1991 से उस समय शुरू हुई, जब तत्कालीन सरकार ने पैनल के बजाय बीपीएससी के जरिए प्रतियोगी परीक्षा आयोजित कर 25,000 शिक्षकों की बहाली की. इसमें प्रशिक्षित अध्यापकों को कोई छूट नहीं मिली. उसी समय से कानूनी लड़ाई शुरू हुई.
इस कड़ी में जहानाबाद के राम विनय कुमार ने पटना हाइकोर्ट में अर्जी दाखिल की, लेकिन राहत न मिलने पर सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका डाली. 5 सितंबर, 1997 को आदेश हुआ, जिसमें प्रशिक्षित उम्मीदवारों की परीक्षा ली गई. उसके आधार पर 1,244 शिक्षकों की बहाली हुई. 2003 में, जब 34,540 शिक्षकों की बहाली प्रक्रिया शुरू हुई तो गोपालगंज के नंदकिशोर ओझ ने पटना हाइकोर्ट में अर्जी ठोक दी.
पहली जुलाई, 2004 को मुख्य न्यायाधीश आर.एस. धवन और न्यायाधीश शशांक कुमार सिंह की खंडपीठ ने राज्य सरकार को प्रशिक्षित उम्मीदवारों की गिनती कर उन्हें नियुक्त करने और उम्र में छूट देने का आदेश दिया. तत्कालीन सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची.
2005 में जब राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ तो 23 जनवरी, 2006 को मानव संसाधन विकास विभाग के तत्कालीन प्रधान सचिव मदन मोहन झ (अब दिवंगत) ने अदालत में चल रहे मुकदमे को यह कहते हुए वापस ले लिया कि प्रशिक्षित अध्यापकों को बगैर किसी परीक्षा के बहाल कर लिया जाएगा. लेकिन सरकार जब शिक्षकों की बहाली संविदा पर करने लगी तो सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दाखिल की गई.
19 मार्च, 2007 को न्यायमूर्ति ए.आर. लक्ष्मणन और न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर की पीठ ने राज्य सरकार को उस हलफनामे का पालन करने का आदेश दिया, जिसके आधार पर झ ने मामले को वापस लिया था. आदेश का पालन नहीं होने पर सरकार के खिलाफ अवमानना का मामला लाया गया. लिहाजा, 9 दिसंबर, 2009 को न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर और न्यायमूर्ति एच.एल. दत्ता ने वरीयता सूची के आधार पर नियुक्ति का आदेश दिया. 12 मई, 2010 को अदालत ने 34,540 रिक्तियों के लिए 23 जनवरी, 2006 से पहले तक के प्रशिक्षित उम्मीदवारों को बहाल करने का आदेश दिया.
दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. नई पेंशन नियमावली-2004 के तहत दस साल से कम सेवा अवधि वालों को पेंशन और दूसरे लाभ नहीं मिलेंगे. अब बहाली शुरू होने के साथ ही पैनल, पेंशन और सेवा अवधि को लेकर कई स्तर पर सवाल उठने लगे हैं.
याचिकाकर्ता और बिहार राज्य बेरोजगार शिक्षक संघ के अध्यक्ष नंदकिशोर ओझ कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जो सूची बनाई जानी थी, उसमें फर्जी डिग्रीधारियों ने भी अर्जी दे रखी है, जिसके चलते वाजिब उम्मीदवार वंचित रह गए हैं.'' इधर, वरीयता सूची को लेकर अर्चना श्रीवास्तव और वीरेंद्र प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली थी, लेकिन 6 फरवरी को कबीर और एस.एस. निज्जर की खंडपीठ ने उनकी अर्जी पर सुनवाई से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह सूची अंतिम है.
उधर राज्य भर के जिला शिक्षा अधिकारियों की बैठक में मानव संसाधन विकास विभाग के मंत्री प्रशांत कुमार शाही ने फर्जी डिग्रीधारियों के लिए दिशा-निर्देश दिए हैं. उन्होंने कहा, ''नियुक्ति प्रक्रिया पूरी होने पर जो पद खाली रह जाएंगे, उसकी सूचना सुप्रीम कोर्ट को दी जाएगी. कोर्ट की अनुमति पर ही खाली पद भरेंगे वरना वे सरेंडर कर दिए जाएंगे.''
प्रशिक्षित अध्यापकों की नौकरी पाने की यह लंबी जद्दोजहद भारतीय न्याय प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार की मिसाल बन गई है. चंद दिनों के लिए नौकरी पाने वालों की यह निजी त्रासदी है.

