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भीकाजी कामाः विदेश में पहली बार भारतीय झंडा फहराने वाली महिला

साल 1907 था जब किसी विदेशी सरजमीं पर पहली बार भारत का झंडा फहराया गया. झंडा फहराने वाली एक महिला थीं जिनका नाम था भीकाजी कामा.

मैडम भीकाजी कामा
मैडम भीकाजी कामा
अपडेटेड 21 अगस्त , 2019

बात आजादी से चार दशक पहले की है. 1907 में पहली दफा किसी विदेशी सरजमीं पर पहली बार भारत का झंडा फहराया गया. झंडा फहराने वाली एक महिला थीं जिनका नाम था भीकाजी कामा. "क्रान्ति की जननी" की उपाधि से नवाजी गईं मैडम कामा की 13 अगस्त को पुण्यतिथि थी. 

साल 1907 में जर्मनी के शहर स्टुटगार्ट में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा था. इस कांग्रेस में हिस्सा ले रहे सभी लोगों के देशों का झंडा लगा हुआ था. लेकिन भारत के लिए ब्रिटिश झंडा था. मैडम कामा को यह स्वीकार नहीं था. उन्होने एक नया झंडा बनाया और सभा में फहराया. झंडा फहराते हुए भीकाजी कामा ने कहा कि ये भारत का झंडा है जो भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. 

हालांकि ये झंडा वैसा नहीं था जैसा कि हमारा आज का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा है. ये स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बनाए गए तमाम अनौपचारिक झंडों में से एक था. इसमें हरे, पीले और लाल रंग की तीन पट्टियां थीं. सबसे उपर हरे रंग की पट्टी में आठ कमल के फूल बने थे जो भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे. बीच में पीले रंग की पट्टी थी जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था. सबसे नीचे लाल रंग की पट्टी थी जिस पर सूरज और चांद बने हुए थे. अब ये झंडा पुणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में संरक्षित करके रखा गया है. 

भीकाजी कामा की जीवन यात्रा

भीकाजी का जन्म 24 सितम्बर, 1861 को मुंबई के एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था. 1885 में उनकी शादी रूस्तमजी कामा से हुई. रूस्तमजी कामा एक उच्च शिक्षित व्यक्ति थे और पेशे से वकील थे. रूस्तमजी कामा भारत में ब्रिटिश शासन के हिमायती थे. उनका मानना था कि भारत की तरक्की तभी हो सकती है जब वो ब्रितानी हुकूमत के अधीन रहे. इसके विपरीत भीकाजी कामा एक राष्ट्रवादी विचारों वाली महिला थीं. वो हर हाल में भारत को आजाद देखना चाहती थीं. इस मुद्दे पर दोनों के बीच इतना मतभेद था कि दोनों को अलग होना पड़ा. यही नहीं, अलगाव के बाद भी भीकाजी के राष्ट्रवादी विचारों के कारण ये विवाद इतना बढ़ा कि जब भीकाजी की मृत्यु हुई तब रूस्तमजी कामा उनके अंतिम संस्कार तक में नहीं गए.

साल 1896 में मुंबई (तब बाम्बे) में भयंकर प्लेग फैला. लोगों को संकट में देख भीकाजी खुद नर्स के रूप में सेवा देने लगीं. बाद में दुर्भाग्यवश वो खुद इसकी चपेट में आ गईं. बेहतर इलाज के लिए उन्हें यूरोप जाना पड़ा. साल 1906 में भीकाजी लंदन पहुंचीं. यहां उनकी मुलाकात स्वतंत्रता संघर्ष में क्रान्तिकारी आंदोलन की कमान संभाल रहे श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल और विनायक दामोदर सावरकर से हुई. लंदन में ही भीकाजी भारतीय राजनीति के पितामह कहे जाने वाले दादा भाई नौरोजी के संपर्क में आईं. दादा भाई नौरोजी ब्रिटेन की संसद का चुनाव लड़ने वाले पहले एशियाई थे. लंदन में रहते हुए भीकाजी ने दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव के रूप में भी काम किया. 

भीकाजी कामा 33 सालों तक भारत से बाहर रहीं. इस दौरान वो यूरोप के अलग अलग देशों में घूम-घूमकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाती रहीं. उन्होंने दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों से मुलाकात की, कई सम्मेलनों में भाषण दिए और भारत की आज़ादी के समर्थन में क्रांतिकारी लेख लिखे. 

अपने यूरोप प्रवास के दौरान भीकाजी ने 'पेरिस इंडियन सोसाइटी' बनाई. इस दौरान उन्होंने क्रांतिकारी मैगजीन 'वंदे मातरम' भी निकाली. उनके राष्ट्रवादी विचारों और क्रांतिकारी गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार इतना डरती थी कि अंग्रेजों ने फ्रांस सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांग की. मगर फ्रांस ने ब्रिटेन की ये मांग ठुकरा दी. बाद में 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के समय जब ब्रिटेन और फ्रांस एक हो गए तब भीकाजी को फ्रांस छोड़ना पड़ा.

मैडम भीकाजी कामा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ी उन चुनिंदा शख्सियतों में से एक थीं जिनके जीवन की कहानी बेहद ही दिलचस्प है.

अपने जीवन के आखिरी दिनों में 74 साल की उम्र में मैडम भीकाजी कामा 1935 में वापस भारत लौटीं. मैडम कामा ने मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में 13 अगस्त 1936 को अपनी अंतिम सांस ली. चिर निद्रा में सोने से पहले उनके मुंह से निकलने वाले आखिरी शब्द 'वंदे मातरम' थे.

(शिवेंद्र राय आइटीएमआइ के छात्र हैं और इंडिया टुडे में प्रशिक्षु हैं)

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