लाखों इच्छुक छात्र अपने अभिभावकों के लाखों रुपए कोचिंग लेने में खर्च कर डालते हैं ताकि आइआइटी की प्रवेश परीक्षा से 'पार' पा सकें, हालांकि मोटे तौर पर सौ में से महज एक ही सफल हो पाता है. इसकी तुलना में अमेरिका के हार्वर्ड जैसे शीर्ष विश्वविद्यालय को हरेक उपलब्ध सीट पर बमुश्किल दस आवेदन मिलते हैं. जाहिर तौर पर, आइआइटी संस्थान इच्छुक युवाओं और उनके अभिभावकों की आंखों के तारे बने हुए हैं.
दुर्भाग्यवश, इस सुंदर छवि में दरारें आ गई हैं. कुछ समय पहले आइआटी-बंबई के पूर्व छात्र जयराम रमेश ने आइआइटी के स्टाफ को दोयम दर्जे का करार दिया था, लेकिन माना था कि छात्र बहुत अच्छे हैं. छात्रों के बारे में आइआइटी के एक अन्य पूर्व छात्र चेतन भगत के, जो उपन्यासकार के तौर पर लोकप्रिय हैं, भी ऐसे ही विचार हैं. लेकिन नारायण मूर्ति (एक अन्य पूर्व छात्र) का मानना है कि आइआइटी के छात्र गुणवत्ता में कमजोर हैं ; वे कहते हैं कि उनमें से सिर्फ 20 प्रतिशत छात्र ही ठीक हैं. इससे भी बदतर यह कि प्रतिष्ठित टाइम्स एजुकेशन सप्लीमेंट ने एक भी आइआइटी को विश्व के शीर्ष 200 संस्थानों में शुमार करने लायक नहीं समझा.
ऐसे में लोगों का यह पता लगाना स्वाभाविक है कि क्या आइआइटी संस्थानों का स्तर वास्तव में गिर गया है. मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को कोई संदेह नहीं है कि सारे आइआइटी संस्थान शीर्ष स्तर के हैं. उनकी नजर में भारत की क्षमताएं इतनी अधिक हैं कि देश में कई और आइआइटी संस्थान हो सकते हैं. वे पहले ही इन संस्थानों की संख्या 6 से बढ़ाकर 15 कर चुके हैं. यही विचार भारत के ज्ञान आयोग के .जार सैम पित्रोदा का है.
सच क्या है? आइआइटी के आधे छात्र अब अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी आरक्षण के तहत दाखिला लेते हैं. छात्रों और स्टाफ का अनुपात 6:1 से घटकर 12:1 हो गया है. कक्षाओं का आकार, जो कभी 50 से ज्यादा नहीं होता था, अब कई बार 200 से भी ज्यादा हो जाता है. यह नियम है कि फैकल्टी का चयन आरक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए, लेकिन इसे कभी भी सख्ती से लागू नहीं किया गया. यह भी हकीकत है कि संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) का तोड़ ढूंढ़ लिया गया है.
अगर सबूत चहिए तो आपको राजस्थान के कोटा जाना चाहिए. यह भी सच है कि काफी छात्र छोटे शहरों से आ रहे हैं, जिनको अंग्रेजी की मामूली जानकारी होती है. उनमें से सारे छात्र इस कमी से उबर नहीं पाते. क्या इन कारकों ने आइआइटी संस्थानों की गुणवत्ता को प्रभावित किया है?
आइआइटी संस्थानों के कई निदेशक जिनसे मैंने बात की है, उन्हें उम्मीद है. उनका दावा है कि वे अच्छी गुणवत्ता के स्टाफ को आकर्षित करने में सक्षम हैं. उन्हें यह भी उम्मीद है कि प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव से जेईई की कई खामियां दूर हो सकती हैं. लेकिन उच्च शिक्षा के संस्थानों को तीन मूलभूत स्वतंत्रताएं चाहिएः यह तय करने की आजादी कि वे किसे पढ़ाएंगे, कौन पढ़ाएगा, और क्या पढ़ाएगा.
सरकार इसमें दखल नहीं देती कि आइआइटी में क्या पढ़ाया जा रहा है, लेकिन उसने फैकल्टी के चयन के बारे में नियम जारी कर दिए हैं. इससे भी बढ़कर, वह आइआइटी को यह निर्णय लेने की कोई स्वतंत्रता नहीं देती कि वे किसे पढ़ाएंगे. यह सरकार की नीति है कि वह स्कूली शिक्षा की 12 वर्ष तक घोर अनदेखी की पूर्ति आइआइटी से करे.
हार्वर्ड जैसे सफल विश्वविद्यालयों को वे तीनों आजादी हासिल हैं, जिनकी जरूरत गुणवत्ता वाले संस्थानों को होती है. वे सर्वश्रेष्ठ छात्रों को आकर्षित करते हैं, और कम योग्य लेकिन धनी छात्रों को भी दाखिला देते हैं, जो उनकी संस्थागत पूंजी में योगदान करते हैं. हार्वर्ड की अनुमानित संस्थागत पूंजी 85,000 करोड़ रु. है, किसी भी आइआइटी के पास इसका हजारवां हिस्सा भी नहीं है. हार्वर्ड इस
रकम का इस्तेमाल उच्च गुणवत्ता के शोध में करता है और गरीब लेकिन योग्य छात्रों को लगभग मुफ्त में शिक्षा देता है. नारायण मूर्ति के बच्चों ने हार्वर्ड में शिक्षा ली, लेकिन वे अगर 100 गरीब छात्रों की शिक्षा का खर्च उठाने को राजी होते, तो भी आइआइटी में प्रवेश नहीं पा सकते थे.
नतीजे साफ हैं: हार्वर्ड शिखर पर है और आइआइटी संस्थान दौड़ से ही बाहर हो चुके हैं. निदेशक चाहे जो कहें लेकिन अगर सरकार उनकी गतिविधियों पर उसी मूर्खतापूर्ण ढंग से नजर बनाए रहती है, जैसी वह करती आ रही है, तब तक यह संदिग्ध ही रहेगा कि वे बेहतर कामकाज करने योग्य हो सकते हैं. कोई भी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षाओं को उस ढंग से नहीं लेता है, जिस ढंग से आइआइटी संस्थान लेते हैं. उदाहरण के लिए, एसएटी स्कोर न तो छात्र के चयन के लिए निर्णायक है और न ही वह चयन में कोई जरूरी पहलू ही है.
शीर्ष संस्थानों को सबसे ज्यादा स्वायत्तता की जरूरत होती है. अगर सरकार आइआइटी को अकेला छोड़कर स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर काम करे, तो आइआइटी संस्थान भी उत्कृष्ट हो सकते हैं.
प्रोफेसर इंदीरेसन आइआइटी मद्रास के पूर्व निदेशक हैं