अशोक सिंह का परिवार घर के बाहर तख्त पर फोटो खिंचवाने के लिए बैठा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के राजपुर इकौना गांव का यह परिवार ग्राम स्वराज का ब्रांड एंबेसडर बनने के लिए फोटो नहीं खिंचवा रहा. वह तो चकत्ते और गांठों की शक्ल में शरीर के बाहर तक आ चुके आर्सेनिक (संखिया) के जहर को दुनिया की नजरों में लाने के लिए कैमरे के सामने है. जीवनदायिनी गंगा के किनारे बसा यह गांव पहले जहां दोआब की जरखेज जमीन से मालामाल था, वहीं अब भूजल में बढ़ गया आर्सेनिक हलक से उतरती हर बूंद के साथ गांव को मौत के करीब ले जा रहा है. पखवाड़े भर पहले ही अशोक केचाचा राज बहादुर सिंह की आर्सेनिक के जहर से मौत हो गई. परिवार में दो साल के भीतर आर्सेनिक से यह दूसरी मौत है. इलाके में दस साल में कम-से-कम 70 लोग इसकी भेंट चढ़ चुके हैं.
लगभग 2,200 की आबादी वाले इस हरे-भरे गांव के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 500 माइक्रोग्राम प्रति लिटर या पार्ट पर बिलियन (पीपीबी) तक पहुंच चुकी है. यह मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 10 पीपीबी के मानक से 50 गुना ज्यादा है. हालांकि सरकार 50 पीपीबी के ऊपर की ही मात्रा को खतरनाक मानती है. बलिया में राजपुर इकौना जैसे 310 गांवों की 3.5 लाख की आबादी आर्सेनिक वाला पानी पीने को मजबूर है. बलिया सहित पूर्र्वी उत्तर प्रदेश के सात जिलों-खीरी (165 गांव), बहराइच (438 गांव), बरेली (14 गांव), गोरखपुर (45 गांव), गाजीपुर (24 गांव) और चंदौली (19 गांव) के 1,018 गांव आधिकारिक तौर पर आर्सेनिक वाले पानी से पीड़ित हैं.
इन जिलों की तादाद जल्द ही और बढ़ेगी. जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एन्वायर्नमेंट स्टडीज (एसईएस) की जांच में पाया गया कि वाराणसी, इलाहाबाद और कानपुर का भू-जल भी आर्सेनिक की चपेट में आ गया है. इलाहाबाद के लैलापुर कलां में आर्सेनिक का स्तर 707 पीपीबी और कानपुर से सटे उन्नाव के शुक्लागंज में आर्सेनिक की मौजूदगी 316 पीपीबी तक के बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. यानी पूरा राज्य आर्सेनिक के कारण आर्सिनोकोसिस, कैरिटोसिस, फेफड़े, त्वचा, गुर्दे और मूत्राशय के कैंसर सरीखी गंभीर बीमारियों की ओर बढ़ रहा है.
गंगा के मैदानों में आर्सेनिक के असर के बारे में एसईएस के डायरेक्टर रिसर्च, प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती कहते हैं, ''हमने गंगा के अंतिम छोर बंगाल की खाड़ी के पास के इलाकों से आर्सेनिक की मौजूदगी की खोज शुरू की थी और जांच गंगा के मुहाने की तरफ जारी है. असम, पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, झारखंड और बिहार में गंगा के तटीय इलाकों के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश में आर्सेनिक पाया गया.
खेती के लिए भू-जल का बेतहाशा दोहन करने से गंगा के मैदानों में जमीन के भीतर पानी में आर्सेनिक की मात्रा कई गुना बढ़ गई है, इसलिए यहां के बोरवेल और हैंड पंप जहरीला पानी उगल रहे हैं.'' दुनिया भर में आर्सेनिक पर शोध करने वाले शीर्ष वैज्ञानिकों में शुमार चक्रवर्ती ने 2003 में पहली बार बलिया में आर्सेनिक की घोषणा की थी. लेकिन उस समय सरकार ने आर्सेनिक की मौजूदगी को सिरे से खारिज कर दिया था.
बहरहाल, सरकारें इलाके में बढ़ते आर्सेनिक के असर को लंबे समय तक झुठला नहीं पाईं और अंत में जब सरकार जागी तो सरकारी अंदाज में. सिर्फ बलिया जिले में ही आर्सेनिकयुक्त पानी से निजात दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश जल निगम ने करीब 100 करोड़ रु. खर्च कर दिए हैं. इस रकम से इलाके में 66 पानी की टंकियां बनाई जा रही हैं.
एक से तीन करोड़ रु. तक की लागत से बनी इन टंकियों के पानी को पाइपलाइन के जरिए गांव के घर-घर तक पहुंचाने का सरकारी इरादा है. लेकिन खास यह कि इंडिया टुडे ने जितने गांवों का दौरा किया उनमें से किसी गांव में लोगों ने अपने घर में सरकारी पानी की टंकी से कनेक्शन नहीं लिया है. सोनबरसा गांव की पानी की टंकी पर तैनात कर्मचारी मनोज बताते हैं, ''पिछले 17 दिन से टंकी से पानी की सप्लाई नहीं हुई है, क्योंकि पाइप- लाइन टूटी हुई है. गांव के किसी आदमी ने टंकी से कनेक्शन नहीं लिया है.''
आर्सेनिक पीड़ितों के लिए काम कर रहे गैर-सरकारी संगठन इनर वॉयस के संयोजक सौरभ सिंह ने बताया, ''आर्सेनिक पीड़ितों की नियमित स्वास्थ्य जांच का भी कोई बंदोबस्त नजर नहीं आता. आर्सेनिक जागरूकता कार्यक्रम के लिए जारी रकम का क्या इस्तेमाल हुआ इसका भी किसी को पता नहीं है.'' उन्होंने कहा कि इस बारे में वे राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला जबकि आर्सेनिक का स्तर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है.
इलाके से बड़े पैमाने पर मिल रही शिकायतों के बाद केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मामले की जांच करने के लिए नेशनल लेवल मॉनीटर (एनएलएम) के विशेषज्ञ दल को यहां भेजा था. एनएलएम की रिपोर्ट ने यहां बड़े पैमाने पर अनियमितताओं की बात तो मानी, साथ ही पाइपलाइन बिछाने में भ्रष्टाचार की तरफ भी इशारा किया. रिपोर्ट में कहा गया, ''बलिया के सभी 17 ब्लॉक में जल आपूर्ति के लिए 66 टंकियां बनाई गई हैं. एनएलएम ने पांच जगहों का दौरा किया और सब जगह पाइपलाइन टूटी पाई गई और पाइप लाइन की कवरेज भी उचित नहीं है. इस तरह से जल-आपूर्ति की सही व्यवस्था नहीं है.'' भ्रष्टाचार के आरोप पर एनएलएम रिपोर्ट में कहा गया है, ''इस संवेदनशील मुद्दे पर कुछ नहीं कहा जा सकता.
फिर भी कई घटनाओं और अखबारों की रिपोर्टिंग देखकर साफ तौर पर भ्रष्ट गठजोड़ की गंध आती है.'' रिपोर्ट के बावजूद अब तक किसी अफसर पर कार्रवाई सामने नहीं आई है. रिपोर्ट में भ्रष्टाचार की बात पर उत्तर प्रदेश जल निगम के प्रबंध निदेशक ए.के. श्रीवास्तव ने कहा, ''कुछ जगहों पर दिक्कतें रह गई होंगी. उन्हें जल्द दुरुस्त किया जाएगा. स्टेट वाटर सेनिटेशन मिशन थर्ड पार्टी जांच की तैयारी कर रहा है.'' मजे की बात है कि प्रदेश के प्रमुख सचिव (जल संसाधन) के आदेश को 11 महीने बीत जाने के बाद भी थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग की तैयारी ही चल रही है.
समस्या के स्थायी हल के बारे में चक्रवर्ती बताते हैं, ''स्थायी समाधान बारिश के पानी को तालाबों में रोकना और पारंपरिक कुएं खोदना है. कुओं में सतत ऑक्सीकरण के कारण आर्सेनिक की मात्रा पानी में नहीं बढ़ पाती. बाकी सारे उपाय फौरी हैं और लंबे समय में समस्या को घटाने के बजाए बढ़ाएंगे.''
लेकिन इन उपायों के आने तक यातना का दौर बरकरार रहेगा. हालत यह है कि इलाके के सरकारी अस्पताल इन बीमारियों को आर्सेनिक से जुड़ी नहीं मानते. अशोक सिंह की मानें तो उनके पिता को दस साल पहले इस बीमारी के लक्षण गंभीर रूप से सामने आए. स्थानीय स्तर पर डॉक्टरों ने इसे आर्सेनिक से जुड़ा मामला मानने से इनकार कर दिया.
बाद में वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में अपने पिता को इलाज के लिए लेकर आए तो उनके शरीर में आर्सेनिक की मात्रा के खतरनाक स्तर पार करने की पुष्टि हुई.
डॉक्टरों ने उन्हें साफ पानी पीने की सलाह दी लेकिन पानी से मालामाल इस जमीन पर साफ पानी नहीं मिला और दो साल पहले पिता की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पहले उनके शरीर के कई अंग आर्सिनोकोसिस के असर से गल चुके थे. एक दशक में बलिया के बेरिया ब्लॉक में 70 से ज्यादा लोग आर्सेनिक के कारण मर चुके हैं जबकि खौफनाक असर के साथ जिंदगी बिताने वालों की संख्या लाखों में है.
इसी गांव के ऋषिदेव यादव (65) को हाल ही में कैंसर होने की पुष्टि हुई है. वाराणसी में इलाज करा रहे यादव ने बताया, ''डॉक्टरों ने बताया कि आर्सेनिक के असर के कारण मुझे कैंसर हुआ है. गांव में मेरे जैसे कई लोग हैं, लेकिन हर आदमी इलाज पर इतना खर्च नहीं कर सकता. गांव के हर तीसरे आदमी को पेट संबंधी रोग हैं.'' बगल के गांव चैन छपरा की मुन्नी देवी (26 वर्ष) के पैरों में चकत्ते उभर आए हैं. मुन्नी ने बताया, ''मुझे शादी के करीब पांच साल बाद ये चकत्ते हुए हैं. मायके में मुझे कोर्ई परेशानी नहीं थी. इसी पानी से बीमारी हो रही है.'' उनके घर फिल्टर वाला सरकारी हैंडपंप भी लगा लेकिन कुछ दिन में वह भी जहर उगलने लगा.
आर्सेनिक का जहर घर-घर में पहुंच गया है. लाखों लोग इसके शिकार हैं पर सरकारी डॉक्टर उनकी बीमारी के लक्षणों को आर्सेनिक का नतीजा मानने से इनकार कर रहे हैं. पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जो व्यवस्था की गई है, वह कारगर नहीं है. अगर सरकार ने समय रहते सुध नहीं ली तो यह सार्वजनिक स्वास्थ्य की बड़ी समस्या बन जाएगी.

