
फरवरी की 25 तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा में यूक्रेन ने एक प्रस्ताव पेश किया. रूस-यूक्रेन जंग शुरू होने के बाद पहली बार अमेरिका ने यूक्रेन के इस प्रस्ताव के खिलाफ और रूस के समर्थन में वोटिंग की. हालांकि, अमेरिका के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया.
दरअसल, इस प्रस्ताव में यूक्रेन की ओर से रूसी हमले की निंदा करने के साथ ही यूक्रेन से तत्काल रूसी सेना को वापस बुलाने की मांग की गई थी. इसपर अमेरिका को छोड़कर जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और जी7 के बाकी बचे सभी देशों समेत कुल 93 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया.
वहीं, रूस, अमेरिका, इजरायल और हंगरी समेत 18 देशों ने विरोध में मतदान किया, जबकि भारत, चीन और ब्राजील सहित 65 देशों ने इस मतदान में भाग नहीं लिया. यूनाइटेड नेशन में यूक्रेन के खिलाफ अमेरिका की वोटिंग से दुनिया का हर देश हैरान है. हालांकि, अमेरिका इससे पहले भी क्यूबा, वियतनाम समेत 4 अन्य देशों को जंग में हर तरह से समर्थन देकर पल्ला झाड़ चुका है या जंग के बीच में ही पीठ दिखाई है.
इस स्टोरी में जानेंगे कि किन-किन मौकों पर अमेरिका ने दूसरे देशों में पीठ दिखाई है.
अफगानिस्तान: 20 साल, 1.76 लाख लोगों की मौत, फिर बिना समाधान भागा अमेरिका
9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने 21 सितंबर 2001 को कहा, "आप या तो हमारे साथ या हमारे खिलाफ हैं.” इसके ठीक 2 सप्ताह बाद अमेरिकी विमानों ने अफगानिस्तान में बम बरसाने शुरू कर दिए. इस वक्त अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था. अमेरिका ने इस जंग को ‘वॉर ऑन टेरर’ नाम दिया था.
‘बॉस्टन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर’ के मुताबिक 20 साल तक तालिबान और अमेरिका के बीच चली इस जंग में करीब 1.76 लाख लोगों की मौत हुई. 2004 में यहां अमेरिका की समर्थन वाली नई सरकार बनी. 2008 में अमेरिका ने दोबारा से अफगानिस्तान में तालिबान के खात्मे की कोशिश की. 17 हजार से ज्यादा सैनिक बराक ओबामा के कार्यकाल में अफगानिस्तान भेजे गए.
अमेरिकी सेना ने 2011 में 9/11 के मास्टरमाइंड आतंकवादी ओसामा बिन-लादेन को मारने के बाद भी अमेरिका ने अफगानिस्तान नहीं छोड़ा. इस्लामिक गणतंत्र को बचाता रहा क्योंकि अमेरिकी नेताओं का मानना था कि तालिबान की वापसी से आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई कमजोर पड़ेगी. हालांकि, 20 साल बाद 16 अगस्त 2021 को तालिबान ने राजधानी काबुल को चारों ओर से घेर लिया.

अमेरिका अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से निकालने की घोषणा कर चुका था. ऐसे में तालिबान के राजधानी घुसते ही लोग देश छोड़कर भागने लगे. गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच अफगानिस्तान के लोगों को अकेले छोड़कर अमेरिकी सेना वापस लौट गई. जब अमेरिका की हर जगह आलोचना होने लगी तो राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘वॉर ऑन टेररिज्म’ पर जवाब देते हुए कहा, “अफगानिस्तान के लोगों और नेताओं को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी. उन्होंने बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर दिया है.”
वियतनाम: 19 साल, 9.70 लाख लोगों की मौत, फिर शांति समझौता कर लौटा अमेरिका
वियतनाम युद्ध की शुरुआत 1955 से मानी जाती है. 1954 में जिनेवा समझौते के तहत उत्तर और दक्षिणी वियतनाम की स्थापना हुई थी. कम्युनिस्ट उत्तरी वियतनाम की अगुवाई हो-ची-मिन्ह कर रहे थे, तो दक्षिण वियतनाम की कमान कैथोलिक राष्ट्रवादी नगो दीन्ह दीम के पास थी. इस वक्त अमेरिका साम्यवादी विचार को दुनियाभर में फैलने से रोकना चाहता था.
1955 उत्तरी वियतनाम ने दक्षिण के खिलाफ सैन्य जमावड़ा शुरू किया तो अमेरिका ने को साम्यवाद को फैलने से रोकने के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजना शुरू कर दीं. 1967 आते-आते वियतनाम में अमेरिकी फौजियों की संख्या 5 लाख तक पहुंच गई थी.
19 साल तक भीषण बमबारी के बावजूद अमेरिका कम्युनिस्ट उत्तरी वियतनाम को झुका नहीं सका. अब धीरे-धीरे अमेरिकी लोग जंग खत्म करने की मांग करने लगे थे.
1969 में अमेरिका में चुनाव के बाद रिचर्ड निक्सन राष्ट्रपति बने. घरेलू दबाव के आगे निक्सन ने वियतनाम से बाहर निकलने का मन बना लिया. इस जंग में अब तक करीब 9.70 लाख लोगों की मौत हो चुकी थी.
जनवरी 1973 में पेरिस में अमेरिका, उत्तरी वियतनाम और दक्षिण वियतनाम और वियतकॉन्ग के बीच शांति समझौत हुआ. दरअसल, इस समझौते की आड़ में अमेरिका वियतनाम से अपनी सेना हटाना चाहता था. समझौते के बाद जंग को बीच में ही छोड़ अमेरिकी सेना वापस देश लौटने लगी. अब दक्षिणी वियतनाम बिल्कुल अकेला बच गया था.
अमेरिकी फौज के पूरी तरह निकलने से पहले ही 29 मार्च 1973 को उत्तरी वियतनाम ने दक्षिणी वियतनाम पर हमला बोल दिया.दो साल बाद 30 अप्रैल 1975 को कम्युनिस्ट वियतनाम की फौज साइगॉन में घुस गई और वहां बचे हुए अमेरिकियों को आनन-फानन में भागना पड़ा.

वियतनाम में 20 साल लंबी लड़ाई हारने के बाद साइगॉन यानी हो-ची-मिन्ह सिटी से अमेरिकियों को बाहर निकालने वाले हेलिकॉप्टरों में चढ़ने की होड़ मच गई. हजारों वियतनामी नागरिक 14 फुट ऊंची दीवार पर चढ़कर अमेरिकी हेलिकॉप्टर में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे. भागते अमेरिकियों और वियतनाम की जनता की यह तस्वीर महाशक्ति की हार का प्रतीक बन गई थी.
सोमालिया: 19 अमेरिकी सैनिकों के मारे जाने के बाद अमेरिका ने बंद किया ऑपरेशन
जनवरी 1991 की बात है. अफ्रीकी देश सोमालिया में कई विरोधी कबीलों की मिलिशिया, यानी सशस्र विद्रोही गुटों ने राष्ट्रपति मोहम्मद सियाद बरे का तख्ता पलट दिया.
सोमालिया की राष्ट्रीय सेना के सैनिक अपने-अपने कबीलों के सशस्त्र गुटों में शामिल हो गए. पूरे सोमालिया में सत्ता हथियाने के लिए गृह युद्ध छिड़ गया. राजधानी मोगादीशू में मुख्य विद्रोही गुट यूनाइटेड सोमालिया कांग्रेस भी दो गुटों बंट गया था. इनमें एक गुट का नेता अली मेहदी मुहम्मद राष्ट्रपति बन गया. दूसरे गुट को मोहम्मद फराह अदीदी चला रहा था.
मानवीय संकट बढ़ने पर यूनाइटेड नेशन्स ऑपरेशन इन सोमालिया-2 (UNOSOM-2) के तहत आम लोगों को खाने-पीने और डॉक्टरी मदद शुरू की गई, मगर अदीदी का गुट इसमें आड़े आ रहा था. ऐसे में अमेरिका ने 3 अक्टूबर को मोगादीशू में एक घर से अदीदी के दो करीबी साथियों को पकड़ने के लिए सेना की टास्क फोर्स भेजी.
यह हमला अमेरिका के लिए बड़ा मुसीबत बन गया. अमेरिका यहां आया तो मानवीय सहायता के नाम पर था, लेकिन जल्द ही उसकी रुचि सत्ता में दिखने लगी. इस ऑपरेशन में 19 अमेरिकी सैनिक भी मारे गए. करीब 73 घायल हो गए. मारे गए अमेरिकी सैनिकों और पायलटों के शवों को विद्रोहियों की भीड़ ने सड़कों पर घसीटा था, ये फूटेज अमेरिकी TV पर दिखाई गए.
इसके बाद अमेरिका सोमालिया में मानवीय मदद के पूरे मिशन से पीछे हट गया. तब आतंकवादी ओसामा बिन लादेन ने भी अमेरिकी फौजियों को डरपोक बताया था.