यह दीवाली के ठीक पहले की बात है. एक रोज डिनर पर एक व्यापारी ने मुझे अपने सवालों से घेर लिया. वे दिल्ली के ग्रीन पार्क इलाके में हाल ही में ली गई एक जमीन पर अपनी पसंद का घर न बनवा पाने से बहुत परेशान थे. आतंकी हमलों के डर से वे चाहते कि उनकी जमीन के पास स्थित 15वीं सदी के गुंबद को 'उड़ा' दिया जाए-इस तरह से प्रस्तावित विकास नहीं हो पाएगा.
यूरोप के विश्व हेरिटेज शहरों के संरक्षण इलाकों में हजारों निजी मकान शामिल हैं. अकव्ले ब्रिटेन में नौ हजार 'संरक्षण इलाके' हैं, जहां 6,50,000 निजी मकान मालिकों को अपने घर के बाहरी दरवाजे का रंग बदलने के लिए भी इजाजत लेनी पड़ती है. इसके बावजूद लोग धरोहरों को बढ़ावा देते हैं: ब्रिटेन में नेशनल ट्रस्ट के 20,00,000 से ज्यादा सदस्य हैं. यह संख्या इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट ऐंड कल्चरल हेरिटेज (इंटैक) के मात्र 7,000 सदस्यों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है.
एक राष्ट्र के रूप में हमारे अंदर अपनी बनाई धरोहरों के प्रति इतना अनादर क्यों है?
औपनिवेशिक शासन में भारत की धरोहरों का संरक्षण उन्हें नुक्सान पहुंचाने वाले को सजा देने के कानून पर निर्भर रहा है. आजादी के छह दशक से ज्यादा अरसे के बाद हम आज भी जुर्माना-बेअसर जुर्माना-लगाने के कानून को अपनाते आ रहे हैं. भारत, जहां कानून के प्रति अनादर साफ देखा जा सकता है, में धरोहरों का संरक्षण तभी कामयाब हो सकता है जब लोग यानी हेरिटेज संपत्तियों के मालिक, संरक्षण इलाके के निवासी, अचल संपत्ति के कारोबारी, पर्यटन उद्योग आदि इससे फायदा उठा सकें.
1992 में एक कानून बनाया गया कि देश में राष्ट्रीय महत्व के 3,650 स्मारकों के आसपास 100 मीटर का वर्जित क्षेत्र और 300 मीटर का नियंत्रित क्षेत्र बनाया जाए. इस कानून में हेरिटेज इलाके में आने वाले लोगों को कु छ फायदे भी दिए जाने चाहिए थे क्योंकि उन्हें अपनी संपत्ति पर मन-मुताबिक निर्माण करने की छूट नहीं थी जबकि हेरिटेज इलाके से बाहर रहने वाले लोग अपनी संपत्ति को अपनी मर्जी के मुताबिक विकसित कर सकते थे.
इस कानून से प्रभावित होने वाले लोगों को जमीन के मनचाहे इस्तेमाल की छूट मिलनी चाहिए थी ताकि वे रिहाइशी इलाके में अपनी जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर सकें. उन्हें स्थानांतरण योग्य विकास अधिकार दिया जाना चाहिए था ताकि वे उसे बेच सकें या अविकसित हिस्सों का इस्तेमाल कर सकें. कम-से-कम इतना तो किया ही जाना चाहिए था कि 'नियंत्रित क्षेत्र' में शिकायतों को दूर करने की कोई व्यवस्था बनाई गई होती.
2010 में वर्जित और नियंत्रित क्षेत्रों के सुधार के मकसद से सभी संरक्षित स्मारकों की खातिर स्थानीय क्षेत्र योजनाएं बनाने के लिए संसद ने राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण कानून बनाया. फिर भी इस कानून के कु छ नियम अब भी औपनिवेशिक शासन के साए से मुक्त नहीं हो पाए हैं, जैसे यह रेखांकित करना कि ''प्राधिकरण के सदस्य संरक्षित स्मारक की 100 मीटर की परिधि में नहीं रह सकते हैं.''
निरोधक कानूनों के बावजूद खासकर दिल्ली के तुगलकाबाद, महरौली और शाहजहानाबाद जैसे संरक्षित धरोहर के इलाकों में निर्माण कार्य धड़ल्ले से चल रहे हैं. हमारे कुछ महत्वपूर्ण स्मारकों, जैसे निजामुद्दीन बस्ती में स्थित सम्राट अकबर के मंत्री अतगा खान का शानदार मकबरा, में कुछ परिवार रह रहे हैं. इन परिवारों को रहने के लिए कु छ अच्छे फ्लैट दिए जा सकते थे, जिससे एक ओर इन्हें रहने के लिए अच्छी जगह मिल जाती और दूसरी ओर हमारी बहुमूल्य राष्ट्रीय धरोहर का संरक्षण होता.
एएसआइ के अलावा राज्य पुरातत्व विभाग और नगरपालिकाओं को भी संरक्षण का अधिकार हासिल है. वे भी लाभ देने की बजाए सजा का ही रवैया अपनाते हैं.
यूरोपीय देशों में, जहां निर्मित धरोहरों के संरक्षण को सरकार की जिम्मेदारी समझ जाता है, नगरपालिका से लेकर केंद्र सरकार के स्तर तक विशेषज्ञों की टीम बनाई जाती है, जिसमें आर्किटेक्ट, कंजर्वेशन आर्किटेक्ट, अर्बन प्लानर, लैंडस्केप आर्किटेक्ट, अर्बन डिजाइनर, क्राफ्ट गिल्ड, सिविल सोसायटी ग्रुप, पुरातत्वविद्, इंजीनियर और कारोबारी लोग शामिल होते हैं. भारत में तो एएसआइ के पास तक संरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी मानव संसाधन नहीं हैं.
धरोहरों के प्रति जन आक्रोश और अनादर तभी पैदा होता है, जब दिल्ली मेट्रो या सार्वजनिक निर्माण विभाग जैसी एजेंसियां बार-बार नियमों का उल्लंघन करती हैं, खासकर बड़ी परियोजनाएं जैसे खंभों पर बनाई जाने वाली मेट्रो लाइनें या सड़कें. ये परियोजनाएं स्मारक से 100 मीटर की दूरी पर बने निजी मकानों के मुकाबले कहीं ज्यादा नुक्सानदेह साबित होती हैं.
धरोहरों का संरक्षण तभी कारगर हो सकता है जब इससे संबंधित एजेंसियां यह तय कर सकें कि लोगों को संरक्षण से फायदा होगा और उन इलाकों में रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा, साफ-सफाई आदि के मामले में बेहतर जीवन स्तर हासिल होगा. संरक्षण की ऐसी कोशिशों से इलाके में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा और सरकार की आमदनी भी होगी. इस पैसे का इस्तेमाल संरक्षित स्मारकों के बेहतर रखरखाव और उन्हें विकसित करने के लिए किया जा सकता है. यह न सिर्फ हमारे अतीत, बल्कि हमारे भविष्य के लिए भी अच्छा होगा.
रतीश नंदा संरक्षण आर्किटेक्ट हैं और आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के निदेशक हैं.

