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चुनाव 2012: भेदियों के सहारे चुनावी जंग जीतने की कोशिश

विधानसभा चुनाव में अविश्वास के उस स्तर तक सियासत पहुंच चुकी है, जहां प्रत्याशियों के चयन और अपने-परायों पर नजर रखने में निजी जासूसी एजेंसियों की मदद ली जा रही है.

अपडेटेड 9 फ़रवरी , 2012

बलरामपुर सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र के सुहागिन पुरवा इलाके में बनी मान्यवर कांशीराम शहरी आवासीय कॉलोनी में 22 जनवरी की दोपहर कुछ लोग एक खास चुनाव निशान वाला झंडा दिखाकर पैसा लेने और उसी निशान पर वोट की अपील कर रहे थे. प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार ने इसकी सूचना स्थानीय पुलिस और प्रशासन को दी.

मौके पर पहुंचे प्रशासन के अधिकारियों ने तीन लोगों को नोट से वोट खरीदते पकड़ा और उनके पास से 7,770 रु. नकद, चुनाव चिह्न और एक पार्टी के तीन झंडे जब्त किए. पुलिस ने चुनाव आचार संहिता उल्लंघन का मामला दर्ज कर आरोपियों पर कार्रवाई शुरू कर दी.बेपरदा होते राज

दूसरी घटना: बाराबंकी के कुर्सी विधानसभा क्षेत्र में एक पार्टी के प्रत्याशी के समर्थक 12 जनवरी को यहां के बेलहारा कस्बे के लोगों को उम्म्मीदवार के पक्ष में वोट देने के बदले पर्चियां बांट रहे थे. इन पर्चियों को दिखाकर स्थानीय लोग नजदीक के पेट्रोल पंप से दो लीटर पेट्रोल भरवा सकते थे. सूचना मिलने पर पुलिस मौके पर पहुंची और बड़ी संख्या में पर्चियां बरामद कीं. एक प्रत्याशी के खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन का मुकदमा दर्ज हुआ.

ये दोनों वाकये आचार संहिता उल्लंघन के मामले हैं. मगर गुपचुप तरीके से किए जा रहे इन कामों की भनक पुलिस-प्रशासन के कानों में कैसे पड़ी? तह में जाएं तो इन चुनावों में खास मिशन पर लगे निजी जासूसों और राजनैतिक पार्टियों के स्थानीय स्तर पर विकसित खुफिया तंत्र की भूमिका सामने आ जाती है. दरअसल, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में दीवारों में इतने कान उग आए हैं कि ज्यादातर पार्टियां और नेता अपने और पराए का फर्क जानने के लिए पेशेवर जासूसों की मदद लेने को मजबूर हो गए हैं. इस खुफियागीरी की खासियत यह है कि नेता विरोधियों से ज्यादा अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों की जासूसी करा रहे हैं. एक ओर जहां वे अपनी राह को आसान करने के लिए जासूसों की मदद ले रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, पार्टियों ने सही प्रत्याशी के चयन में खुफिया जानकारी पर भरोसा जताया है.

चुनाव में अपने जासूस भेज रही दिल्ली की एएमएक्स डिटेक्टिवज के संचालक बलदेव कुमार पुरी का कहना है, ''चुनाव प्रचार शुरू होने से कहीं पहले पार्टी आलाकमान ने दावेदारों के पैनल में से सही प्रत्याशी छांटने में डिटेक्टिव एजेंसी की मदद ली.'' पुरी की मानें तो पार्टी हाइकमान अब जिला स्तर के संगठन के ही भरोसे नहीं है, बल्कि पेशेवर जासूसों के जरिए खुद का अपना सूचना नेटवर्क भी तैयार कर रहा है. उनकी बात की तस्दीक उत्तर प्रदेश में सत्ता की प्रबल दावेदार समाजवादी पार्टी (सपा) के एक नेता ने भी की. सपा के इस नेता ने कहा, ''उम्मीदवारों की घोषणा के बाद जिस तरह से सपा ने अपने करीब 70 फीसदी प्रत्याशियों के नाम बदले हैं, उसके पीछे कहीं न नहीं निजी जासूसों की खुफिया रिपोर्ट भी जिम्मेदार है.''जासूसी का नेटवर्क असल में सपा ने उम्मीदवारों की सूची स्थानीय प्रभारियों की रिपोर्ट के आधार पर ही तैयार की थी. करीब एक साल पहले निजी जासूसों को इन उम्मीदवारों की जमीनी हकीकत जांचने का जिम्मा सौंपा गया.

जासूसों की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ कि कुछ जगहों पर मजबूत प्रत्याशियों को बाहरी कहकर नकार दिया गया, कई जगहों पर ऐसे उम्मीदवारों को टिकट मिला जो स्थानीय समीकरणों पर फिट ही नहीं बैठते थे. इसी आधार पर उम्मीदवारों को बदला गया. सपा के एक दूसरे नेता बताते हैं कि निजी जासूसों की रिपोर्ट के बाद ही सपा ने नए सिरे से अपने सभी जिला पदाधिकारियों व समितियों का गठन किया. उधर, बसपा के 100 से ज्यादा विधायकों का टिकट कटने के पीछे भी साल भर पहले कराए गए इसी तरह के खुफिया सर्वेक्षण का हाथ बताया जा रहा है.

जासूसों की उपयोगिता का दिलचस्प वाकया बयान करते हुए एसोसिएशन ऑफ प्राइवेट डिटेक्टिव्स एंड इनवेस्टिगेटर्स (एपीडीआइ) के चेयरमैन कुंवर विक्रम सिंह ने बताया, ''एक विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के कई नेता अपने मुख्यमंत्री के ही पीछे पड़ गए. हालात से निपटने के लिए मुख्यमंत्री ने निजी जासूसी एजेंसी को ठेका दिया और पार्टी नेताओं को बता दिया कि जासूस उन पर नजर रखेंगे. खबरों के जरिए टीवी पर भी यह बात फैलाई.  कुछ पार्टी विरोधी नेताओं को जासूसों ने पकड़ा भी. इस घटनाक्रम के बाद भितरघात पर काफी हद तक अंकुश लगा.'' इस चुनाव में भी लखनऊ पूर्व विधानसभा के एक प्रत्याशी ने  इसी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी कलराज मिश्र की सभाओं में निगरानी का काम निजी जासूसी कंपनी को सौंपा है. वे बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मिश्र के समर्थन में पद यात्राएं हो रही हैं, उनमें आचार संहिता के उल्लंघन और पैसे के बेजा इस्तेमाल  के मामले भी सामने आ सकते हैं. एक निजी डिटेक्टिव एजेंसी के निदेशक बताते हैं कि कांग्रेस और सपा के कई उम्मीदवारों ने पार्टी के भीतर अपने विरोधियों की गतिविधियों की जानकारी हासिल करने के लिए निजी जासूसों का सहारा लिया है. उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में ऐसे उम्मीदवारों की बड़ी तादाद है. ऐसे उम्मीदवार पार्टी के भीतर अपने विरोधियों की गतिविधियों की पुख्ता जानकारी पार्टी के शीर्ष प्रदेश नेतृत्व को दे रहे हैं. इन्हीं जानकारियों के आधार पर पिछले दिनों बाराबंकी, बहराइच, हमीरपुर समेत कई जिलों के कांग्रेस पदाधिकारियों पर कार्रवाई की गई थी. पार्टी संगठन को छोड़कर निजी जासूसों को ज्यादा तवज्जो देने के पीछे नेताओं के अपने तर्क हैं. भाजपा में चुनाव अभियान समिति से जुड़े एक बड़े नेता बताते हैं कि पार्टी सदस्यों से किसी जानकारी की तहकीकात कराने पर इसके लीक होने का खतरा होता है, जबकि निजी जासूसों के साथ ऐसा नहीं है. जासूसों की सेवाएं लेने वाला उपभोक्ता भी उन्हें नहीं पहचानता. डिटेक्टिव एजेंसी का समन्वयक सियासी पार्टी के नेता और जासूसों के बीच की कड़ी होता है.

मामला फकत जासूसी तक ही सीमित हो ऐसी बात नहीं है, बल्कि जासूसी एजेंसियां प्री-पोल सर्वे में सटीक अनुमान के जरिए अपना हुनर दिखा चुकी हैं. उत्तर प्रदेश में फेडरल सिक्युरिटी प्राइवेट लिमिटेड के संचालक अरमान खान बताते हैं, ''मेरी कंपनी ने कई बड़ी पार्टियों के लिए प्री पोल सर्वे कराया है. लेकिन अब पूरा फोकस उम्मीदवारों की जासूसी तक सिमट गया है.'' अरमान के मुताबिक, निजी जासूसों की सेवाएं लेने वाला उम्मीदवार अपने प्रतिद्वंद्वी की सारी सूचनाएं चाहता है. वह किस इलाके में चुनाव प्रचार करने जा रहा है? उसके साथ कितने वाहनों का काफिला है? इलाके के कौन-कौन से प्रमुख लोग उसके साथ हैं? चुनावी सभा हो रही है, तो वहां क्या-क्या बातें हो रही हैं? जासूसों के सामने सबसे बड़ी चुनौती आचार संहिता उल्लंघन के मामलों की सूचना समय रहते एकत्र करने और क्लाएंट तक भेजने की है. ऐसे मामलों में जरा-सी देरी प्रतिद्वंद्वी को बच निकलने का मौका दे देती है.

इतने सारे प्रतिद्वंद्वियों पर नजर रखने में काफी जासूसों की जरूरत होती है. यही वजह है कि विधानसभा चुनाव में पड़ोसी राज्य राजस्थान की जासूसी एजेंसियों से भी मदद ली जा रही है. राजस्थान डिटेक्टिव एसोसिशन के उपाध्यक्ष के.आर. चौधरी की मानें तो उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर राजस्थान की एजेंसियां अपने जासूस भेज रही हैं. वे बताते हैं, ''चुनाव में एक जासूस की फीस कम-से-कम 5,000 रु. रोज होती है और सामान्य तौर पर कम-से-कम दो जासूस भेजे जाते हैं. उनके रहने-खाने और वाहन का खर्च क्लाएंट को उठाना होता है.'' अरमान खान बताते हैं कि जरूरत के लिहाज से भुगतान 15,000 रु. रोजाना तक चला जाता है. यदि इस दौरान जासूस के हाथ कोई धमाकेदार सुराग लग गया तो उसका पैसा अलग से वसूला जाता है. उत्तर प्रदेश में 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में भी राजस्थान से बड़ी संख्या में जासूस और जासूसी एजेंसियों की मदद ली गई थी.

बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए दिल्ली की कई जासूसी कंपनियों ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में अपने दफ्तर खोले हैं. दिल्ली की राठौर डिटेक्टिव एजेंसी के मालिक जयवीर सिंह राठौर बताते हैं कि उनकी एजेंसी का दफ्तर लखनऊ, कानपुर और बनारस में है.

यह खुफियागीरी केवल निजी जासूसों तक ही सीमित नहीं है. राजनैतिक दलों ने स्थानीय स्तर पर भी खुफिया समितियां बना रखी हैं.  ऐसी ही एक समिति के सदस्य और सपा के अलीगढ़ जिलाध्यक्ष अशोक यादव बताते हैं, ''चुनाव में नजर रखनी होती है कि कहां साड़ी या शराब बांटी जा रही है.'' इस टीम में उन्हीं लोगों को रखा जाता है जो न सिर्फ उम्मीदवार के नजदीकी होते हैं, बल्कि विरोधी खेमे में घुसपैठ की क्षमता भी रखते हैं. बीते दिनों दरियाबाद विधानसभा क्षेत्र में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) की एक टीम ने इलाके में मरीजों को दवाएं बांटी थीं. इस इलाके के एक उम्मीदवार की खुफिया टीम को इस बात की जानकारी मिली जिसे स्थानीय प्रशासन तक पहुंचाया गया. इसके बाद सेल के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया.

जो पहचान लिया जाए वह जासूस ही कैसा? मजे की बात यह कि नेता निजी जासूस एजेंसियों पर करोड़ों रु. खर्च कर रहे हैं. पर इस बात पर सब चुप हैं कि जासूस का खर्च चुनावी खर्च में शामिल है या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि जासूसी खर्च की पाई-पाई का हिसाब उजागर करने के लिए ही कोई नेता किसी बड़ी जासूसी कंपनी को ठेका दे दे.

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