19 अक्टूबर की शाम अयोध्या दीपोत्सव का दृश्य हमेशा की तरह भव्य था. सरयू के तट पर लाखों दीप जल उठे, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मंच पर मौजूद थे और पूरा प्रशासनिक अमला आयोजन में व्यस्त था. लेकिन उत्सव की चमक के बीच एक खालीपन साफ दिखाई दे रहा था, दोनों उपमुख्यमंत्री, केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक, नदारद थे.
इस अनुपस्थिति ने न सिर्फ राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी, बल्कि BJP सरकार के भीतर एक बार फिर तनाव-दरार की चर्चा को हवा दे दी. हालांकि राज्यपाल आनंदी बेन पटेल भी कार्यक्रम में शामिल नहीं थीं जिनके बारे में बताया जा रहा है कि वे निजी कारणों से दीपोत्सव का हिस्सा नहीं थीं.
कार्यक्रम के दौरान योगी आदित्यनाथ ने जब दीप प्रज्वलित किया, तो सवाल उठे कि दो सबसे वरिष्ठ सहयोगी इस महत्वपूर्ण मौके से क्यों गायब हैं. यह पहला दीपोत्सव था, जिसमें न मौर्य और न ही पाठक मौजूद रहे. यही नहीं, सरकारी प्रचार सामग्री, पोस्टर, निमंत्रण पत्र और विज्ञापन में भी दोनों उपमुख्यमंत्रियों का नाम तक नहीं था. एक वरिष्ठ BJP नेता ने इंडिया टुडे को बताया, “नौ सालों में यह पहला दीपोत्सव है जिसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ राज्यपाल और उपमुख्यमंत्री शामिल नहीं हुए. आधिकारिक तौर पर कोई कुछ नहीं कह रहा है, लेकिन इतनी बड़ी चूक की जांच होनी चाहिए. क्या यह एक प्रशासनिक गलती थी या किसी गहरे समन्वय की कमी का संकेत है.”
कार्यक्रम की जिम्मेदारी पर्यटन विभाग के पास थी, जबकि विज्ञापनों की देखरेख सूचना विभाग कर रहा था. माना जा रहा है कि दोनों विभागों के बीच तालमेल की कमी के कारण कई नाम और प्रोटोकॉल विवरण छूट गए. उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया, लेकिन उनके करीबी सूत्रों का कहना है कि उन्हें कार्यक्रम से संबंधित जानकारी बहुत देर से मिली और वे अंतिम क्षणों में खुद को इससे अलग रखने का फैसला कर चुके थे.
केशव मौर्य के मामले में उनकी अनुपस्थिति का आधिकारिक कारण “बिहार में व्यस्तता” बताया गया. वे इस समय बिहार विधानसभा चुनाव के सह-प्रभारी हैं और दीपोत्सव के एक दिन पहले देर रात लखनऊ लौटे थे. मौर्य के करीबी नेताओं का कहना है कि यह पूरी तरह संयोग था और इसका किसी “अंदरूनी राजनीति” से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन पार्टी के अंदर के लोगों की राय अलग है. उनका कहना है कि दोनों डिप्टी सीएम कार्यक्रम में शामिल नहीं होना चाहते थे क्योंकि उन्हें न तो मंच की स्थिति बताई गई थी, न यह कि वे किस क्रम में बैठेंगे. अगर बताई भी गई होगी तो इसमें देरी की गई. ऐसे में उनकी गैर-मौजूदगी प्रशासनिक प्रोटोकॉल से अधिक राजनीतिक संदेश बन गई.
यह पहला मौका नहीं जब योगी सरकार के शीर्ष स्तर पर समन्वय की कमी की बात उठी हो. बीते डेढ़ साल में मुख्यमंत्री और उनके दोनों उपमुख्यमंत्रियों के बीच “नीतिगत मतभेद” की चर्चा कई बार हुई. इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोकसभा चुनाव 2024 के बाद सामने आया. BJP के लिए उत्तर प्रदेश में यह चुनाव अप्रत्याशित झटका साबित हुआ. वर्ष 2019 में जहां पार्टी ने 62 सीटें जीती थीं, वहीं 2024 में यह घटकर 36 रह गईं. इस परिणाम ने संगठन के भीतर असंतोष को जन्म दिया.
चुनाव के बाद मुख्यमंत्री योगी ने समीक्षा बैठक में साफ कहा कि “अति आत्मविश्वास और स्थानीय स्तर पर समन्वय की कमी” ने नुकसान किया. वहीं डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने उसी बैठक में कहा कि “संगठन सरकार से बड़ा है, और कार्यकर्ताओं का दर्द मेरा दर्द है.” यह एक पंक्ति उस वक्त के राजनीतिक माहौल में बहुत भारी पड़ी. मौर्य का यह बयान मुख्यमंत्री की कार्यशैली पर अप्रत्यक्ष टिप्पणी माना गया. योगी जहां प्रशासनिक अनुशासन और नौकरशाही पर भरोसा रखते हैं, वहीं मौर्य का झुकाव हमेशा संगठन और कार्यकर्ताओं की सक्रियता की ओर रहा है. यही अंतर धीरे-धीरे एक सियासी रेखा में बदल गया.
इसके कुछ दिन बाद मौर्य दिल्ली गए और BJP अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मिले. हालांकि इसे औपचारिक मुलाकात कहा गया, लेकिन पार्टी के भीतर इसे यूपी की “आंतरिक समीक्षा” से जोड़ा गया. उसी दौरान ब्रजेश पाठक की सक्रियता भी बढ़ी. उन्होंने लगातार कानून-व्यवस्था, जनसुनवाई और ‘ब्राह्मण असंतोष’ से जुड़े मुद्दों पर खुलकर बयान दिए. इस वर्ष 16 जून को लखनऊ में सिपाहियों को नियुक्ति पत्र बांटने के कार्यक्रम के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को “लोकप्रिय और सफल मुख्यमंत्री” कहा तो केशव प्रसाद मौर्य को “मेरे मित्र” कहकर यूपी BJP की अंदरूनी राजनीति में हलचल मचा दी थी.
यही नहीं, सितंबर 2025 में केशव मौर्य को BJP ने बिहार विधानसभा चुनावों का सह-प्रभारी नियुक्त किया. उस वक्त यह फैसला “पार्टी का भरोसा जताने वाला कदम” बताया गया, लेकिन अंदरखाने इसे योगी-मौर्य समीकरण से जोड़कर देखा गया. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने तब कहा था, “यह नियुक्ति मौर्य की राष्ट्रीय भूमिका को बढ़ाने की दिशा में है. यह योगी के इर्द-गिर्द सीमित राजनीति से आगे बढ़ने का संकेत है.”
बीते एक साल के दौरान दूसरे उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक की सक्रियता में भी एक नया आत्मविश्वास दिखा है. वे खुद को मुख्यमंत्री के ‘अधीनस्थ’ के बजाय ‘स्वतंत्र राजनीतिक चेहरा’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं. यही वजह है कि दीपोत्सव की गैर-मौजूदगी को लेकर केवल कार्यक्रम की चूक का तर्क राजनीतिक हलकों को नहीं भाया. एक वरिष्ठ BJP विधायक कहते हैं, “अभी जो कुछ दिख रहा है, वह महज मिसकम्युनिकेशन नहीं है. मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्रियों के बीच संवाद की कमी पुरानी बात है. बस अब यह सार्वजनिक संकेतों में बदल रही है.”
BJP के भीतर अब दो अलग धाराएं दिखाई देती हैं. एक वह जो कहती है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने कार्यकाल में प्रशासनिक नियंत्रण और नौकरशाही को प्राथमिकता दी है, जिससे राजनीतिक चेहरों की भूमिका सीमित हो गई है. दूसरी वह जो मानती है कि योगी के सख्त शासन मॉडल ने BJP को एक मजबूत छवि दी है, और डिप्टी सीएम की भूमिका सिर्फ सहायक होनी चाहिए.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि BJP के भीतर यह खिंचाव केवल व्यक्तित्वों का टकराव नहीं, बल्कि कार्यशैली और सत्ता-संतुलन का संघर्ष है. योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री के रूप में अब न सिर्फ प्रशासनिक नेता हैं, बल्कि BJP के सबसे बड़े ब्रांड भी बन चुके हैं. वहीं केशव मौर्य और ब्रजेश पाठक- दोनों ही अपने-अपने समुदायों में लोकप्रिय हैं और अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत रखना चाहते हैं.
यूपी BJP के एक प्रदेश उपाध्यक्ष कहते हैं, “योगी जी की छवि संत और प्रशासक दोनों की है. लेकिन इस छवि के बीच बाकी नेताओं के लिए स्पेस कम हो गया है. यही वजह है कि वे संगठन और कार्यकर्ता की बात ज़ोर से करते हैं ताकि यह दिखा सकें कि वे अब भी जनता के नेता हैं.” यह भी ध्यान देने लायक है कि लोकसभा परिणामों के बाद BJP के कई विधायकों और मंत्रियों में यह भावना रही कि मुख्यमंत्री का दफ्तर अत्यधिक केंद्रीकृत हो गया है और स्थानीय नेताओं की राय की अहमियत कम हुई है. यही भावना अब कई मौकों पर सार्वजनिक संकेतों में दिख रही है. दीपोत्सव जैसे कार्यक्रम में हुई “अनदेखी” को उसी श्रृंखला की कड़ी माना जा रहा है.
हालांकि, पार्टी के शीर्ष स्तर पर इस मुद्दे को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया है. दिल्ली में BJP के राष्ट्रीय नेताओं ने इसे “प्रशासनिक चूक” बताया है और कहा है कि “पार्टी और सरकार के बीच कोई मतभेद नहीं है.” लेकिन यह भी साफ है कि अब संगठन को राज्य स्तर पर संवाद की कमी दूर करनी होगी. अमित शाह और जे.पी. नड्डा दोनों इस स्थिति पर नजर रखे हुए हैं. जानकारी के मुताबिक, बिहार चुनाव खत्म होने के बाद यूपी BJP की कोर कमेटी की बैठक बुलाई जा सकती है, जिसमें संगठनात्मक समन्वय पर चर्चा होगी.
राजनीति में संकेत कभी अकेले नहीं आते. दीपोत्सव में अनुपस्थिति, प्रचार सामग्री में नाम न होना, लोकसभा नतीजों के बाद उठे बयान, और मौर्य की बिहार में नई भूमिका, ये सब मिलकर एक बड़ी तस्वीर बनाते हैं. यह तस्वीर बताती है कि योगी सरकार के भीतर भले कोई खुला टकराव नहीं है, लेकिन सत्ता के भीतर असहजता जरूर मौजूद है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि BJP के लिए यह समय संवेदनशील है. वर्ष 2027 का विधानसभा चुनाव दूर नहीं है, और पार्टी चाहती है कि योगी की ‘सख्त लेकिन विकासशील’ छवि बनी रहे. लेकिन अगर शीर्ष नेतृत्व के बीच यह असहमति लंबी चली, तो यह पार्टी की संगठनात्मक ताकत को कमजोर कर सकती है.
फिलहाल, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पूरे विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की है. उनके करीबी मानते हैं कि “वे छोटी बातों में नहीं पड़ते और काम से जवाब देना पसंद करते हैं.” वहीं, मौर्य और पाठक दोनों सार्वजनिक मंचों पर संयम बरत रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक इसे “सम्मान की लड़ाई” के रूप में देखते हैं. कुल मिलाकर, यह कहना गलत नहीं होगा कि यूपी की BJP सरकार फिलहाल “तीन सिर वाली सत्ता” की तरह चल रही है, जहां हर सिर अपनी दिशा में देखता है, लेकिन शरीर एक ही है. दीपोत्सव का खाली मंच इस बार इसी असंतुलन का प्रतीक भी बना. अब देखना यह है कि आने वाले महीनों में पार्टी इस खाई को भर पाती है या यह दरार और गहरी होती जाती है.

