यूपी की राजनीति में 29 अक्टूबर का दिन कुछ पुराना-सा लगा. मायावती फिर एक बार उसी रास्ते पर लौटीं, जिसे उन्होंने तीन साल पहले खुद बंद किया था. “मुस्लिम समाज भाईचारा संगठन” वही संगठन, जो बहुजन समाज पार्टी (BSP) के दलित-मुस्लिम समीकरण की रीढ़ समझा जाता था, अब फिर से सक्रिय किया जा रहा है.
लखनऊ में पार्टी के मंडल संयोजकों के साथ बैठक में BSP सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की कि BSP अब मुसलमानों तक अपनी पहुंच दोबारा बनाएगी. पर सवाल यह है कि क्या यूपी का मुसलमान अब भी “हाथी” की सवारी करने को तैयार है?
वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव, दोनों BSP के लिए निराशाजनक साबित हुए हैं. विधानसभा में पार्टी सिर्फ एक सीट तक सिमट गई और लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई. दिलचस्प यह कि दोनों बार मायावती ने हार की जिम्मेदारी खुद नहीं, बल्कि मुसलमानों पर डाली. उनका तर्क था कि टिकट वितरण में अच्छे प्रतिनिधित्व के बावजूद मुस्लिम वोट पार्टी के साथ नहीं आए. अब, तीन साल बाद, वही मायावती मुसलमानों को “सीधा समर्थन” देने की अपील कर रही हैं.
मायावती की यह रणनीतिक वापसी 9 अक्टूबर को कांशीराम की पुण्यतिथि पर लखनऊ में हुए शक्ति प्रदर्शन के बाद सामने आई, जब लखनऊ में दलित समर्थकों की बड़ी भीड़ ने पार्टी की ताकत का संकेत दिया. अब बहनजी इस ताकत को मुस्लिम समर्थन से जोड़कर 2027 की चुनावी बिसात सजाना चाहती हैं.
क्यों टूटा था भरोसा
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जब मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से हाथ मिलाया था, तो ऐसा लगा कि दलित-मुस्लिम-ओबीसी गठजोड़ BJP के लिए चुनौती बनेगा. पर नतीजे उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहे. BSP को 10 सीटें तो मिलीं, पर उसका वोट शेयर समाजवादी पार्टी से काफी कम रहा. गठबंधन टूट गया और मायावती ने फिर अकेले चलने का फैसला किया. 2022 के चुनाव में उन्होंने 88 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, लेकिन सभी हार गए. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में, BSP ने राज्य में (19) और पूरे देश में (37) सबसे ज़्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतारे. उस चुनाव में BSP को महज 9.39 फीसदी वोट मिले, 1991 के बाद सबसे कम. इन नतीजों ने मायावती को मुस्लिम समुदाय से नाराज कर दिया. उन्होंने कहा था कि “मुस्लिम समुदाय BSP को समझने में नाकाम रहा है.” यह बयान मुस्लिम मतदाताओं में नाराजगी का कारण बना. कई विश्लेषक मानते हैं कि यही नाराजगी अब BSP की सबसे बड़ी चुनौती है.
नई पहल, पुराना फॉर्मूला
अब पार्टी फिर वही “भाईचारा” मॉडल अपनाने जा रही है, जो 2007 में उसकी जीत की बुनियाद बना था. तब मायावती ने दलितों के साथ ब्राह्मणों और मुसलमानों को जोड़कर “बहुजन प्लस सर्वजन” का फॉर्मूला बनाया था. अब वे दलित-मुस्लिम संयोजन की ओर लौट रही हैं. पार्टी ने हर मंडल में मुस्लिम समाज भाईचारा संगठन का पुनर्गठन शुरू किया है.
हर कमेटी में एक मुस्लिम और एक अनुसूचित जाति नेता को संयोजक बनाया गया है. उन्हें हर विधानसभा क्षेत्र में “भाईचारा बैठकें” करने और मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने का निर्देश मिला है. प्रगति रिपोर्ट सीधे टॉप लीडरशिप को सौंपी जाएगी. मायावती का दावा है कि मुसलमानों ने सपा और कांग्रेस को भावनात्मक और राजनीतिक समर्थन दिया, लेकिन दोनों पार्टियां BJP को रोकने में नाकाम रहीं.
BSP सुप्रीमो का कहना है, “इन पार्टियों ने दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के साथ धोखा किया है. अब मुसलमानों को सच्चाई समझनी चाहिए.” यह बयान साफ इशारा करता है कि BSP का फोकस समाजवादी पार्टी के वोट बैंक पर है. दरअसल, यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम आबादी राजनीतिक रूप से निर्णायक मानी जाती है. पश्चिमी यूपी के सात जिलों में मुसलमान 40 फीसीद से ज्यादा हैं. इन्हीं इलाकों में सपा को BJP से मुकाबला करने में थोड़ी कामयाबी मिली थी. अगर BSP इस आधार में सेंध लगा पाती है, तो राज्य का सारा चुनावी गणित बदल सकता है.
क्या मुसलमान भरोसा करेंगे?
लेकिन यहीं सबसे बड़ा सवाल है. क्या मायावती की यह अपील असर डालेगी? राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह काम आसान नहीं. बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सुशील पांडेय कहते हैं, “मायावती की समस्या यह है कि उन्होंने खुद मुसलमानों से दूरी बना ली थी. अब जब वह उन्हें दोबारा बुला रही हैं, तो भरोसे की कमी स्वाभाविक है. मुसलमानों ने BSP को 2022 और 2024 में मौका दिया था, लेकिन पार्टी कहीं नजर नहीं आई.”
कई मुसलमान यह मानते हैं कि BSP अब मैदान में गंभीर खिलाड़ी नहीं रही. संगठन कमजोर है, स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता निष्क्रिय हैं और पार्टी का कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं दिखता. हालांकि कुछ इलाकों में मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग यह भी मानता है कि BJP को हराने के लिए सपा का विकल्प ढूंढना जरूरी है, और BSP इस भूमिका में फिर उभर सकती है.
दलित और मुस्लिम समाज के बीच “भाईचारा” का नारा नया नहीं है. बाबा साहेब अंबेडकर से लेकर कांशीराम तक ने दोनों वर्गों की एकजुटता को सामाजिक न्याय की कुंजी माना. सुशील पांडेय बताते हैं “वर्ष 2007 में मायावती ने इसी सोच को राजनीतिक ताकत में बदला था. अब भी दलित आधार BSP के पास कुछ हद तक बचा हुआ है. कांशीराम रैली में उमड़ी भीड़ ने यही संकेत दिया. पर इस बार मुसलमानों को जोड़ना उतना आसान नहीं होगा. सपा के साथ दशकों से जुड़ी भावनात्मक पहचान को तोड़ने में वक्त लगेगा.”
मायावती ने बैठक में मुस्लिम कल्याण की अपनी सरकार की पुरानी योजनाओं का जिक्र किया-अल्पसंख्यक कल्याण विभाग का गठन, मदरसा शिक्षकों का मानदेय बढ़ाना, वक्फ संपत्तियों की सुरक्षा, मुस्लिम बहुल इलाकों में सड़क और बिजली जैसी योजनाएं. उनका तर्क है कि BSP के शासन में मुसलमान सुरक्षित और सम्मानित महसूस करते थे. पर नई पीढ़ी के मुस्लिम मतदाता के लिए वर्ष 2007 अब बीता हुआ दौर है. उन्हें आज की राजनीति में दिखने वाला चेहरा चाहिए, जो सड़कों पर भी सक्रिय हो. BSP के पास न आंदोलन है, न कोई जोशीला नेता जो युवाओं को आकर्षित करे.
BSP की राजनीतिक स्थिति
वर्ष 2007 में BSP ने 403 में से 206 सीटें जीतकर अकेले सरकार बनाई थी. लेकिन 2012 से उसका ग्राफ लगातार गिरता गया. 2012 में वह 80 सीटों पर सिमटी, 2017 में 19 पर और 2022 में सिर्फ एक सीट बची. वोट शेयर भी 30 से घटकर 12 फीसदी तक आ गया. लोकसभा पर भी गिरावट साफ दिखती है. वर्ष 2009 में 21 सीटें, 2014 में शून्य, 2019 में गठबंधन के दम पर 10 सीटें, और 2024 में फिर एक भी नहीं. ऐसे में मायावती के सामने चुनौती सिर्फ मुस्लिम वोट नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बचाने की भी है.
अब अगर BSP मुस्लिम वोटरों को यह समझाने में सफल होती है कि सपा और कांग्रेस “जीतने लायक नहीं” हैं, तो कुछ झुकाव आ सकता है. लेकिन इसके लिए पार्टी को सिर्फ बयानबाजी से नहीं, बल्कि जमीनी उपस्थिति से भरोसा बनाना होगा. BSP की इस नई पहल से इतना तो साफ है कि मायावती 2027 को लेकर अभी भी गंभीर हैं. उन्होंने पार्टी को दो बड़े लक्ष्यों पर केंद्रित किया है, दलित आधार को मजबूत रखना और मुस्लिम मतदाता तक भरोसे की डोर फिर से बुनना.
राजनीतिक दृष्टि से यह कदम समाजवादी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती हो सकता है. अगर BSP मुस्लिम वोट बैंक में 5-7 फीसदी की सेंध भी लगा लेती है, तो कई सीटों पर समीकरण बदल सकते हैं. BJP के लिए भी यह समीकरण दिलचस्प रहेगा, क्योंकि त्रिकोणीय मुकाबले में उसे अप्रत्यक्ष लाभ हो सकता है. इससे BSP पर ही BJP की मददगार पार्टी होने का आरोप और मजबूत होगा. ऐसे में मायावती की चुनौती और भी बढ़ गई है.

