लखीमपुर खीरी जिले के मुस्तफाबाद गांव में 27 अक्टूबर को 'स्मृति प्रकटोत्सव मेला 2025' में शिरकत करने जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मंच पर आए, तो उन्होंने वहां मौजूद भीड़ से पूछा, “यहां कितनी मुस्लिम आबादी है?” जवाब आया, “एक भी नहीं.” कुछ सेकंड के ठहराव के बाद उन्होंने कहा, “तो फिर नाम क्यों मुस्तफाबाद? अब इसका नाम होगा कबीर धाम.”
और इसी के साथ एक और जगह का नाम बदलने की प्रक्रिया शुरू हो गई. यह सिर्फ एक प्रशासनिक घोषणा नहीं थी. यह वक्तव्य उत्तर प्रदेश की राजनीति में ‘नामकरण’ को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा का ताजा उदाहरण था. योगी सरकार के सात साल में दर्जनों जगहों, संस्थानों और सड़कों के नाम बदले जा चुके हैं.
हर नाम बदलाव के पीछे सांस्कृतिक पुनरुद्धार, धार्मिक अस्मिता और राजनीतिक संदेश छिपा है. योगी आदित्यनाथ के सीएम रहते हुए, कई जगहों के नाम आधिकारिक तौर पर बदले गए हैं. दिसंबर 2018 में इलाहाबाद शहर का नाम आधिकारिक तौर पर बदलकर प्रयागराज कर दिया गया. यह बदलाव यूपी सरकार की शहर के पुराने नाम को वापस लाने की इच्छा के कारण हुआ, जो पवित्र नदियों गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम से इसके जुड़ाव को दिखाता है.
उसी साल, यूपी कैबिनेट ने फैजाबाद जिले का नाम बदलकर अयोध्या जिला कर दिया. केंद्र से मंज़ूरी मिलने के बाद मुगलसराय शहर और उसके रेलवे जंक्शन का नाम भी बदलकर क्रमशः पंडित दीन दयाल उपाध्याय नगर और पंडित दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया. इस साल जून में, आदित्यनाथ ने अंबेडकर नगर जिले में अकबरपुर बस स्टैंड का नाम बदलकर 'श्रवण धाम बस स्टैंड' करने की घोषणा की थी, यह बताते हुए कि यह कदम "रामायण के श्रवण कुमार की सांस्कृतिक और पौराणिक विरासत को श्रद्धांजलि है".
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि “धर्मनिरपेक्षता की आड़ में विरासत मिटाने का दौर खत्म हो गया है.” उनके मुताबिक, इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अयोध्या नाम देना “आस्था और इतिहास की पुनर्स्थापना” है लेकिन विपक्ष इसे “वोट की राजनीति” बताता है. सपा प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं, “जब बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की परेशानी चरम पर है, तब नाम बदलने की राजनीति सिर्फ ध्यान भटकाने का तरीका है.” वहीं BJP नेता डा. चंद्रमोहन का तर्क है, “हम अपने इतिहास और सभ्यता को पहचान देने का काम कर रहे हैं. जो नाम विदेशी हुकूमतों ने थोपे थे, उन्हें हटाकर असली पहचान लौटा रहे हैं.”
नामकरण की राजनीति नई नहीं. मायावती के कार्यकाल में कई जिलों के नाम बदले गए थे, अमेठी को छत्रपति शाहूजी महाराज नगर, हाथरस को महामायानगर, शामली को प्रभुद्ध नगर, हापुड़ को पंचशील नगर और कानपुर देहात को रमाबाई नगर बनाया गया था. लखनऊ की किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी को छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय नाम दिया गया.
वर्ष 2012 में अखिलेश यादव की सपा सरकार आई तो इन नामों को फिर बदला गया. उनका तर्क था कि BSP सरकार ने नाम बदलने में “वर्गीय पक्षपात” किया था. अखिलेश ने खुद भी अपनी राजनीति के हिसाब से कुछ नामों को बदला. यानी, हर सरकार ने अपने वैचारिक या सामाजिक एजेंडे के हिसाब से नामों की राजनीति की है.
नामकरण की राजनीति का नया रूप
योगी आदित्यनाथ के दौर में यह राजनीति एक नए फेज में दाखिल हुई. अब नाम बदलना सिर्फ पहचान का नहीं, विचारधारा का सवाल बन गया है. प्रयागराज, अयोध्या, मुगलसराय से लेकर शाहजहांपुर की जलालाबाद तहसील तक, हर बदलाव के पीछे हिंदू सांस्कृतिक प्रतीकों की पुनर्स्थापना की सोच दिखती है. राजनीतिक विश्लेषक आजाद प्रताप सिंह कहते हैं, “नामकरण योगी सरकार के लिए केवल सांस्कृतिक नहीं, वैचारिक एजेंडा है. यह उस नैरेटिव को मजबूत करता है जिसमें BJP ‘हिंदू अस्मिता’ को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रखना चाहती है.”
इसी साल जून में योगी सरकार ने पांच इंजीनियरिंग कॉलेजों के नाम बदले. प्रतापगढ़ का कॉलेज अब बाबा साहब अंबेडकर के नाम से जाना जाएगा, मिर्जापुर का सम्राट अशोक, बस्ती का सरदार पटेल, गोण्डा का मां पाटेश्वरी देवी और मैनपुरी का लोकमाता देवी अहिल्या बाई होल्कर के नाम से. सरकार का दावा था कि यह फैसला “महापुरुषों की प्रेरणा से युवाओं को जोड़ने” के लिए है. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे “वोट बैंक की रेखाओं को संतुलित करने” का प्रयास मानते हैं. लखनऊ विश्वविद्यालय से जुड़े राजेश्वर कुमार कहते हैं, “यह कदम BJP की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा है. आंबेडकर, पटेल और देवी-देवियों के नाम एक साथ रखकर BJP दलित-पिछड़ा और सवर्ण भावनाओं को एक फ्रेम में लाने की कोशिश कर रही है.”
सांस्कृतिक विरासत या वोट की गिनती?
योगी आदित्यनाथ के हालिया भाषणों में यह संदेश लगातार दोहराया गया है कि “धर्मनिरपेक्षता की आड़ में विरासत को मिटाने” की प्रवृत्ति खत्म होनी चाहिए. लेकिन कई समाजशास्त्री इसे पहचान की राजनीति मानते हैं. राजेश्वर कुमार कहते हैं, “नाम बदलने से न इतिहास बदलता है, न समाज की समस्याएं खत्म होती हैं. यह राजनीतिक संदेश देने का तरीका है, जिसमें भावनाओं का उपयोग करके वोटों का समीकरण साधा जाता है.”
इलाहाबाद से प्रयागराज, फैजाबाद से अयोध्या और मुगलसराय से दीनदयाल उपाध्याय नगर तक, हर बदलाव का एक राजनीतिक संदेश रहा है. अब अलीगढ़ का नाम हरिगढ़, मुजफ्फरनगर का लक्ष्मीनगर और फिरोजाबाद का चंद्रनगर करने के प्रस्ताव चर्चा में हैं. शाहजहांपुर की जलालाबाद तहसील का नाम “परशुरामपुरी” करने का प्रस्ताव पहले ही स्वीकृत हो चुका है. BJP समर्थक इसे सांस्कृतिक गौरव का पुनर्निर्माण मानते हैं, जबकि विपक्ष इसे “धार्मिक ध्रुवीकरण का औजार” बताता है.
वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले योगी सरकार और विपक्ष, दोनों अपने प्रतीकों और नामों के ज़रिए नए भावनात्मक समीकरण गढ़ रहे हैं. BJP ‘आस्था’ और ‘विरासत’ को अपना नैरेटिव बना रही है, जबकि सपा और बीएसपी ‘सम्मान’ और ‘समानता’ के नाम पर अपनी जमीनी पकड़ मजबूत करना चाहती हैं. राजनीतिक विश्लेषक आजाद कुमार सिंह कहते हैं, “नामकरण अब सांस्कृतिक नहीं, चुनावी निवेश बन चुका है. हर नाम बदले जाने से एक प्रतीक जुड़ता है और वह वोटों में बदलने की क्षमता रखता है.”
उत्तर प्रदेश की राजनीति में नामकरण अब एक स्थायी रणनीति बन चुका है. यह पहचान, विचारधारा और वोट की राजनीति- तीनों को एक साथ जोड़ता है. आने वाले समय में जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे, नए नामकरणों की घोषणाएं भी बढ़ेंगी. भले ही बहस इतिहास बनाम आधुनिकता की हो, लेकिन नतीजा वही रहेगा, नामों के ज़रिए मतदाताओं की भावनाओं को साधने की कोशिश. नाम बदलने की राजनीति अब उत्तर प्रदेश के सत्ता समीकरण का स्थायी हिस्सा है. हर नया नाम अब सिर्फ एक पहचान नहीं, बल्कि चुनावी बयान बन चुका है.

