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उत्तर प्रदेश : योगी के करीबी अफसर क्यों हैं निशाने पर?

अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ के विशेष सलाहकार अवनीश अवस्थी को हाल ही में निशाने लिया है लेकिन उनके अलावा सीएम के और भी करीबी अफसर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक लड़ाई के केंद्र में आ रहे हैं

Uttar Pradesh, CM Yogi Adityanath meeting
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अधिकारियों के साथ मीटिंग करते हुए (फाइल फोटो)
अपडेटेड 8 सितंबर , 2025

उत्तर प्रदेश की नौकरशाही इन दिनों राजनीतिक बहस के केंद्र में है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भरोसेमंद माने जाने वाले कई अधिकारी हाल के महीनों में विवादों में घिरे हैं. इनमें सबसे प्रमुख नाम पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव (एसीएस) अवनीश अवस्थी, प्रमुख सचिव संजय प्रसाद और पूर्व सूचना निदेशक शिशिर के हैं. तीनों मामले भले ही अलग-अलग हों, लेकिन इनका सूत्र एक ही है, सत्ता और प्रशासन का रिश्ता, जो कभी मजबूत दिखता है और कभी राजनीति की खींचतान में कमजोर पड़ जाता है. सवाल यह भी है कि क्या ये विवाद सिर्फ अफसरशाही तक सीमित हैं या इनके पीछे राजनीतिक रणनीति ज्यादा अहम है.

सबसे ज्यादा चर्चा अखिलेश यादव और अवनीश अवस्थी को लेकर है. समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 5 सितंबर 2025 को लखनऊ में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक गंभीर आरोप लगाया. उन्होंने दावा किया कि ‘टोंटी चोरी’ का विवाद पूर्व आईएएस अधिकारी अवनीश अवस्थी की साजिश थी. अखिलेश ने कहा, “मैं उसे कभी नहीं भूल सकता, टोंटी चोरी का मामला अवनीश अवस्थी ने कराया था.” 

यह विवाद 2018 का है, जब अखिलेश यादव ने विक्रमादित्य मार्ग पर बतौर पूर्व मुख्यमंत्री आवंटित आवास खाली किया था. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में यह आरोप लगाया गया था कि आवास से नल की टोंटियां और टाइल्स तक चोरी हो गई हैं. बीजेपी ने इसे लेकर सपा पर निशाना साधा था. हालांकि, अखिलेश ने इस आरोप को सिरे से नकारते हुए इसे राजनीतिक साजिश बताया. उन्होंने दावा किया कि इस मामले में एक पत्रकार ने स्टिंग ऑपरेशन किया था, जिसमें अवनीश अवस्थी और मुख्यमंत्री योगी के पूर्व ओएसडी अभिषेक कौशिक का नाम सामने आया था. 

अखिलेय यादव के यह बयान सामान्य आरोप से कहीं बड़ा था. पहली बार किसी बड़े विपक्षी नेता ने सीधे प्रदेश के सबसे ताकतवर अफसर का नाम लेकर उसपर वार किया. अवनीश अवस्थी पर अखिलेश यादव के हमले के कुछ ही देर बाद राजनीति गरमा गई. अवनीश अवस्थी के समर्थन में कुछ ब्राह्मण संगठन आ खड़े हुए. मेरठ के बीजेपी नेता और ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि सुनील भराला ने कहा कि अखिलेश ने पूरे ब्राह्मण समाज का अपमान किया है. भराला के मुताबिक अवस्थी ईमानदार और मेहनती अफसर रहे हैं, जिन्हें निशाना बनाना राजनीतिक हताशा का संकेत है. इस तरह मामला अब व्यक्तिगत आरोपों से निकलकर सामाजिक अस्मिता तक पहुंच गया है.

आखिर अवनीश अवस्थी इतने अहम क्यों हैं कि उन पर हमला, सीधे योगी सरकार पर हमला माना जाता है? इसका जवाब पिछले सात सालों के उनके प्रशासनिक अनुभव में है. 1987 बैच के आईएएस अफसर अवस्थी योगी सरकार के पहले कार्यकाल में गृह, सूचना और पर्यटन जैसे बड़े विभागों की जिम्मेदारी संभालते थे. मुख्यमंत्री की ज्यादातर अहम फाइलें उन्हीं के जरिए आगे बढ़ती थीं. यही वजह थी कि उन्हें ‘सुपर सीएम’ तक कहा गया. राजनीतिक विश्लेषक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के सहायक प्रोफेसर विनम्र वीर सिंह कहते हैं, “योगी आदित्यनाथ का प्रशासनिक मॉडल अफसर-केंद्रित माना जाता है. वे भरोसेमंद टीम के साथ काम करना पसंद करते हैं और अवस्थी उस टीम के सबसे अहम सदस्य थे. कुंभ का आयोजन हो, इन्वेस्टर्स समिट या धार्मिक पर्यटन का बड़ा एजेंडा- हर जगह अवस्थी योगी के दाहिने हाथ साबित हुए.” 

31 अगस्त 2022 को सेवानिवृत्ति के बाद भी योगी ने अवनीश अवस्थी को विशेष सलाहकार बनाकर यह साफ कर दिया कि उनका अनुभव और नेटवर्क सरकार के लिए जरूरी है. इसलिए जब विपक्ष अवस्थी पर सवाल उठाता है, तो निशाना दरअसल मुख्यमंत्री की शैली और उनके फैसलों पर होता है. विनम्र वीर सिंह कहते हैं, “यह विवाद इसलिए भी अहम है क्योंकि यूपी की राजनीति में अफसरों की भूमिका हमेशा से चर्चा में रही है, लेकिन अवस्थी का मामला अलग है. वे सिर्फ एक अफसर नहीं, बल्कि योगी के प्रशासनिक ढांचे की धुरी रहे हैं. अखिलेश का हमला इसी ढांचे पर हमला है.”

दूसरी ओर, 2 सितंबर को बाराबंकी के श्री रामस्वरूप मेमोरियल यूनिवर्सिटी के बाहर एलएलबी कोर्स की मान्यता की मांग को लेकर छात्रों ने आंदोलन शुरू किया. छात्रों पर पुलिस के लाठीचार्ज की गूंज लखनऊ में सत्ता के गलियारों तक गूंजने लगी. इस मामले ने छात्र राजनीति से आगे बढ़कर सीधे सत्ता और नौकरशाही की साख को घेर लिया. आंदोलन की अगुवाई “अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने की, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का छात्र संगठन है. रामस्वरूप यूनिवर्सिटी के गेट पर प्रदर्शन करने वाले छात्रों में बहुतायत एबीवीपी के कार्यकर्ता भी थे. जैसे-जैसे विरोध बढ़ा, पुलिस ने प्रदर्शनकारी छात्रों पर लाठीचार्ज किया. तस्वीरें और वीडियो वायरल हुए तो विवाद और गहरा गया. 

छात्रों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में देरी की और न्याय की मांग करने वालों को दबाने की कोशिश की. एबीवीपी ने आरोप लगाया कि विश्वविद्यालय प्रशासन को मुख्यमंत्री कार्यालय से बचाया जा रहा है और इसके पीछे 1995 बैच के आइएएस अधिकारी और प्रमुख सचिव संजय प्रसाद की भूमिका है. एबीवीपी के क्षेत्रीय संगठन मंत्री घनश्याम शाही ने प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री, गृह और सूचना विभाग संजय प्रसाद का नाम लेकर उनपर गंभीर आरोप लगा दिए.  

संगठन ने कहा कि शिकायतों को दबाने और कार्रवाई रोकने का काम मुख्यमंत्री कार्यालय से हो रहा है. ये आरोप साधारण नहीं थे, क्योंकि पहली बार संघ या दूसरी तरह से कहें तो बीजेपी का ही छात्र संगठन मुख्यमंत्री कार्यालय की कार्यशैली पर सवाल उठा रहा था. लाठीचार्ज ने विपक्ष को मौका दिया. सपा और कांग्रेस ने इसे लोकतंत्र की आवाज दबाने की कोशिश बताया. एबीवीपी ने भी बयान जारी कर पुलिस कार्रवाई को अस्वीकार्य बताया और नौकरशाही पर मनमानी का आरोप लगाया.

संगठन का गुस्सा इसलिए भी खास था क्योंकि उसने हमेशा सरकार की नीतियों का समर्थन किया, लेकिन इस बार खुद को ठगा हुआ महसूस किया. बाराबंकी के एक पुलिस अधिकारी ने सफाई दी, “छात्रों का प्रदर्शन अचानक हिंसक हो गया था. पुलिस पर पथराव हुआ और यातायात बाधित हुआ. ऐसे में हल्का बल प्रयोग करना पड़ा.” बीजेपी प्रवक्ता मनीष शुक्ल कहते हैं, “संजय प्रसाद पर लगाए जा रहे सभी आरोप निराधार हैं. मुख्यमंत्री कार्यालय से किसी को बचाने का निर्देश नहीं दिया गया है. विपक्ष सिर्फ अफवाह फैला रहा है.”

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि संजय प्रसाद पर लगे आरोपों ने यह संदेश दिया कि मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) पर अत्यधिक केंद्रीकरण हो गया है. फाइलों से लेकर शिकायतों तक, सबकुछ सीएमओ से तय होता है और मंत्री व विभाग की अहमियत नहीं रह जाती. रामस्वरूप विश्वविद्यालय प्रकरण ने यही छवि मजबूत की कि प्रशासन की चुप्पी और पुलिस की सख्ती बिना बड़े संरक्षण के संभव नहीं थी. बीजेपी के लिए यह मामला असहज था क्योंकि इसमें विपक्ष ही नहीं, बल्कि उसका अपना संगठन भी सरकार की आलोचना कर रहा था. पार्टी के भीतर कई नेताओं ने माना कि इस विवाद ने छात्रों और युवा मतदाताओं के बीच गलत संदेश दिया. 

तीसरा प्रकरण वर्ष 2012 बैच के आइएएस अधिकारी शिशिर का रहा, दिसंबर 2018 में सूचना निदेशक बनने वाले शि‍शिर छह साल से अधि‍क समय तक इस पद पर रहे. इस वर्ष की शुरुआत में अपना दल (एस) के नेता और मंत्री आशीष पटेल ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया कि शिशिर सरकार की छवि खराब कर रहे हैं और योजनाओं का सही प्रचार नहीं कर रहे. 

यह बयान बीजेपी के सहयोगी दल की नाराजगी का संकेत माना गया. विवाद इतना बढ़ा कि अप्रैल में शिशिर को सूचना निदेशक के पद से हटा दिया गया. उनकी जगह नए अधिकारी की तैनाती कर दी गई. माना जा रहा है मुख्यमंत्री योगी ने यह कदम ‘दिल्ली’ के दबाव में उठाया था. यह कदम इस बात का प्रतीक बना कि बीजेपी अपने सहयोगी दलों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती और जरूरत पड़ने पर नौकरशाही में तुरंत बदलाव करने से भी पीछे नहीं हटेगी.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि योगी आदित्यनाथ की शैली में नौकरशाही की भूमिका बेहद अहम है. वे अपने भरोसेमंद अफसरों के जरिए योजनाओं को लागू करते हैं और उन्हें खुली छूट भी देते हैं. यही वजह है कि विपक्ष जब सरकार पर हमला करता है तो उसका सीधा निशाना इन अफसरों पर होता है. बीजेपी की रणनीति भी साफ है, जहां अफसर की वजह से विपक्ष को हमला करने का मौका मिले, वहां मुख्यमंत्री सीधे मोर्चा लेते हैं,  और जहां सहयोगियों की नाराजगी बढ़े, वहां तुरंत बदलाव कर दिया जाता है. 

एबीवीपी प्रकरण में भी मुख्यमंत्री योगी ने स्वयं डैमेज कंट्रोल की कमान संभाली. जल्द ही मुख्यमंत्री योगी एबीवीपी कार्यकर्ताओं से मुलाकात कर गिले-शिकवे दूर कर सकते हैं. यूपी की हालिया घटनाओं से यह साफ झलकता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में अफसरशाही महज प्रशासनिक ढांचे का हिस्सा नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरणों को साधने का उपकरण भी है. मुख्यमंत्री योगी को पता है कि 2027 के विधानसभा चुनाव की राह में न तो विपक्ष को हथियार देना है और न ही सहयोगियों को नाराज करना ऐसे में नौकरशाही पर कसता शिकंजा और तुरत-फुरत के बदलाव आने वाले महीनों में और भी अहम हो सकते हैं.

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