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आलू पैदा कर क्यों फंस गए यूपी के किसान?

उत्तर प्रदेश में किसानों ने पिछले साल जिस आलू को 20-22 रुपए किलो तक के भाव पर बेचा था, इस बार उन्हें उसकी आधी कीमत भी नहीं मिल पा रही

bengal potato farmers issue
आलू बेल्ट के गढ़ फर्रुखाबाद में हालात सबसे ज्यादा खराब हैं
अपडेटेड 22 दिसंबर , 2025

फर्रुखाबाद की सातनपुर मंडी में सुबह से ट्रकों की कतार लगी है. नए आलू की आवक तेज है, लेकिन चेहरे उतने ही उतरे हुए. शुक्रवार, 19 दिसंबर को मंडी में करीब 150 ट्रक आलू आया. भाव 581 से 701 रुपये प्रति क्विंटल. किसान हिसाब लगाते हैं और चुपचाप ट्रॉली खाली कर देते हैं. कईयों के लिए यह भाव सिर्फ नुकसान की पुष्टि है. लागत निकालना तो दूर, सिंचाई का खर्च भी नहीं निकल रहा. 

यही तस्वीर आगरा, फिरोजाबाद, कन्नौज, हाथरस और छिबरामऊ की मंडियों में भी है. प्रदेश में नए आलू के बाजार में आते ही दाम भरभरा गए हैं. थोक भाव कई जगह एक हजार रुपये प्रति क्विंटल से नीचे चला गया है. फर्रुखाबाद में सफेद आलू 900, हाथरस में 840, छिबरामऊ में 940 और कन्नौज में 950 रुपये प्रति क्विंटल तक बिक रहा है. हालांकि यह गिरावट अचानक नहीं है. 

इसके पीछे वजहें साफ हैं. एक तरफ प्रदेश में रिकॉर्ड पैदावार, दूसरी तरफ पड़ोसी राज्यों से मांग में भारी कमी और तीसरी ओर कोल्ड स्टोरेज में अब भी बचा पुराना आलू. इन तीनों ने मिलकर बाजार को दबाव में ला दिया है.

रिकॉर्ड पैदावार, लेकिन बाजार नहीं

प्रदेश में 2024-25 के दौरान करीब 245 लाख मीट्रिक टन आलू का उत्पादन हुआ. इसमें से 2207 कोल्ड स्टोरेज में लगभग 150 लाख मीट्रिक टन आलू का भंडारण किया गया. आम तौर पर अक्टूबर के आखिर तक कोल्ड स्टोर खाली हो जाते हैं, लेकिन इस बार 30 नवंबर तक की छूट दी गई. इसके बावजूद आगरा, फिरोजाबाद, फर्रुखाबाद और कन्नौज जैसे जिलों में करीब 10 फीसदी आलू अब भी स्टोर में पड़ा है. इसी बीच नई फसल मंडियों में आ चुकी है. नतीजा, भाव धड़ाम. 

हालात को और खराब करने वाली बात यह है कि इस साल सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पंजाब, पश्चिम बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश में भी आलू की बंपर पैदावार हुई है. आम तौर पर यूपी का आलू पश्चिम बंगाल, असम और नेपाल तक जाता है. इस बार वहां से मांग बेहद कमजोर रही. आगरा से पाकिस्तान को होने वाला निर्यात भी पूरी तरह ठप है. जिन किसानों ने बेहतर दाम की उम्मीद में आलू कोल्ड स्टोर में रखा था, वे सबसे ज्यादा फंसे हैं. नवंबर 2024 में सफेद आलू औसतन 2122 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा था. नवंबर 2025 में यही भाव गिरकर 1274 रुपये प्रति क्विंटल रह गया. अप्रैल-मई 2025 में थोक भाव 1157 से 1173 रुपये के आसपास था. कोल्ड स्टोरेज का खर्च जोड़ें तो तस्वीर और साफ हो जाती है. 

कोल्ड स्टोरेज का भाड़ा करीब 250 रुपये प्रति क्विंटल, बोरा 100 रुपये और पल्लेदारी और खेत से स्टोर तक ढुलाई लगभग 100 रुपये. यानी आलू की लागत 1500 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर पहुंच गई. अब जब बाजार भाव 900 या 1000 रुपये है, तो घाटा तय है. फिरोजाबाद के प्रगतिशील किसान अरुण सिंह कहते हैं, “जिन किसानों ने बीज खरीदकर बुवाई की, उन्हें दोहरा घाटा हो रहा है. बुवाई के वक्त बीज ढाई से तीन हजार रुपये प्रति क्विंटल था. खेती, सिंचाई, खोदाई और स्टोर तक पहुंचाने में खर्च अलग. अब हजार रुपये से कम में बेचना मजबूरी है.”

फर्रुखाबाद : आलू बेल्ट की सबसे बड़ी चोट

आलू बेल्ट के केंद्र फर्रुखाबाद में हालात सबसे ज्यादा गंभीर हैं. यहां नए आलू का भाव 581 से 701 रुपये प्रति क्विंटल तक आ गया है. वहीं शीतगृह में पड़ा पुराना आलू 250 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से खरीदा जा रहा है. व्यापारी सुधीर शुक्ला बताते हैं कि उन्होंने पुखराज आलू 250 रुपये क्विंटल के भाव से खरीदा है. यह भाव किसानों के लिए आलू फेंकने जैसा ही है. मंडी सचिव अनूप कुमार दीक्षित मानते हैं कि बाहर की मंडियों से अपेक्षित मांग नहीं आ रही. आवक बढ़ी है, लेकिन खरीदार कम हैं. 

यहां किसानों की पीड़ा सिर्फ भाव तक सीमित नहीं है. पिछले साल दिसंबर के अंतिम सप्ताह में नया आलू 1700 से 1800 रुपये क्विंटल तक बिक रहा था. तब कई किसानों ने कोल्ड स्टोरेज में रखने के बजाय सीधे बिक्री की. कोल्ड स्टोरेज खाली रह गए तो संचालकों ने पंजाब आदि से आलू खरीदकर भंडारण किया. बाद में जब वही आलू निकाला गया तो भाव गिर गए और नुकसान हुआ. इस साल स्थिति उलट है. भाव पहले ही नीचे हैं. किसान अभी से कोल्ड स्टोरेज के चक्कर लगा रहे हैं. नतीजतन कोल्ड स्टोरेज मालिक संतुष्ट हैं कि इस बार भंडारण के लिए उन्हें आलू खरीदना नहीं पड़ेगा.

लागत बनाम पैदावार का गणित

कन्नौज के किसान अमित पाल बताते हैं, “आलू की पैदावार में प्रति बीघा 10 से 11 हजार रुपये की लागत आती है. अगैती फसल में एक बीघा से 14 से 15 पैकेट ही निकल रहा है. भाव कम है, नुकसान ज्यादा.” दूसरी ओर एक अन्य आलू किसान संजय शर्मा कहते हैं, “चार बार सिंचाई हो चुकी है. अभी के भाव में सिंचाई का खर्च भी नहीं निकल रहा. मजबूरी में अब गेहूं की तैयारी कर रहे हैं.” एक बीघा में जी-फोर किस्म की बोआई पर करीब 45 हजार रुपये और गोला किस्म पर 38 से 40 हजार रुपये तक खर्च आ रहा है. औसतन पैदावार 65 से 70 क्विंटल प्रति बीघा होती है. मौजूदा भाव में यह गणित किसानों के खिलाफ जा रहा है. हालांकि घाटे की मार सिर्फ किसानों पर नहीं है. कई किसान कोल्ड स्टोरेज आलू रखने गए तो थे, अब वे आलू लेने नहीं पहुंच रहे. किराया वसूल न होने और जगह खाली कराने की मजबूरी में कई जगह आलू फेंकने की नौबत आ गई है. 

कोल्ड स्टोरेज संचालकों के सामने बिजली, मजदूरी और रखरखाव का खर्च है, लेकिन आमदनी अटकी हुई है. जौनपुर के प्रगतिशील किसान चंद्रशेखर यादव मानते हैं कि असली समस्या संरचनात्मक है. वे बताते हैं, “पूर्वांचल में आलू प्रसंस्करण इकाइयां नहीं हैं. खपत सिर्फ खाने तक सीमित है. अगर प्रोसेसिंग यूनिट लगें तो आलू के साथ टमाटर और शकरकंद की खेती भी बढ़ेगी. उद्यान विभाग को खपत के हिसाब से रणनीति बनानी चाहिए.” प्रदेश में आलू चिप्स, फ्रेंच फ्राइज और स्टार्च जैसी इकाइयां सीमित हैं. जब ताजा खपत से ज्यादा उत्पादन होता है तो कीमतें गिरना तय है.

सरकार की कवायद, लेकिन राहत दूर

उद्यान विभाग ने सभी जिला उद्यान अधिकारियों को कोल्ड स्टोरेज का निरीक्षण कर उपलब्धता बताने के निर्देश दिए हैं. कार्यवाहक उप निदेशक (आलू) डॉ. राजीव वर्मा कहते हैं कि जिला प्रशासन के साथ मिलकर आंकलन किया जाएगा और उसी आधार पर आगे की रणनीति बनेगी. लेकिन किसान सवाल पूछ रहे हैं कि जब तक यह रणनीति बनेगी, तब तक उनका नुकसान कौन भरेगा. किसानों की एकजुट मांग है कि आलू के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाए या सरकारी खरीद की व्यवस्था हो. उनका तर्क सीधा है. जब गेहूं, धान जैसी फसलों को सुरक्षा मिल सकती है, तो आलू जैसी नकदी फसल को क्यों नहीं. 

कई किसान अब नुकसान की भरपाई के लिए टमाटर, खीरा, खरबूजा और बैगन जैसी सब्जियों की ओर देख रहे हैं. कुछ किसान आलू के साथ टमाटर की खेती कर जोखिम बांटने की कोशिश कर रहे हैं. विडंबना यह है कि घाटा उठाने के बावजूद किसान फिर आलू पर दांव लगा चुके हैं. कई इलाकों में पहली सिंचाई हो चुकी है. डर बस यही है कि अगले साल कहानी फिर न दोहराई जाए.

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