इलाहाबाद हाईकोर्ट में फर्रुखाबाद की एसपी आरती सिंह को अदालत में तब तक बैठाए रखा गया, जब तक पुलिस ने हिरासत में लिए गए वकील रिहा नहीं किया. कोर्ट का यह सख्त कदम उस गहरी नाराजगी का संकेत है, जो पिछले कुछ समय में उत्तर प्रदेश की नौकरशाही के रवैए को लेकर न्यायपालिका के भीतर बढ़ती जा रही है.
कोर्ट ने साफ कहा कि पुलिस का यह आचरण न्यायिक प्रक्रिया में सीधा दखल है. यह मामला सिर्फ एक जिले की गलती नहीं बल्कि उस पूरे सिस्टम का आईना है, जिसमें अफसर अपनी शक्ति को जवाबदेही से ऊपर समझने लगे हैं. यह मामला फर्रुखाबाद की प्रीति यादव की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से जुड़ा है.
उन्होंने आरोप लगाया था कि आठ सितंबर की रात उनके घर पुलिसकर्मी घुस आए और परिवार के दो लोगों को बिना किसी आदेश के उठा ले गए. पुलिस ने उनसे दबाव डालकर लिखवाया कि उन्होंने कोई याचिका दायर नहीं की. जब यह तथ्य कोर्ट के सामने आया तो जस्टिस जेजे मुनीर और जस्टिस संजीव कुमार की खंडपीठ ने एसपी आरती सिंह को तलब किया.
सुनवाई के दौरान प्रीति ने कोर्ट में कहा कि उन्होंने ही याचिका दायर की थी और पुलिस ने उन्हें धमकाया था. कोर्ट ने इस पर कहा कि यह न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने जैसा है. हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेंद्र नाथ सिंह ने बताया, "पुलिस को आशंका थी कि फर्रुखाबाद के वकील अवधेश मिश्रा ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल कराई है. इससे नाराज पुलिस कर्मियों ने 11 अक्तूबर को अधिवक्ता के घर पर धावा बोल दिया और तोड़फोड़ की. इस संबंध में कोर्ट में अर्जी पेश की गई. इससे नाराज पुलिस ने अवधेश मिश्र को 14 अक्टूबर को सुनवाई के बाद कोर्ट के बाहर से गैरकानूनी तरीके से हिरासत में ले लिया.”
सुनवाई के बाद हाईकोर्ट को बताया गया कि एसपी के आदेश पर अदालत के बाहर से अधिवक्ता अवधेश मिश्र व उनके बेटे कृष्णा मिश्र को पुलिस ने हिरासत में ले लिया और उन्हें फर्रुखाबाद ले जा रही है. इस पर कोर्ट ने नाराजगी जताई और एसपी आरती सिंह एवं उनकी टीम को तलब किया. एसपी को फटकार लगाते हुए कोर्ट ने आदेश दिया कि जब तक अधिवक्ता अवधेश मिश्र रिहा नहीं होते, वे कोर्ट में ही रहें. बाद में राज्य सरकार की अपील पर उन्हें राहत तो मिली लेकिन संदेश साफ था कि अदालत अब मनमानी नहीं सहेगी.
दरअसल फर्रुखाबाद पुलिस का विवादों से पुराना नाता है. इस जिले में कई बार पुलिस की गलत कार्यप्रणाली को लेकर कोर्ट सख्त टिप्पणियां कर चुका है. जिले में कई उदाहरण बताते हैं कि निचले स्तर पर पुलिस का मनमाना रवैया न्यायिक व्यवस्था को लगातार चुनौती दे रहा है. यह प्रवृत्ति सिर्फ फर्रुखाबाद तक सीमित नहीं है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले दो वर्षों में कई बार अफसरों पर कड़ी कार्रवाई की है. 20 दिसंबर 2024 को विशेष सचिव समाज कल्याण रजनीश चंद्रा को आदेश की अवमानना पर कोर्ट उठने तक हिरासत में रखा गया और उन पर जुर्माना भी लगाया गया. यह मामला सहायक अध्यापिका सुमन देवी को वेतन भुगतान न करने से जुड़ा था. अदालत ने आदेश दिया था कि उनका बकाया वेतन दिया जाए, लेकिन विभाग ने आदेश का पालन नहीं किया.
इसी तरह दिसंबर 2024 में अवस्थापना और औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव अनिल सागर के दो फैसले रद्द करते हुए कोर्ट ने उन्हें पद से हटाने की सिफारिश की थी जिसे सरकार ने तत्काल मान लिया था. 15 सितंबर 2021 को हाईकोर्ट ने तत्कालीन डीजीपी मुकुल गोयल को मैनपुरी पुलिस पर कार्रवाई न करने के कारण प्रयागराज में रोक दिया था. ये तीनों मामले दिखाते हैं कि न्यायपालिका अब अफसरों की ढिलाई पर सख्त हो रही है.
हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेंद्र सिंह कहते हैं, “यूपी की नौकरशाही का रवैया इस समय बेहद चिंताजनक है. अब अफसर अदालत के आदेशों को औपचारिकता समझने लगे हैं. यह न्याय व्यवस्था के लिए खतरनाक स्थिति है. जब अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग कर अदालत के निर्देशों की अवहेलना करते हैं, तो लोकतंत्र की बुनियाद हिलती है.” पूर्व न्यायाधीश एस.पी. तिवारी के मुताबिक, “कुछ अफसर राजनीतिक संरक्षण में खुद को अजेय मानने लगे हैं. यही कारण है कि कोर्ट के आदेशों की अवमानना या देरी से पालन की घटनाएं बढ़ रही हैं.”
लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिक विश्लेषक प्रो. रमेश दीक्षित मानते हैं कि नौकरशाही की जवाबदेही घटने की एक वजह यह भी है कि सत्ता के शीर्ष स्तर पर ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ का नारा तो दिया जाता है, लेकिन कार्रवाई सीमित रहती है. दीक्षित कहते हैं, “जब अफसरों को यह भरोसा हो जाता है कि कोर्ट की फटकार के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, तो वे अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लगते हैं.”
योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार और अपराध पर सख्ती को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया था. लेकिन अब कोर्ट में अफसरों की पेशी और फटकार उस छवि पर सवाल खड़े कर रही है. समाजवादी पार्टी लोहिया वाहिनी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अभिषेक यादव कहते हैं, “राज्य में पुलिस और अफसरों के खिलाफ कोर्ट की तल्खी प्रशासनिक सिस्टम की जमीनी सच्चाई को दिखा रही है. सत्ता के दबाव में या अपनी शक्ति दिखाने के लिए अधिकारी कानून से ऊपर जाने लगे हैं.”
हालांकि BJP इस घटनाक्रम को दूसरे नजरिए से देख रही है. BJP के प्रदेश प्रवक्ता आनंद दुबे ने कहा, “योगी सरकार में किसी भी अधिकारी को कानून से ऊपर नहीं माना जाता. मुख्यमंत्री ने हर स्तर पर साफ कर दिया है कि न्यायिक आदेशों का पालन न करने वाले अफसरों पर सख्त कार्रवाई होगी. सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करती है और प्रशासनिक जवाबदेही को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम कर रही है.”
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यूपी जैसे बड़े राज्य में शासन व्यवस्था तभी संतुलित रह सकती है जब न्यायपालिका की निगरानी बनी रहे. अफसरों द्वारा आदेशों का पालन न करना, जांच में देरी कर मामले कमजोर करना, या आम नागरिकों को डराने की प्रवृत्ति अदालतों को कठोर रुख अपनाने पर मजबूर करती है. हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार रह चुके एस.के. श्रीवास्तव कहते हैं, “अब स्थिति यह हो गई है कि अदालत को अफसरों को कोर्ट में बैठाकर यह जताना पड़ता है कि कानून सब पर समान रूप से लागू होता है. यह लोकतंत्र के लिए चेतावनी है.”
राजनीतिक दखल भी एक बड़ी वजह है
कई मामलों में कोर्ट के आदेशों के बावजूद कार्रवाई आधी-अधूरी रह जाती है क्योंकि राजनीतिक दखल हावी रहता है. अफसर जानबूझकर जांच लंबी खींचते हैं या आदेशों की तकनीकी व्याख्या में उलझाकर मामला कमजोर कर देते हैं. लखनऊ के वरिष्ठ वकील संतोष बाजपेयी कहते हैं, “अधिकांश मामलों में कोर्ट की नाराजगी तभी सामने आती है जब अधिकारी आदेशों को टालने की कोशिश करते हैं. यह टालमटोल राजनीतिक दबाव और अपने बचाव की मानसिकता से जुड़ा है.” यूपी की नौकरशाही की संरचना ऐसी है कि जिलों में तैनात एसपी और डीएम के पास भारी अधिकार हैं. लेकिन जब यही अधिकार जवाबदेही के बिना इस्तेमाल होते हैं, तो लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ जाती है.
हाल के मामलों में कोर्ट ने साफ कर दिया है कि प्रशासनिक ‘विवेकाधिकार’ मनमानी का पर्याय नहीं हो सकता. एक पूर्व डीजीपी का कहना है, “अफसरशाही को समझना होगा कि कोर्ट की फटकार किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यवस्था की चेतावनी है. पुलिस या प्रशासन का कर्तव्य अदालत के आदेशों का पालन करना है, न कि उसे चुनौती देना.” योगी सरकार के लिए यह स्थिति दोहरी चुनौती है. एक तरफ न्यायपालिका की सख्ती से सरकार की छवि पर असर पड़ रहा है, दूसरी तरफ अफसरशाही पर नियंत्रण कमजोर पड़ने से शासन की विश्वसनीयता भी दांव पर है.
मुख्य सचिव स्तर पर लगातार रिव्यू बैठकों और ‘गवर्नेंस रिपोर्टिंग सिस्टम’ के बावजूद कोर्ट की नाराजगी यह दिखा रही है कि जमीनी जवाबदेही अभी भी अधूरी है. राजनीतिक विश्लेषक अविनाश त्रिपाठी कहते हैं, “अगर सरकार समय रहते नौकरशाही में अनुशासन और पारदर्शिता नहीं ला पाई, तो आने वाले चुनावी मौसम में विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बना देगा.”
इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर लखनऊ पीठ तक अदालतों के हालिया फैसलों का मकसद सिर्फ अनुशासन लागू करना नहीं बल्कि शासन में ईमानदारी और पारदर्शिता को बचाना है. अदालतें बार-बार याद दिला रही हैं कि राज्य कोई व्यक्ति नहीं, एक व्यवस्था है, और इस व्यवस्था की रीढ़ जवाबदेही है. फर्रुखाबाद की एसपी आरती सिंह का मामला यह दिखाता है कि जब अफसर खुद को कानून से ऊपर समझने लगते हैं, तो न्यायपालिका को सख्त कदम उठाने पड़ते हैं. अदालत की तल्खी दरअसल उस खतरे की चेतावनी है जो तब पैदा होती है जब अफसरशाही कानून के बजाय सत्ता के प्रति जवाबदेह होने लगती है. अब सवाल यह है कि क्या योगी सरकार इस चेतावनी को गंभीरता से लेगी और नौकरशाही को अनुशासन में लाएगी, या फिर अदालतों को बार-बार शासन के पहियों को सीधा करना पड़ेगा.