उत्तर प्रदेश की राजनीति में विधान परिषद के शिक्षक और स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव हमेशा से एक अलग मायने रखते हैं. यह चुनाव भले ही पार्टी के चुनाव चिह्नों पर नहीं लड़े जाते, लेकिन इनकी राजनीतिक गूंज विधानसभा और लोकसभा की राजनीति तक सुनाई देती है.
नवंबर, 2026 में होने वाली 11 सीटों के इन चुनावों को लेकर समाजवादी पार्टी (सपा) ने एक साल से भी पहले तैयारी शुरू कर दी है. पार्टी ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, जबकि कांग्रेस भी अब मैदान में उतर चुकी है. सवाल है इन चुनावों से सपा को इतनी जल्दीबाज़ी क्यों?
दरअसल, यह चुनाव सपा के लिए सिर्फ़ प्रतिष्ठा का नहीं बल्कि अस्तित्व का भी सवाल है. वर्तमान में 100 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधान परिषद में BJP के नेतृत्व वाले NDA गठबंधन के पास 83 सदस्य हैं- BJP (79), अपना दल (एस) (1), राष्ट्रीय लोक दल (1), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (1) और निषाद पार्टी (1). इसके मुकाबले सपा के पास सिर्फ 10 सदस्य हैं. यही 10 सदस्य विपक्ष के नेता (Leader of Opposition) पद के लिए आवश्यक 10 प्रतिशत बहुमत की सीमा को पूरा करते हैं. शेष सदस्यों में पांच निर्दलीय और जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) का एक सदस्य शामिल है, जबकि एक सीट खाली है.
सपा के 10 MLC में से सात विधायकों द्वारा चुने गए थे. शेष तीन – दो स्नातक निर्वाचन क्षेत्रों से (इलाहाबाद-झांसी से मान सिंह यादव और वाराणसी से आशुतोष सिन्हा) और एक शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से (वाराणसी से लाल बिहारी यादव).
MLC चुनाव लखनऊ, वाराणसी, आगरा, मेरठ और इलाहाबाद-झांसी के स्नातक निर्वाचन क्षेत्रों के साथ-साथ लखनऊ, वाराणसी, आगरा, मेरठ, बरेली-मुरादाबाद और गोरखपुर-फ़ैज़ाबाद की शिक्षक सीटों पर भी होने हैं. 2020 के चुनावों में, BJP ने इन 11 सीटों में से छह पर जीत हासिल की थी, सपा को तीन और निर्दलीयों ने शेष दो सीटें जीती थीं. अगर आगामी चुनावों में सपा तीन से कम सीटें जीतती है, तो विपक्ष के नेता पद पर उसका दावा खत्म हो जाएगा. एक वरिष्ठ सपा नेता मानते हैं, “परिषद में हमारी स्थिति पहले ही कमजोर है. अगर तीन से कम सीटें आईं, तो नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी हाथ से जा सकता है. यही वजह है कि पार्टी ने उम्मीदवारों की घोषणा बहुत पहले कर दी ताकि वे मतदाता सूची तैयार करने से लेकर प्रचार तक सक्रिय भूमिका निभा सकें.”
जिन 11 सीटों पर चुनाव होने हैं, सपा ने उनमें से पांच पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है. लखनऊ स्नातक क्षेत्र से पूर्व MLC कांति सिंह, गोरखपुर-फैजाबाद शिक्षक सीट से कमलेश यादव, वाराणसी स्नातक से आशुतोष सिन्हा, इलाहाबाद-झांसी स्नातक से मान सिंह यादव और वाराणसी शिक्षक क्षेत्र से लाल बिहारी यादव को मैदान में उतारा गया है. MLC चुनाव के उम्मीदवारों का चयन करने के दौरान सपा ने अपनी पीडीए रणनीति को ही प्रमुखता दी है. वहीं आगामी MLC चुनावों ने विपक्षी इंडिया गठबंधन के भीतर दरार को फिर से उजागर कर दिया है, जिसमें सपा और कांग्रेस दोनों घटक हैं.
सपा की तैयारी के जवाब में कांग्रेस भी अब सक्रिय हो गई है. पार्टी ने 10 अक्टूबर को अपने पांच प्रत्याशियों के नाम घोषित किए : मेरठ-सहारनपुर स्नातक से विक्रांत वशिष्ठ, आगरा स्नातक से रघुराज सिंह पाल, लखनऊ स्नातक से डा. देवमणि तिवारी, वाराणसी शिक्षक क्षेत्र से संजय प्रियदर्शी और वाराणसी स्नातक से अरविंद सिंह पटेल. कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि वह सभी 11 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने कहा, “यह चुनाव सिंबल का नहीं, पहचान और जुड़ाव का चुनाव है. कांग्रेस शिक्षकों, अधिवक्ताओं, चिकित्सकों और युवाओं के मुद्दों को लेकर मैदान में उतरेगी.”
कांग्रेस मुख्यालय में कनेक्ट सेंटर की स्थापना की गई है और सभी जिलों में समन्वय केंद्र बनाए गए हैं. कांग्रेस ने पहले चरण में स्नातक के लिए पांच लाख और शिक्षक के लिए दो लाख मतदाता फार्म भरवाने का लक्ष्य रखा है. राजनीतिक विश्लेषक स्नेहवीर पुंडीर कहते हैं, “यह चुनाव इंडिया गठबंधन के नाजुक जुड़ाव को दिखा रहे हैं. सपा और कांग्रेस दोनों जानते हैं कि विधान परिषद का असर सीधे विधानसभा चुनावों पर नहीं पड़ता, लेकिन इससे जमीनी कार्यकर्ताओं की सक्रियता और संगठन क्षमता का परीक्षण होता है. अगर दोनों दल अलग-अलग लड़ते हैं, तो BJP इसका लाभ उठाएगी.”
सपा के लिए शिक्षक और स्नातक निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव इसलिए भी अहम है क्योंकि यह उन वर्गों तक पहुंचने का मौका देता है जो परंपरागत रूप से पार्टी का कोर वोट बैंक नहीं रहे हैं. समाजवादी पार्टी को हमेशा किसान, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों का समर्थन मिलता रहा है, लेकिन शिक्षकों, वकीलों और शहरी स्नातकों के बीच उसकी पकड़ कमजोर मानी जाती है. अखिलेश यादव इस वर्ग में पार्टी की छवि सुधारना चाहते हैं. पार्टी की रणनीति है कि उम्मीदवार केवल राजनीतिक न हों, बल्कि शिक्षित और समाज में सक्रिय हों. यही वजह है कि सपा ने शिक्षक संगठनों से जुड़े और सामाजिक कार्यों में सक्रिय चेहरों को उतारा है.
उत्तर प्रदेश की शिक्षक राजनीति में सपा का एक पुराना आधार रहा है. मुलायम सिंह यादव खुद शिक्षक रहे हैं और पार्टी का इस वर्ग से भावनात्मक जुड़ाव रहा है. सपा की शिक्षक संगठन इकाई समाजवादी शिक्षक सभा लंबे समय से सक्रिय है. पिछले चुनावों में भी सपा ने इन्हीं नेटवर्क्स के जरिए दो शिक्षक और एक स्नातक सीट जीती थी. समाजवादी शिक्षक सभा के वरिष्ठ नेता राम सुमिर यादव कहते हैं, “शिक्षक क्षेत्र के चुनाव पार्टी संगठन से ज्यादा व्यक्तिगत संपर्क और संगठनात्मक जुड़ाव पर निर्भर करते हैं. सपा ने जो प्रत्याशी उतारे हैं, वे शिक्षक संगठनों से गहराई से जुड़े हैं. यहीं उसका फायदा होगा.”
इन चुनावों की प्रक्रिया आम चुनावों से अलग होती है. मतदाता सूची हर बार नए सिरे से तैयार होती है और केवल पंजीकृत स्नातक व शिक्षक ही वोट कर सकते हैं. यही वजह है कि सपा ने जल्दी उम्मीदवार घोषित किए ताकि वे मतदाता सूची में नाम दर्ज करवाने की प्रक्रिया में सीधे जुड़ सकें. पार्टी के एक रणनीतिकार ने बताया, “स्नातक सीटों के लिए साक्षरता और पहचान का मुद्दा बड़ा होता है. जितनी जल्दी उम्मीदवार सक्रिय होते हैं, उतनी ज्यादा संभावना होती है कि वे वोटरों तक व्यक्तिगत स्तर पर पहुंचें.”
इन चुनावों के परिणाम भले ही विधानसभा की सत्ता समीकरण नहीं बदलेंगे, लेकिन वे 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले विपक्ष की ताकत और संगठन क्षमता का पैमाना तय करेंगे. अगर सपा यहां अच्छा प्रदर्शन करती है, तो विपक्ष के नेता पद को बनाए रखने के साथ-साथ कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा भर पाएगी. लेकिन अगर नतीजे कमजोर रहे, तो पार्टी न सिर्फ़ परिषद में बल्कि मनोबल के स्तर पर भी पिछड़ जाएगी. राजनीतिक टिप्पणीकार सुशील पांडेय का कहना है, “इन सीटों के नतीजे यह तय करेंगे कि सपा विपक्ष के केंद्र में बनी रहती है या कांग्रेस जैसी कोई दूसरी ताकत इस स्पेस में दखल करती है. 2026 के ये चुनाव असल में 2027 की पृष्ठभूमि तैयार करेंगे.”
उत्तर प्रदेश की राजनीति में विधान परिषद के शिक्षक और स्नातक चुनाव अक्सर कम सुर्खियां बटोरते हैं, लेकिन उनके राजनीतिक असर गहरे होते हैं. सपा के लिए यह चुनाव केवल सीटों का नहीं, बल्कि प्रतिष्ठा, संगठन और भविष्य की रणनीति का इम्तिहान है. अगर समाजवादी पार्टी इन चुनावों में अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल होती है, तो वह न सिर्फ़ नेता प्रतिपक्ष का पद बचा पाएगी, बल्कि यह संदेश भी देगी कि शिक्षित और संगठित वर्गों में उसकी राजनीतिक वापसी की शुरुआत हो चुकी है.