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यूपी में गठबंधन के बावजूद कांग्रेस अकेले लड़ाई की तैयारी में क्यों जुटी?

बिहार विधानसभा चुनाव में झटके के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी सक्रियता तेज कर दी है

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राहुल गांधी के साथ यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय (फाइल फोटो)
अपडेटेड 22 दिसंबर , 2025

बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक नतीजे न मिलने के बाद कांग्रेस की राजनीतिक दिशा में जो हलचल दिख रही है, उसका सबसे बड़ा असर उत्तर प्रदेश में दिखाई देने लगा है. लोकसभा चुनाव 2024 में यूपी में मिले सीमित लेकिन मनोबल बढ़ाने वाले परिणामों के बाद कांग्रेस जिस आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही थी, बिहार की हार ने उसी रणनीति पर नए सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है. 

ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में अपनी गठबंधन राजनीति को नए सांचे में ढालने जा रही है. जाहिर है इसका सीधा असर सपा के साथ उसके रिश्तों पर पड़ेगा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस लगभग साढ़े तीन दशक से सत्ता से बाहर है. 1989 के बाद से पार्टी राज्य में लगातार सिमटती गई और 2017 तथा 2022 के विधानसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन लगभग हाशिये पर पहुंच गया. 

2022 में 399 सीटों पर चुनाव लड़कर सिर्फ दो सीटें जीतना कांग्रेस के इतिहास का सबसे कमजोर अध्याय माना गया. ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में छह सीटों पर जीत और कई सीटों पर बेहद करीबी हार ने पार्टी के भीतर एक नई उम्मीद जगाई. अमेठी और रायबरेली के साथ-साथ सीतापुर, बाराबंकी, प्रयागराज और सहारनपुर जैसी सीटों पर दशकों बाद मिली जीत ने कांग्रेस नेतृत्व को यह भरोसा दिलाया कि यूपी की राजनीति में पार्टी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है.

यही वजह है कि बिहार चुनाव में झटका लगने के बावजूद कांग्रेस की नजर अब पूरी तरह उत्तर प्रदेश पर टिक गई है. पार्टी नेतृत्व मानता है कि अगर 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को जमीनी स्तर पर खड़ा कर लिया गया, तो कांग्रेस न सिर्फ अपनी खोई जमीन वापस पा सकती है बल्कि सपा के साथ सीट शेयरिंग में भी मजबूत स्थिति बना सकती है. इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने जनवरी 2026 से फरवरी तक यूपी के अलग-अलग हिस्सों में 17 बड़ी रैलियों का खाका तैयार किया है. इन रैलियों को पार्टी ‘धन्यवाद रैली’ के रूप में देख रही है, खासकर उन लोकसभा क्षेत्रों में जहां कांग्रेस जीती या बेहद कम अंतर से हारी.

इन रैलियों का मकसद सिर्फ शक्ति प्रदर्शन नहीं है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि पार्टी को सबसे पहले यह समझना होगा कि उसकी वास्तविक ताकत किन इलाकों में है और कहां सिर्फ लोकसभा चुनाव का अस्थायी असर देखने को मिला था. सहारनपुर से सांसद इमरान मसूद के दिल्ली स्थित आवास पर हुई हालिया बैठक में यही बात उभरकर सामने आई. बैठक में मौजूद नेताओं के मुताबिक, कांग्रेस अब चुनावी राजनीति में ‘वेट एंड वॉच’ की भूमिका में नहीं रहना चाहती. वह पंचायत और विधान परिषद चुनावों को 2027 का सेमीफाइनल मानकर चल रही है.

यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय का बयान इसी सोच को साफ करता है. उनके मुताबिक, पार्टी की प्राथमिकता 403 विधानसभा सीटों पर एक मजबूत कैडर खड़ा करना है. गठबंधन पर फैसला भले ही आलाकमान करे, लेकिन पंचायत और एमएलसी चुनाव कांग्रेस अपने दम पर लड़ेगी. यह फैसला अपने आप में सपा के लिए एक स्पष्ट संकेत है कि कांग्रेस अब सिर्फ जूनियर पार्टनर की भूमिका में संतुष्ट नहीं है. 

पंचायत चुनाव यूपी की राजनीति में बेहद अहम माने जाते हैं क्योंकि यहीं से दलों की जमीनी ताकत का अंदाजा मिलता है. भले ही ये चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं होते, लेकिन हर दल अपने समर्थित उम्मीदवारों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है. कांग्रेस का लखनऊ से केंद्रीकृत सूची जारी करने का फैसला बताता है कि पार्टी इस बार पंचायत चुनावों को बेहद गंभीरता से ले रही है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर कांग्रेस पंचायत चुनावों में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर पाती है, तो सपा के साथ 2027 की सीट शेयरिंग बातचीत में उसके हाथ मजबूत होंगे.

यहीं से सपा और कांग्रेस के बीच तनाव की कहानी शुरू होती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने मिलकर यूपी में अच्छा प्रदर्शन किया था और 80 में से 43 सीटें जीत ली थीं. लेकिन उसके बाद से रिश्तों में ठंडापन साफ दिखने लगा. बिहार विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव का कांग्रेस के लिए प्रचार न करना, दिल्ली विधानसभा चुनाव में सपा का आम आदमी पार्टी के साथ खड़ा होना और फिर एमएलसी चुनावों में अलग-अलग उम्मीदवार उतारने की तैयारी, इन सबने INDIA गठबंधन की एकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

सपा के भीतर यह धारणा मजबूत है कि यूपी उसका मुख्य राज्य है और यहां कांग्रेस को उसकी शर्तों पर चलना चाहिए. सपा के वरिष्ठ नेता उदयवीर सिंह का बयान इसी मानसिकता को दर्शाता है. उनका कहना है कि जहां पार्टी मजबूत होती है, वहां वह अपने सहयोगियों से समर्थन की उम्मीद करती है. यूपी में सपा खुद को बीजेपी के खिलाफ सबसे मजबूत ताकत मानती है, इसलिए वह चाहती है कि कांग्रेस उसका साथ दे, न कि बराबरी का दावा करे. इसके उलट कांग्रेस का तर्क है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में दलित वोटों को एकजुट करने में उसकी भूमिका अहम रही. पार्टी के नेताओं का कहना है कि अगर कांग्रेस ने जमीन पर मेहनत नहीं की होती, तो सपा को इतनी सीटें मिलना आसान नहीं था. यही वजह है कि कांग्रेस अब अपने योगदान को आधार बनाकर 2027 में ज्यादा सीटों की मांग करने की तैयारी में है.

बिहार विधानसभा चुनाव में मिली हार ने इस टकराव को और तेज कर दिया है. बिहार में कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा. इसका सीधा असर यूपी में कांग्रेस और सपा के रिश्तों पर पड़ता दिख रहा है. सपा के भीतर यह आवाज तेज हो गई है कि कांग्रेस का स्ट्राइक रेट लगातार गिर रहा है और उसे जरूरत से ज्यादा तवज्जो देना नुकसानदेह हो सकता है. दूसरी ओर, कांग्रेस मानती है कि बिहार की हार स्थानीय कारणों का नतीजा है और उसे यूपी की राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए.

हालां‍कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखि‍लेश यादव यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वर्ष 2027 का चुनाव उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ेगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि असली टकराव सीटों के गणित पर होगा. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के तहत कांग्रेस को 114 सीटें मिली थीं, लेकिन वह सिर्फ सात सीटें जीत पाई थी. उस समय सपा के भीतर यह चर्चा आम थी कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने से गठबंधन को नुकसान हुआ. 2022 में कांग्रेस के अकेले लड़ने और दो सीटों पर सिमटने के आंकड़े भी सपा के तर्क को मजबूती देते हैं. ऐसे में 2027 में सपा इन आंकड़ों को सामने रखकर कांग्रेस पर दबाव बनाएगी.

कांग्रेस इस दबाव का जवाब संगठनात्मक मजबूती से देना चाहती है. पिछले एक साल से चल रहे ‘सृजन अभियान’ के तहत पार्टी ने ब्लॉक और जिला स्तर पर समितियां गठित की हैं. यूपी प्रभारी अविनाश पांडे की देखरेख में चल रहे इस अभियान का उद्देश्य कांग्रेस को फिर से एक कैडर आधारित पार्टी बनाना है. पार्टी के अंदर यह सोच है कि अगर पंचायत और एमएलसी चुनावों में प्रदर्शन सम्मानजनक रहा, तो सपा को कांग्रेस की अनदेखी करना आसान नहीं होगा. हालांकि गठबंधन की राजनीति इतनी सरल नहीं है. विधानसभा चुनाव लोकसभा से अलग होते हैं, जहां स्थानीय नेताओं और टिकट के दावेदारों की भूमिका ज्यादा अहम होती है. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों को पीछे हटने के लिए मनाना आसान नहीं होगा. यही वजह है कि 2027 की सीट शेयरिंग बातचीत कहीं ज्यादा जटिल होगी.

कुल मिलाकर, बिहार चुनाव के बाद कांग्रेस यूपी में अपनी रणनीति को नए सिरे से परख रही है. वह गठबंधन में रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र पहचान मजबूत करना चाहती है. पंचायत और एमएलसी चुनावों को लेकर लिया गया फैसला इसी दिशा में एक बड़ा कदम है. सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस गठबंधन तोड़ेगी या नहीं, बल्कि यह है कि वह गठबंधन के भीतर किस हैसियत से खड़ी होगी.

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