नीतीश कुमार के जनता दल (यूनाइटेड) ने 15 अक्तूबर को बिहार विधानसभा चुनावों के लिए 57 उम्मीदवारों की सूची जारी की. उनकी सहयोगी BJP ने और तेजी दिखाते हुए एक साथ तीन चरणों में सभी 101 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी लेकिन NDA के एक अन्य सहयोगी राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा सीट बंटवारे में मतभेद सुलझाने के लिए नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ विचार-विमर्श में व्यस्त थे.
बिहार चुनाव के पहले चरण के लिए नामांकन 17 अक्तूबर को समाप्त हो रहा है फिर भी NDA सामने आकर माइक पर यह कहने का भरोसा नहीं जुटा पाया है कि सब ठीक है. हालांकि, ऊपरी तौर पर सब कुछ सही दिखाने के लिए एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की जा सकती है लेकिन NDA के भीतर सब कुछ पूरी तरह ठीक नजर नहीं आ रहा.
ये मतभेद सीट बंटवारे से सीधे-सरल अंकगणित के सामने आने के साथ शुरू हो गए थे. 12 अक्टूबर को NDA ने सीट बंटवारे का एक फॉर्मूला पेश किया, जिसमें BJP और JDU को बराबरी का दर्जा दिया गया और कुल 243 सीटों में से 101-101 सीटें, इन दोनों प्रमुख दलों के खाते में आईं. जबकि चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 और जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) और कुशवाहा की RLM को छह-छह सीटें दी गईं.
कागज पर यह बंटवारा साफ-सुथरा दिखता है; लेकिन व्यावहारिक स्तर पर बात करें तो वर्षों के अधिकार और नई महत्वाकांक्षाओं के कारण इसमें एक टकराव भी छिपा है. पटना में जिस बात ने सबसे ज्यादा हलचल मचा रखी है, वह संख्या को लेकर बनी सुर्खियां ही नहीं, उन्हें तय करने के तौर-तरीके भी हैं.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पिछले दो दशकों से बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक अलग ही जलवा रहा है और सीट बंटवारे में उन्हें खासी अहमियत मिलती रही है. उन्होंने सहयोगियों को साधा, उन्हें पैर जमाने का मौका दिया और BJP की संगठनात्मक और JDU की स्थानीय ताकत के बीच एक नाजुक संतुलन को बनाए रखा.
लेकिन इस बार JDU का यह रुतबा बहुत सीमित हो गया है- पिछले विधानसभा चुनावों की 115 सीटों की तुलना में यह संख्या अब घटकर 101 रह गई. ऐसा लगता है कि पार्टी को कुछ सीटें इसलिए छोड़नी पड़ीं ताकि BJP के सामने चिराग पासवान की दावेदारी मजबूत हो सके. चुनावी मुकाबले में हार अलग बात है लेकिन जब गठबंधन के भीतर ही इस के बंटवारे के नियम-कायदे आपके खिलाफ नजर आ रहे हों तो दिल में कुछ चुभ जाना लाजिमी ही है.
BJP के लिए यह सब चुनावी समीकरण का मामला है. चिराग की पार्टी ने मामूली वोट-शेयर के बावजूद वोटों को संसदीय सीटों में बदलने का कमाल कर दिखाया है. LJP (रामविलास) ने 2024 में सभी पांच लोकसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की और हर क्षेत्र में प्रभावशाली प्रदर्शन की बानगी सामने रखी. BJP की नजर में LJP को 29 विधानसभा सीटें आवंटित करना एक तरह का सुरक्षा कवच है, जो NDA के सामाजिक समीकरण को व्यापक आधार प्रदान करता है और दलित वोटों के छिटकने की आशंका भी दूर करता है. लेकिन बिहार में टिकट बंटवारे में स्थानीय दबदबा एक अहम पहलू है और यही चीज दूरदराज के इलाकों में नीतीश की पार्टी JDU की गहरी पैठ का आधार है.
ऐसे में JDU खेमे में बेचैनी होना स्वाभाविक ही है और यह प्रमुख विधानसभा सीटें हाथ से फिसलने से कहीं आगे तक की बात है. एक आशंका ये है कि बिहार की राजनीति में सियासी कद को नए सिरे से निर्धारित किया जाना कहीं न कहीं बड़े भाई होने के JDU के दावे पर कुठाराघात कर रहा है. यह सब सीधे तौर पर सियासी विरासत, प्रभाव और सत्ता के भविष्य से जुड़ा मामला है.
नीतीश की बेचैनी बेमानी नहीं है. 2020 में स्वतंत्र रूप से विधानसभा चुनाव लड़ने के चिराग के फैसले ने JDU के वोटों पर गहरी चोट की और यह कई ऐसी सीटें प्रतिद्वंद्वियों के हाथों में जाने की वजह बना जिन पर नीतीश की पार्टी की जीत पक्की मानी जा रही थी. अगर उस मुकाबले का चुनावी विश्लेषण करें तो यह साफ है कि LJP ने भले ही केवल एक सीट जीती लेकिन इसने पूरे राज्य में JDU का खेल बिगाड़ दिया. जीत का अंतर घटाया और कम से कम 34 विधानसभा सीटों पर JDU उम्मीदवारों की हार के अंतर से ज्यादा वोट हासिल किए, जाहिर है LJP का वोट काटना नतीजों में निर्णायक साबित हुआ.
पटना ने ये बात भुलाई नहीं है. यही वजह है, नीतीश के करीबी सहयोगी चिराग को एक सामान्य जूनियर पार्टनर नहीं बल्कि एक अनजान खतरे के तौर पर देखते हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाएं अगर ऐसे ही हिलोरें मारती रहीं तो चुनाव नतीजों के बाद पार्टी को गंभीर नुकसान उठाना पड़ सकता है.
ये भी कह सकते हैं कि यह विचारधारा के बजाय संरचनात्मक क्षमता की राजनीति ज्यादा है. गठबंधन तभी टिक पाते हैं जब नेता निजी सौदेबाजी को सार्वजनिक ताकत में तब्दील कर पाएं. नीतीश एक लंबे समय तक इस कला में माहिर रहे हैं- गठबंधन के भीतर के समझौतों को सार्वजनिक स्तर पर एकजुटता के तौर पर सामने रखना उनकी खूबी है. फिर भी, प्रयोगों की अपनी सीमाएं भी होती हैं.
अगर JDU ये मान ले कि उसकी भूमिका सिर्फ एक छोटे भाई की रह गई है जिसे कुछ सीटें सिर्फ इसलिए छोड़नी पड़ीं ताकि गठबंधन पर कोई आंच न आए तो पार्टी के भीतर अनुशासन बनाए रखना मुश्किल होगा. वहीं, अगर चिराग की LJP अपने खाते में आई 29 सीटों को बड़ी जीत में नहीं बदल पाई तो यह उदारता उलटा असर डाल सकती है- इससे निष्ठा नहीं नाराजगी ही बढ़ेगी. यही नहीं, प्रभाव बढ़ाने के बजाय यह शर्मिंदगी का सबब भी बन सकती है.
आने वाले हफ्तों में यह चुनाव से कहीं ज्यादा प्रबंधन क्षमता की परीक्षा होगी. NDA एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोच-समझकर दिए गए बयानों की आड़ में अपने मतभेदों को छिपा तो सकता है लेकिन देखने वाली बात ये होगी कि क्या इसके संकेत विधानसभा क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा के आगे मजबूती से टिक पाएंगे? अगर सीट बंटवारा बिहार के राजनीतिक परिदृश्य को नए सिरे से निर्धारित करने के दीर्घकालिक प्रयास की एक शुरुआती कड़ी है तो तात्कालिक नतीजे पर यही कहा जा सकता है कि गठबंधन ने अल्पकालिक एकजुटता को ताक पर रख दीर्घकालिक अनिश्चितता पर दांव लगाया है.
पटना में कई पुराने दिग्गजों के लिए ये चुनाव स्थिर लय-ताल के साथ खम ठोकने के बजाय एक नई और असहज स्थिति संग कदमताल करने का सबब बन गया है, और ऐसे में उनके दिल में टीस उठना स्वाभाविक ही है.