उत्तराखंड में पंचायत चुनाव नतीजों ने दावों और जवाबी दावों की जंग शुरू कर दी है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों खुद को विजेता घोषित कर रहे हैं. हालांकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी सफलता बताने के लिए अलग-अलग पैमाना अपना रहे हैं.
बीजेपी अपनी जीत में संख्या और भौगोलिक विस्तार के बढ़ने का हवाला दे रही है. वहीं कांग्रेस जोर देकर कह रही है कि उसका प्रदर्शन उसकी बड़ी वापसी का संकेत है, खासकर शहरी क्षेत्रों और सियासी रूप से अहम जिलों में. हालांकि, अधिकतर स्थानीय चुनावों की तरह इसकी हकीकत कई टुकड़ों और परतों में बंटी हुई है.
पंचायत चुनाव एकदम से पार्टी आधारित मुकाबले नहीं होते. इसके बजाय उम्मीदवार अकसर सियासी पार्टियों की ओर से उतारे जाते हैं या फिर समर्थित होते हैं, और फिर अपने फायदे से हिसाब से वे उसकी व्याख्या करते हैं.
हरिद्वार को छोड़कर, 12 जिलों में हुए चुनावों में मतदाताओं ने 358 जिला पंचायत सदस्यों, 2,974 ब्लॉक विकास परिषद के सदस्यों और 7,499 पंचायत प्रमुखों का चुनाव किया. बीजेपी का कहना है कि उसने 315 जिला पंचायत सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें से 127 उम्मीदवार जीत गए. साथ ही उसका दावा है कि निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले 58 बागी उम्मीदवार भी बीजेपी की विचारधारा से जुड़े थे और पार्टी का समर्थन करेंगे.
बीजेपी का कहना है कि 31 अन्य सीटों पर भी उसकी जीत हुई है, जहां उसने अपने आधिकारिक उम्मीदवार नहीं उतारे और उन सीटों को ‘खुला’ छोड़ दिया था. उसका दावा है कि उन सीटों पर भी उसके समर्थकों ने ही जीत हासिल की है. इन आंकड़ों को मिलाकर, बीजेपी नेता कुल 216 सीटों पर अपनी पार्टी की जीत का दावा कर रहे हैं. बीजेपी का कहना है कि यह संख्या सभी जिलों में पंचायत समितियों के गठन करने और अधिकतर ब्लॉकों तथा ग्राम पंचायतों में प्रभुत्व कायम करने के लिए बहुत काफी है.
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भटट् ने इसे “ऐतिहासिक” जीत करार दिया, खासकर साल 2019 के (हरिद्वार समेत) पंचायत चुनावों में पार्टी की 200 सीटों की जीत के आंकड़ों की तुलना में. उन्होंने कहा कि ये नतीजे न केवल पार्टी की रणनीतिक जीत को, बल्कि उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में उसकी “गहरी पकड़” को भी दिखाते हैं.
मगर, पूरे सफाये का बीजेपी का दावा कुछ बड़ी शख्सियतों की हार से जटिल हो जाता है. अल्मोड़ा, लैंसडाउन और चमोली में बीजेपी विधायकों के रिश्तेदारों को हार का सामना करना पड़ा है. बद्रीनाथ में विधायक राजेंद्र भंडारी के बीजेपी में चले जाने के बाद पिछले साल हुए उपचुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी. वहां इस बार राजेंद्र भंडारी की पत्नी रजनी भंडारी अपनी पंचायत सीट बरकरार रखने में असफल रहीं.
भट्ट इन हारों को बेमानी बताते हैं और तर्क देते हैं कि ये लोग नियमित उम्मीदवारों के रूप में चुनाव लड़ रहे थे. वे कहते हैं, “वे किसी भी अन्य उम्मीदवारों की तरह ही थे.” उन्होंने कहा कि उन्हीं सीटों पर कई बीजेपी कार्यकर्ताओं ने चुनाव लड़ा, ऐसे में उनकी हार को पार्टी की हार बताना भ्रामक है. भट्ट ने कांग्रेस के उस दावे को भी खारिज किया कि उसके समर्थित 200 अधिक उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़े पेश कर रही है और उसकी ओर से आधिकारिक रूप से घोषित और समर्थित उम्मीदवारों की संख्या उससे कहीं कम है.
दूसरी तरफ, कांग्रेस बड़ी जीत का दावा कर रही है. पार्टी का कहना है कि जिला पंचायत सीटों पर उसने जिन 198 उम्मीदवारों का समर्थन किया, उनमें से 138 जीत गए. इसमें से 80 सीटों पर पार्टी के सिंबल पर खड़े उम्मीदवारों की जीत हुई. पार्टी के नेताओं का दावा है कि यह कांग्रेस के साथ जनता के मजबूत समर्थन को दिखाता है, मगर बीजेपी इसे स्वीकार नहीं करना चाहती.
कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना ने दावा किया कि पार्टी ने न केवल ग्रामीण इलाकों में, बल्कि शहरी केंद्रों में भी अपनी मजबूत पैठ बनाई है. मसलन, देहरादून जिले में 30 सीटों में से 12 पर कांग्रेस उम्मीदवार जीते, वहीं अन्य चार सीटों पर ‘कांग्रेसी पृष्ठभूमि’ वाले उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की. इसके उलट, बीजेपी को केवल सात सीटों पर जीत हासिल हुई.
धस्माना के मुतबिक, कांग्रेस 8-10 जिलों में पंचायत समितियां बनाने की स्थिति में है. उन्होंने कहा, “गढ़वाल और कुमाऊं दोनों में हमें बढ़त हासिल है.” पार्टी के पर्यवेक्षकों को आरक्षण-आधारित सीटों के बंटवारे के मूल्यांकन और समितियों के निर्माण के अगल चरण की तैयारी के लिए जिलों में भेजा जा रहा है.
दोनों पक्षों के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, पंचायत चुनावों से विधानसभा या लोकसभा चुनावों को लेकर मतदाताओं के मिजाज का सही-सही पता नहीं चलता. पार्टी की विचारधारा के मुकाबले स्थानीय कारक-जाति-समूह का समर्थन, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, जमीन विवाद और विकास कार्य - ज्यादा अहम भूमिका निभाते हैं. फिर भी, बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए ये चुनाव ग्रामीण जनभावना को आंकने का पैमाना और जमीनी संगठन की परीक्षा हैं.
बीजेपी का दावा है कि नतीजे से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के शासन पर जनता की मुहर लगी है. वहीं, कांग्रेस इसे बीजेपी के खिलाफ बढ़ते असंतोष का सबूत मानती है. फिलहाल, दोनों पक्ष ताकतवर जिला और ब्लॉक स्तर की समितियों में अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को नियुक्त करने की तैयारी कर रहे हैं. और, दोनों इस खंडित जनादेश को अपनी-अपनी पूर्ण जीत बताते रहेंगे.