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गुजरात के कच्छ में फैला घास का मैदान कैसे मात दे रहा क्लाइमेंट चेंज को?

गुजरात के कच्छ के रण में स्थित एशिया का सबसे बड़ा उष्णकटिबंधीय घास का मैदान (बन्नी ग्रासलैंड) अपनी एक खूबी की वजह से क्लाइमेट चेंज के खिलाफ लड़ाई में बेहद अहम साबित हो सकता है

Banni grasslands
बन्नी घास का मैदान
अपडेटेड 13 अगस्त , 2025

गुजरात में कच्छ के रण की मरुभूमि के साथ बन्नी ग्रासलैंड 2,300 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो अपनी कठोर और लवणीय मिट्टी के बावजूद जैव विविधता से भरपूर एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र है. पर्यावरण शोधकर्ता मनन भान और उनके सहयोगियों ने अपने पारिस्थितिक प्रयोगों पर 2025 के एक अध्ययन में पाया कि एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदान में बड़ी मात्रा कार्बन सोखने की क्षमता है, जिसकी मिट्टी में 2.769 करोड़ टन कार्बन मौजूद है.

अध्ययन मृदा जैविक कार्बन (एसओसी) भंडारण के जरिये जलवायु परिवर्तन से निपटने में बन्नी की भूमिका को रेखांकित करता है. एसओसी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कार्बन मिट्टी में ही समाहित हो जाता है और वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को घटाता है. बन्नी 119.61 टन प्रति हेक्टेयर के औसत एसओसी घनत्व के साथ अन्य उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों और बारिश के मौसम में जलमग्न होने वाले घास के मैदानों से कहीं ज्यादा बेहतर है और यही इसके वैश्विक पारिस्थितिक महत्व को बढ़ाता है.

पशुपालक समुदाय इन क्षेत्रों का प्रबंधन नुकसानदेह माने जाने वाले प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (गंडो बावल) वृक्षों को हटाकर करते हैं, जिससे यह बात तो साफ है कि कैसे इन्हें संवारकर कार्बन सोखने की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है. आर्द्रभूमि और लवणीय झाड़ियां भी पर्याप्त मात्रा में कार्बन संग्रहित करती हैं, जबकि मिश्रित प्रोसोपिस और देसी वनस्पति वाले क्षेत्रों में सबसे कम एसओसी घनत्व दिखता है. इससे पता चलता है कि सिर्फ पेड़ लगाकर कार्बन भंडारण को उतना नहीं बढ़ाया जा सकता जितना पहले सोचा गया था.

शोधकर्ताओं ने अध्ययन के लिए जो तरीका अपनाया वो सरल लेकिन ठोस है. 30 सेमी गहराई तक से जुटाए मिट्टी के नमूनों में एसओसी अनुपात और घनत्व का विश्लेषण किया गया, फिर 2023 भूमि आवरण मानचित्रों का इस्तेमाल कर जमीन की परतों के अनुमानों के अनुसार उनका मूल्यांकन किया गया. एक दशक से अधिक समय तक शोधकर्ताओं ने भूमि परिवर्तनों पर नजर रखी और प्रोसोपिस कवर में चिंताजनक वृद्धि देखी, जो क्षरण का संकेत है. इसके बावजूद एसओसी में बदलाव सांख्यिकीय लिहाज से बहुत ज्यादा नहीं पाया गया. 

ऐसा शायद सैंपलिंग की अलग-अलग गहराई और अपेक्षाकृत नए पेड़-पौधों वाले क्षेत्रों में कार्बन स्थिरीकरण की धीमी गति के कारण हुआ. यह जटिलता एक प्रमुख चुनौती को रेखांकित करती है: जहां इन्हें फिर से स्थापित करने से कार्बन को बढ़ावा मिलता है, वहीं अनियंत्रित प्रोसोपिस दीर्घकालिक एसओसी स्थिरता के लिए खतरा है.

बन्नी का पारिस्थितिक महत्व कार्बन संग्रहण से कहीं आगे तक है. यह उन चरवाहों के लिए एक सांस्कृतिक और आर्थिक जीवनरेखा है जिनके पशुधन इसकी घास पर निर्भर हैं. इसी बात को ध्यान में रखकर गुजरात सरकार ने चारागाह पुनरुद्धार को प्राथमिकता दी है, खासकर प्रोसोपिस को हटाकर देसी घास लगाए जाने को. लगभग 10,000 हेक्टेयर भूमि को फिर से संवारा गया, जिसमें वाड़ों में बाड़ लगाई गईं और डेस्मोस्टैचिया बिपिन्नाटा जैसी देसी प्रजातियों के बीज बोए गए. 

इन प्रयासों से चारे की उपलब्धता बढ़ी और पशुधन और स्थानीय आजीविका को सहारा मिला. यह बात अध्ययन से भी पुष्ट होती है कि एसओसी भंडारण में भी वृद्धि हुई है. हालांकि, बन्नी के 2,32,468 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले 95 फीसद से अधिक क्षेत्र को इस तरह फिर से संवारा नहीं गया है और प्रोसोपिस का फलना-फूलना जारी है, जो 2023 तक करीब 14,658 हेक्टेयर क्षेत्र तक फैल चुका है.

गुजरात सरकार के प्रयास चीतों को यहां बसाने की महत्वाकांक्षी परियोजना से भी जुड़े हैं. बन्नी को 1940 के दशक से भारत में विलुप्त हो चुके चीतों के आवास के लिए एक संभावित स्थल के तौर पर चुना गया था, क्योंकि इसके खुले घास के मैदान चीतों के अफ्रीकी सवाना आवास से मिलते जुलते हैं. 2022 में तैयारियां शुरू हुईं, जिसके तहत आवास लायक स्थितियों का आकलन और शिकार आधार मूल्यांकन यानी उनके भोजन के लिए चिंकारा और काले हिरण आदि की उपलब्धता का पता लगाया गया.

मध्य प्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में अफ्रीका से लाए गए चीतों को बसाने के कारण बन्नी फिलहाल द्वितीय प्राथमिकता है. वहीं, प्रोसोपिस के कारण आवास और शिकार की अपेक्षित स्थितियां न बन पाने की वजह से भी बन्नी को पूरी तरजीह नहीं मिल रही है. हालांकि, गुजरात अपना संरक्षण ढांचा मजबूत कर रहा है, जिसमें शिकार-रोधी उपाय करना और सामुदायिक सहभागिता शामिल है.

हालांकि, प्रोसोपिस को मैन्युअल तरीके से हटाना काफी मेहनत वाला और महंगा काम है. यही वजह है कि इस दिशा में कुछ ठोस नहीं किया जा सका है. कुछ पर्यावरणविद कार्बन-केंद्रित पुनर्स्थापन पर ध्यान केंद्रित करने पर सवाल उठाते हैं, उनका तर्क है कि ये जैव विविधता संरक्षण पर भारी पड़ सकती है. 

पशुपालक वाड़ों की संख्या बढ़ाने पर जोर देते हैं और कहते हैं कि पर्याप्त सरकारी समर्थन के अभाव में बन्नी की क्षमता का नाममात्र का हिस्सा ही उपयोग में आ सका है. चीता परियोजना में भी इसी वजह से पेंच फंसा है, क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र-व्यापी पुनर्स्थापन पर एक प्रमुख प्रजाति को प्राथमिकता दिया जाना चिंता का सबब बना हुआ है.

भान और उनके सहयोगियों का अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि खासकर बन्नी और इसके अलावा भी भारत के शुष्क/अर्ध-शुष्क खुले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों में भविष्य में किसी तरह के बदलाव संबंधी रणनीतियां अधिक सहयोगात्मक और एकीकृत दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए जिसमें स्थानीय समुदायों की तरफ से अपनाए जाने वाले प्रबंधन के तौर-तरीकों को भी समाहित किया जाए. 

अध्ययन का निष्कर्ष कहता है, “हमारे नतीजे मौजूदा समय में भारत में राष्ट्रीय स्तर पर विकसित की जा रही नेशनल ग्रीनलैंड पॉलिसी में शामिल किए जा सकते हैं. नीति-निर्माता तथा भूमि-उपयोग प्रबंधक इनका इस्तेमाल क्षरित भूमि और आगे चलकर प्रोसोपिस के खतरों को घटाने में मार्गदर्शन के लिए भी कर सकते हैं, ताकि भारत के खुले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों में मौजूद प्रचुर मृदा कार्बन संग्रहण क्षमता का अधिकतम इस्तेमाल किया जा सके.”

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