लंबे इंतजार के बाद आखिरकर 14 दिसंबर को उत्तर प्रदेश BJP के नए अध्यक्ष की घोषणा हो ही गई. इस पद पर पंकज चौधरी के निर्वाचन का यह कार्यक्रम राजधानी लखनऊ के राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के सभागार में किया गया. यहां जब उनके नाम की घोषणा हुई तो पूरा सभागार BJP जिंदाबाद, मोदी-मोदी, योगी-योगी के जयघोष से गूंज उठा.
BJP प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्यों ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी का स्वागत किया. इस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति में लंबे समय से चल रही अटकलों पर आखिरकार विराम लग गया. यह सिर्फ एक संगठनात्मक बदलाव नहीं है, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में झटके और 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी के बीच BJP की सामाजिक और राजनीतिक रणनीति का साफ संकेत भी है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अनुभवी, लो-प्रोफाइल लेकिन असरदार नेता को संगठन की कमान सौंपकर पार्टी ने यह जता दिया है कि आने वाली लड़ाइयों में वह नए सिरे से संतुलन साधना चाहती है.
61 वर्षीय पंकज चौधरी यूपी BJP के 15वें अध्यक्ष हैं और राज्य में पार्टी का नेतृत्व करने वाले चौथे कुर्मी नेता. कुर्मी समुदाय, जो यादवों के बाद उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा OBC समूह माना जाता है, लंबे समय से BJP और समाजवादी पार्टी दोनों के लिए रणनीतिक रूप से अहम रहा है. चौधरी की ताजपोशी को इसी सामाजिक गणित के चश्मे से देखा जा रहा है.
पूर्वांचल की मिट्टी से निकला नेता
पंकज चौधरी का राजनीतिक और सामाजिक आधार पूर्वी उत्तर प्रदेश में है. वे गोरखपुर से सटे महाराजगंज लोकसभा सीट से सात बार सांसद रह चुके हैं और फिलहाल इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. पूर्वांचल की राजनीति में उनका नाम किसी तेज-तर्रार या आक्रामक नेता के तौर पर नहीं, बल्कि जमीन से जुड़े, शांत और धैर्यवान जनप्रतिनिधि के रूप में लिया जाता है. उनका जन्म एक राजनीतिक रूप से सक्रिय परिवार में हुआ. उनकी मां उज्ज्वल चौधरी महाराजगंज जिला पंचायत की अध्यक्ष रह चुकी हैं. घर में राजनीति का माहौल था, लेकिन पंकज चौधरी का सफर किसी बड़े पद से नहीं, बल्कि स्थानीय निकाय से शुरू हुआ.
वर्ष 1989 में उन्होंने गोरखपुर नगर निगम का चुनाव जीता और पार्षद बने. इसके बाद वे गोरखपुर के उप महापौर भी रहे. यही वह दौर था, जब उनकी पहचान एक ऐसे नेता के रूप में बनी, जो स्थानीय समस्याओं को समझता है और जनता से सीधे संवाद रखता है. गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे चौधरी ने युवावस्था में ही सार्वजनिक जीवन को अपना लिया था. नगर निगम से संसद तक का उनका सफर इस बात का उदाहरण है कि उन्होंने संगठन और चुनावी राजनीति दोनों को जमीनी स्तर से सीखा.
1991 में पंकज चौधरी पहली बार लोकसभा पहुंचे. तब पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति बाहुबल और जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती थी. चौधरी ने अपने राजनीतिक जीवन में हरि शंकर तिवारी, वीरेंद्र शाही, अखिलेश सिंह और हर्षवर्धन सिंह जैसे प्रभावशाली नेताओं को हराया है. हालांकि उनका सफर लगातार जीतों से भरा नहीं रहा. 1999 में उन्हें समाजवादी पार्टी के अखिलेश सिंह से हार का सामना करना पड़ा. 2004 में उन्होंने वापसी की, लेकिन 2009 में कांग्रेस उम्मीदवार हर्षवर्धन से हार गए. इसके बावजूद, 2014 में नरेंद्र मोदी लहर के साथ उन्होंने फिर से महाराजगंज सीट जीती और तब से लगातार संसद में हैं.
2021 से पंकज चौधरी नरेंद्र मोदी सरकार में वित्त राज्य मंत्री के रूप में कार्यरत हैं. यह भूमिका उन्हें केंद्र की आर्थिक नीतियों और राजस्व से जुड़े अहम फैसलों के केंद्र में रखती है. पार्टी के भीतर उन्हें ऐसा नेता माना जाता है, जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सीधा और भरोसेमंद कामकाजी रिश्ता है. इस निकटता का सबसे चर्चित उदाहरण 7 जुलाई 2023 का है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोरखपुर में गीता प्रेस के शताब्दी समारोह में शामिल होने आए थे. तय कार्यक्रम से हटकर वे अचानक पंकज चौधरी के घर पहुंच गए. गोरखपुर के घंटाघर के पास हरिवंश गली में स्थित उनका घर एक संकरी सड़क पर है, जहां प्रधानमंत्री का काफिला नहीं जा सका. मोदी, राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ करीब 150–200 मीटर पैदल चलकर चौधरी के घर पहुंचे. राजनीतिक हलकों में इसे महज एक शिष्टाचार भेंट नहीं, बल्कि एक मजबूत संदेश के तौर पर देखा गया.
राजनीति के अलावा पंकज चौधरी का एक मजबूत कारोबारी आधार भी है. वे “हरबंसराम भगवानदास” नाम की फर्म के मालिक हैं, जो आयुर्वेदिक तेल ‘राहत रूह’ का निर्माण करती है. यह तेल खासकर उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में काफी लोकप्रिय है. उनके बिजनेस बैकग्राउंड ने उन्हें एक स्वतंत्र आर्थिक शक्ति वाला नेता बनाया है. उनके चुनावी हलफनामे के अनुसार, 2024 में उनकी घोषित संपत्ति 41.9 करोड़ रुपये से ज्यादा है. 2004 में यह आंकड़ा एक करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा था. करीब दो दशकों में संपत्ति में आई यह बढ़ोतरी उनके व्यवसाय के विस्तार और लंबे राजनीतिक करियर से जोड़ी जाती हैं. समर्थक इसे उनकी उद्यमशीलता का उदाहरण मानते हैं, जबकि आलोचक इसको लेकर सवाल उठाते हैं.
संगठन बनाम सरकार की राजनीति
पंकज चौधरी की नियुक्ति को समझने के लिए योगी आदित्यनाथ के साथ उनके रिश्तों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. दिलचस्प यह है कि दोनों एक ही गोरखपुर बेल्ट से आते हैं, लेकिन चौधरी को कभी भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के करीबी नेताओं में नहीं गिना गया. BJP के भीतर यह बात खुलकर कही जाती है कि गोरखपुर ज़ोन में वे एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी अपील योगी से अलग है.
पार्टी सूत्रों के मुताबिक, हाईकमान की यह साफ सोच रही है कि संगठन और सरकार समानांतर, लेकिन अलग इकाइयां हैं.
बीते कुछ वर्षों में स्वतंत्र देव सिंह जैसे नेता मुख्यमंत्री के करीबी माने जाने लगे थे, जबकि इस बार पार्टी एक ऐसे चेहरे की तलाश में थी, जो गैर-यादव OBC हो, अनुभवी हो और सीधे केंद्रीय नेतृत्व से जुड़ा हो. पंकज चौधरी इस कसौटी पर फिट बैठे. BJP के भीतर पंकज चौधरी को एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है, जो विवादों से दूर रहते हैं और भड़काऊ बयानों से बचते हैं. वे स्थानीय कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहते हैं और संगठन की बातों को धैर्य से सुनते हैं.
अमित शाह ने 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक जनसभा में उन्हें “BJP के सबसे अनुभवी सांसदों में से एक” बताया था और कहा था कि उनके जैसा सांसद ढूंढना मुश्किल है. उनकी यही छवि शायद उन्हें हाईकमान की पसंद बनाती है. एक वरिष्ठ BJP नेता के मुताबिक, चौधरी का फायदा यह भी है कि वे न तो किसी गुट के आक्रामक नेता हैं और न ही मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते हैं. इस वजह से संगठन में उन्हें एक संतुलित चेहरा माना जा रहा है.
प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पंकज चौधरी के सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन को फिर से मजबूत करना और 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए जमीन तैयार करना है. इसके अलावा, अगले साल होने वाले तीन-स्तरीय पंचायत चुनाव भी उनके नेतृत्व की पहली बड़ी परीक्षा होंगे. योगी आदित्यनाथ के साथ उनके संबंधों पर भी सबकी नजर रहेगी. पंकज चौधरी का राजनीतिक सफर स्थानीय पार्षद से लेकर राज्य अध्यक्ष तक पहुंचा है. अनुभव, सामाजिक पहचान, केंद्र से निकटता और शांत स्वभाव का यह मिश्रण उन्हें इस पद के लिए खास बनाता है. सवाल सिर्फ यह है कि क्या वह पूर्वी उत्तर प्रदेश की नाराजगी, कुर्मी समुदाय की अपेक्षाओं और संगठन के भीतर के संतुलन को साध पाएंगे.

