समुद्र का किनारा, आती-जाती लहरें आंखों को सुकून देती लगती हैं. लेकिन यही लहरें जब महातरंग बनकर तटों से टकराती हैं तो वहां के स्थानीय लोगों को काफी तकलीफ का सामना करना पड़ता है. फिलहाल केरल के कई तटीय इलाकों का हाल कुछ ऐसा ही बना हुआ है.
31 मार्च से इन ऊंची समुद्री लहरों के कारण राज्य के तटीय इलाकों पर बने सैकड़ों घरों में पानी घुस गया है. बाढ़ की स्थिति है. सबसे बुरी हालत अलाप्पुझा, कोल्लम और तिरुवनंतपुरम जिले की है. अधिकारियों ने आपदा से प्रभावित लोगों के लिए राहत शिविर का इंतजाम किया है.
इस राहत शिविर में मौजूद अनेक प्रभावित लोगों में से एक महिला कनकम्मा ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा, "हमारे पीने के जलस्रोत दूषित हो गए हैं. हमें पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के रूप में महामारी फैलने का खतरा नजर आ रहा है." अभी तक प्राप्त जानकारी के मुताबिक, इस घटना से किसी भी व्यक्ति के हताहत होने की खबर नहीं है.
आमतौर पर समुद्र के तटीय इलाकों को विभिन्न चक्रवातों, हरीकेन्स और सुनामी जैसी भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है. लेकिन समुद्री महातरंगें (स्वेल वेव्स) इनसे अलग होती हैं. ये भी लपेटे में आने वालों के जान-माल को नुकसान पहुंचा सकती हैं लेकिन सुनामी और हरीकेन्स के बनिस्बत इनकी मारक क्षमता कम होती है. मलयालम में इन महातरंगों को 'कल्लक्कडल' कहा जाता है. आइए इनके बारे में विस्तार से जानते हैं.
कल्लक्कडल मूल रूप से तटीय बाढ़ की स्थिति है जो मानसून से पहले (अप्रैल-मई में) भारत के दक्षिण-पश्चिमी तटीय इलाकों में घटित होती है. कल्लक्कडल मलयालम के दो शब्दों से मिलकर बना है, कल्लन और कडल. कल्लन माने चोर और कडल माने समुद्र.
स्थानीय मछुआरों द्वारा और वहां की बोलचाल की भाषा में इन दोनों शब्दों को मिलाकर कल्लक्कडल कहा जाता है. जिसका मतलब हुआ, वो समुद्र जो चोर सरीखे चोरी-छुपे आता हो. इस टर्म को साल 2012 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन यानी यूनेस्को ने भी औपचारिक रूप से मान्यता प्रदान कर दी. अब सवाल उठता है कि ये घटना आखिर होती क्यों है, इसके पीछे की वजह क्या है?
2016 में एजीयू जर्नल में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक, इस घटना के पीछे की जो वजह है वो उत्तरी हिंद महासागर में उठने वाली ऊंची समुद्री लहरों और दक्षिणी हिंद महासागर के ऊपर मौसम संबंधी स्थितियों के बीच 'टेलीकनेक्शन' है. टेलीकनेक्शन का मतलब होता है- विभिन्न स्थानों में मौसम की घटनाओं के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध.
समुद्र में लहरें स्थानीय हवाओं की वजह से नहीं उठतीं बल्कि दूर के तूफान जैसे हरीकेन्स या फिर लंबे समय तक चलने वाली भयंकर तूफानी हवाओं के कारण बनती हैं. इसे ऐसे समझिए कि हवाएं उच्च दबाव से कम दबाव (हाई प्रेशर टु लो प्रेशर) की ओर यात्रा करती है. जब हवाएं गर्म होकर ऊपर की ओर उठती हैं तो वह स्थान खाली हो जाता है और वहां कम दबाव का क्षेत्र बनता है. उस रिक्त स्थान को भरने के लिए ठंडी हवाएं उस ओर जाना शुरू करती हैं. इस दौरान वे अपने साथ ऊर्जा, आर्द्रता भी संचित करती जाती हैं.
हवा से पानी में जब भारी मात्रा में ऊर्जा का स्थानांतरण होता है तो ऊंची-ऊंची लहरें बननी शुरू होती हैं. और इस तरह की लहरें समुद्र में हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर सकती हैं जब तक वे किनारों या तटों से न टकरा जाएं. कल्लक्कडल के बारे में बात करें तो हिंद महासागर के दक्षिणी भाग में तेज हवाओं की वजह से ये लहरें उठनी शुरू होती हैं. अगले दो-तीन दिनों में ये महातरंगों का रूप ले लेती हैं और उत्तर की ओर यात्रा कर तटों से जा टकराती हैं.
हालिया घटनाक्रम में 25 मार्च के आसपास भारत के दक्षिणी-पश्चिमी तटीय क्षेत्र में कम दबाव वाला क्षेत्र बनना शुरू हुआ. स्पष्ट रूप में कहें तो यह भारतीय तटों से करीब 10 हजार किमी. दूर दक्षिणी अटलांटिक महासागर से यहां शिफ्ट हुआ. दबाव प्रणाली के यहां शिफ्ट होने के दौरान बहुत तेज हवाएं चलीं और करीब 11 मीटर की ऊंचाई वाली लहरों का निर्माण हुआ. अब यही लहरें बीते रविवार से केरल और लक्षद्वीप के तटों से टकरा रही हैं.
कल्लक्कडल के साथ दिक्कत यह है कि इसके घटित होने से पहले आसानी से कोई संकेत नहीं मिलता. परिणामस्वरूप तटीय आबादी के लिए अग्रिम चेतावनी प्राप्त करना मुश्किल होता है. इससे पार पाने के लिए साल 2020 में केंद्रीय एजेंसी भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (INCOIS) ने 'स्वेल सर्ज फोरकास्ट सिस्टम' जैसी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली शुरू की, जो घटना से सात दिन पहले चेतावनी जारी कर देती है.