उत्तर प्रदेश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सबसे बड़ी परीक्षा केवल विपक्ष से नहीं, बल्कि अपने सहयोगियों से भी है. 2027 केे विधानसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का कुनबा- निषाद पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) और अपना दल (एस), लगातार दबाव की राजनीति कर रहा है. इन दलों की हालिया गतिविधियां साफ संकेत देती हैं कि गठबंधन सिर्फ “सत्ता साझेदारी” नहीं बल्कि “एजेंडा साझेदारी” भी चाहता है.
हाल ही में उत्तर प्रदेश के मत्स्य पालन मंत्री और निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने दिल्ली में बीजेपी के छोड़कर एनडीए के बाकी सहयोगी दलों के साथ अपना स्थापना दिवस मनाया था और साथ ही निषाद समुदाय की 17 उपजातियों को अनुसूचित जाति (एससी) में आरक्षण देने की मांग उठाई थी. इसके बाद 26 अगस्त को उन्होंने कहा कि अगर बीजेपी को लगता है कि उसे गठबंधन से कोई फायदा नहीं हो रहा है, तो वह गठबंधन से बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र है.
गोरखपुर के एनेक्सी भवन सभागार में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए, निषाद ने यह भी कहा कि किसी को भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत बिना सहयोगियों के हुई है. उन्होंने कहा, "यह जीत सभी सहयोगियों की सामूहिक ताकत से मिली है. आशीष पटेल अपने समुदाय को जोड़ते हैं, राजभर जी राजभर समुदाय को जोड़ते हैं, आरएलडी जाट समुदाय को जोड़ता है और निषाद पार्टी मछुआरा समुदाय को जोड़ती है. वर्ष 2022 में, जब आरएलडी और राजभर जी सपा के साथ गए, तो उनकी सीटें 45 से बढ़कर 125 हो गईं."
निषाद ने बीजेपी को समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के "आयातित नेताओं" से सावधान रहने की चेतावनी भी दी. छोटे सहयोगियों के सम्मान से जुड़े एक सवाल पर उन्होंने कहा, "हम - सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल, निषाद पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल- बीजेपी के सहयोगी हैं. अगर बीजेपी को लगता है कि हम अपने समाज को सही दिशा में ले जा रहे हैं, तो गठबंधन जारी रहना चाहिए. लेकिन अगर विश्वास नहीं है, तो वे इसे तोड़ सकते हैं."
इससे पहले दिल्ली में उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पिछड़ा वर्ग के सहयोगियों की एक सभा, जिसमें सत्तारूढ़ दल के प्रमुख नेता अनुपस्थित थे, ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी थी. खुद को "वास्तविक पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्याक) मंच" बताते हुए, जाट, राजभर, निषाद और पटेल जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली चारों पार्टियों ने 20 अगस्त को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में बीजेपी और विपक्ष, दोनों का ध्यान आकर्षित किया था.
यहां बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं को आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे नहीं आ सके, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश बीजेपी के अन्य वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति पर भी सवाल उठे.
कार्यक्रम में निषाद पार्टी के नेता और राज्य मंत्री संजय निषाद ने आरक्षण की मांग पर ध्यान न दिए जाने पर उत्तर प्रदेश विधानसभा का घेराव करने का आह्वान किया. निषाद पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, “महाराज (योगी आदित्यनाथ) लखनऊ और गोरखपुर में हमारे कार्यक्रमों में हमेशा मौजूद रहे हैं. चूंकि यह कार्यक्रम दिल्ली में था इसलिए हमने नड्डा जी को व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित करने के बारे में सोचा, लेकिन उपराष्ट्रपति पद के नामांकन की प्रक्रिया के कारण वे इसमें शामिल नहीं हो सके. यह निश्चित रूप से एक दुर्लभ अवसर बन गया, जहां एनडीए के सभी सहयोगी इस तरह एक मंच पर एकजुट हुए. इससे हम सभी को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा है कि शायद भविष्य में भी ऐसे और भी अवसर आएं.”
सभा में निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के अलावा एसबीएसपी के ओम प्रकाश राजभर, अपना दल (एस) के आशीष पटेल मौजूद थे. जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली आरएलडी, जिसके खिलाफ हाल ही में बीजेपी के एक कैबिनेट मंत्री और जाट नेता चौधरी लक्ष्मी नारायण ने हमला बोला था, ने अपने विधायक चंदन चौहान को रैली में भेजा था.
बीजेपी के सहयोगियों की एकजुटता यह स्पष्ट संकेत दे रही है कि विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये दल अब मुद्दा-दर-मुद्दा दबाव की राजनीति पर उतर आए हैं. मछुआरा समुदाय के लिए अनुसूचित जाति (एससी) आरक्षण की मांग को निषाद पार्टी ने चुनावी ‘रेड लाइन’ बना दिया है. पार्टी प्रमुख और यूपी सरकार में मंत्री संजय निषाद ने जुलाई-अगस्त 2025 के बयानों में साफ़ कहा कि वादा पूरा न हुआ तो 2027 से पहले गठबंधन पर पुनर्विचार होगा. साथ ही विधानसभा घेराव जैसे आक्रामक कार्यक्रमों की टोन भी रखी गई. यह लाइन बीजेपी की सोशल-इंजीनियरिंग पर सीधा दबाव है, क्योंकि पश्चिम-पूर्व यूपी की कई सीटों पर यह समुदाय निर्णायक है.
वहीं राजभर की पार्टी एसबीएसपी की मांग ‘ओबीसी के भीतर सर्वाधिक व अति पिछड़ों (एमबीसी) के लिए अलग उप-कोटा’ लागू करने की है. पार्टी ने बाबा साहेब आंबेडकर जयंती जैसे प्रतीकात्मक मौकों को अभियान के रूप में चुनकर, राज्य सरकार पर यह दिखाने का दबाव बढ़ाया कि अगर हरियाणा जैसे राज्य कर सकते हैं तो यूपी क्यों नहीं. यह मांग प्रशासनिक-कानूनी रूप से संभव है (एससी-एसटी में वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के 2023 फैसले की पृष्ठभूमि), इसलिए इसे टाला गया तो सहयोगी का ‘नैरेटिव’ और मुखर होगा.
अपना दल की अध्यक्ष और केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले ‘परफॉर्मेंस अपग्रेड’ का लक्ष्य रखकर, पार्टी का विस्तार कोर कुर्मी वोटबेस से बाहर तक किया है. जिलावार संगठन, नई नियुक्तियां, और यहां तक कि एक अलग ‘ओबीसी मंत्रालय’ के केंद्रीय विमर्श को हवा देकर सत्तारूढ़ बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश की है.
पश्चिमी यूपी में साख और गन्ना-किसान मुद्दों पर पकड़ रखने वाला आरएलडी अब राज्यव्यापी फुटप्रिंट बढ़ाने के लिए बड़े संगठनात्मक फेरबदल के मोड में है (नए प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय अध्यक्ष का औपचारिक चुनाव आदि). साथ ही, राज्य सरकार के एक मंत्री की आलोचनात्मक टिप्पणी पर ‘कैबिनेट से हटाने’ जैसी कड़ी राजनीतिक मांग रखकर आरएलडी ने संकेत दिया कि वह केवल जूनियर पार्टनर नहीं है, उसकी ‘सम्मान की रेखा’ है. इससे बीजेपी को सार्वजनिक रूप से पीछे हटने पर मजबूर भी होना पड़ा है.
सहयोगियों की बढ़ती आक्रमकता को राजनीतिक विश्लेषक सौदेबाजी की रणनीति करार दे रहे हैं. लखनऊ के शिया कालेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के सहायक प्रोफेसर अमित राय कहते हैं, “योगी मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार और 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले टिकटों की बड़े पैमाने पर काट-छांट की अंदरूनी चर्चा, सहयोगियों के लिए दबाव का अवसर है. वे अपने कोटे के मंत्रालय, बोर्ड-निगम पद, और 2027 के टिकट-मैप में ‘गारंटी’ चाहेंगे. बीजेपी का आंतरिक सर्वे यह संकेत दे रहा है कि सिटिंग चेहरों को हटाने में पार्टी हिचकिचाएगी नहीं, इसीलिए सहयोगी अपने प्रभावक्षेत्र वाली सीटों पर अतिरिक्त दावा ठोक रहे हैं.”
वहीं बीजेपी के सहयोगी साझा मंच, सोशल मीडिया सक्रियता और राजधानी बैठकों से ‘हम साथ-साथ हैं’ का संदेश देकर यह दिखाना चाहते हैं कि वे एक ब्लॉक के रूप में अपनी बड़ी सहयोगी पार्टी से डील करने के मूड में हैं. विधानसभा घेराव, वर्षगांठ-आधारित सम्मेलन, ‘कम्युनिटी-मेगा मीट’ जैसे औजार से ये सहयोग दल अपने कार्यकार्ताओं का मनोबल बढ़ाने के साथ बीजेपी की “चैनलाइज़्ड” दबाव की रणनीति बना रहे हैं.
यूपी में सहयोगी दलों की गतिविधियों पर नजर रखते हुए बीजेपी ने आधिकारिक लाइन में “मतभेद नहीं” का संदेश दिया है, ताकि गठबंधन की दरारों का नैरेटिव न बने. समानांतर में, वह 2027 से पहले बड़े पैमाने पर परफॉर्मेंस-आधारित टिकटिंग और सूक्ष्म सामाजिक इंजीनियरिंग (ओबीसी-MBC माइक्रो टार्गेटिंग, गैर-जाटव SC, निषाद/बोटमेन, पसमांदा आउटरीच) पर काम कर रही है जिससे सहयोगियों की मोलभाव की शक्ति सीमित रहे. लेकिन बीजेपी की यही रणनीति सहयोगी दलों को चिढ़ा भी रही है.
बीजेपी के असली परीक्षा एससी व ओबीसी आरक्षण जैसे बड़े वादों पर ठोस निर्णय और कैबिनेट व कॉरपोरेशन में ‘इज़्ज़त-के-साथ’ हिस्सेदारी दिलाने की राजनीतिक कला की होगी. दरअसल यहीं से तय होगा कि दबाव ‘डील’ में बदलता है या ‘डिफेक्ट’ में.