जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में 2027 का विधानसभा चुनाव नजदीक आता जा रहा है, प्रदेश की राजनीति में वोटर लिस्ट की पारदर्शिता को लेकर विवाद भी तेज होता जा रहा है. समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक बार फिर जोर-शोर से यह आरोप लगाया है कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में एक साजिश के तहत मतदाताओं के नाम काटे गए थे.
सपा अध्यक्ष का कहना है कि तब पार्टी ने चुनाव आयोग को 18 हज़ार शपथपत्र दिए थे जिनमें कथित गड़बड़ियों और अनियमितताओं का ब्योरा था, लेकिन आयोग ने इन पर ध्यान नहीं दिया. आयोग की ओर से यह तक कह दिया गया कि कोई हलफनामा मिला ही नहीं.
इस बीच अचानक कासगंज, बाराबंकी और जौनपुर के जिलाधिकारियों की सफाई सामने आई है, जिन्होंने अपने-अपने जिलों में आई शिकायतों को निराधार बताते हुए कहा है कि मतदाताओं के नाम केवल नियमों के तहत ही हटाए गए थे.
अखिलेश यादव का आरोप है कि इन जिलों में विशेष रूप से ‘कुछ समुदायों’ को निशाना बनाकर वोटर लिस्ट से उनके नाम हटाए गए और यह सब बीजेपी, चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से हुआ. उन्होंने 18 अगस्त को संसद परिसर में पत्रकारों से कहा कि अमनपुर, कुर्सी, जौनपुर सदर और बख्शी का तालाब जैसे विधानसभा क्षेत्रों में चुनिंदा लोगों के नाम काटे गए. इन चारों सीटों पर 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ही जीत दर्ज की थी.
कुर्सी विधानसभा सीट पर तो 2022 में बेहद कड़ा मुकाबला हुआ और बीजेपी केवल 217 वोटों से अपनी सीट बचा पाई. इसकी तुलना 2017 से की जाए तो तस्वीर और साफ हो जाती है क्योंकि उस चुनाव में बीजेपी ने यही सीट तीस हज़ार वोटों के भारी अंतर से जीती थी. जौनपुर सदर सीट पर भी मुकाबला दिलचस्प रहा. 2017 और 2022 के बीच बीजेपी का वोट शेयर थोड़ा घटा जबकि सपा का वोट शेयर काफी बढ़ गया. यह सीट धीरे-धीरे कांटे की टक्कर वाली बन गई है. अमनपुर में बीजेपी ने लगातार 20 फीसदी से अधिक की औसत बढ़त बनाए रखी. बख्शी का तालाब में बीजेपी का दबदबा कायम रहा, लेकिन यहां बीएसपी की जगह सपा मुख्य विपक्षी बनकर उभरी. इन सभी आंकड़ों को देखते हुए अखिलेश का आरोप गंभीर हो जाता है कि वोटर लिस्ट से नाम काटकर बीजेपी ने अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की.
जिलाधिकारियों की सफाई इस आरोप को ठुकराने वाली रही. बाराबंकी के डीएम शशांक त्रिपाठी ने कहा कि कुर्सी सीट पर दो मतदाताओं के नाम हटाए जाने की शिकायत मिली थी, लेकिन जांच में पाया गया कि दोनों ही नाम वोटर लिस्ट में मौजूद थे. जौनपुर के डीएम दिनेश चंद्र ने बताया कि जौनपुर सदर में जिन पांच नामों को हटाए जाने की शिकायत थी, उनका 2022 से पहले ही निधन हो चुका था और उनके परिवार तथा स्थानीय पार्षद ने इसकी पुष्टि की. कासगंज के डीएम प्रणय सिंह ने कहा कि अमनपुर में आठ नामों को लेकर शिकायत आई थी. जांच से पता चला कि सात मतदाताओं के नाम दोहराए गए थे और उन्हें हटाया गया. आठवें मतदाता का नाम उनकी पत्नी द्वारा दिए गए मृत्यु संबंधी शपथपत्र के आधार पर काटा गया.
इन सफाइयों के बावजूद अखिलेश का सवाल जस का तस बना हुआ है. अखिलेश का कहना है कि डीएम के जवाबों ने एक बात तो साफ कर दी है कि चुनाव आयोग का यह दावा गलत था कि एफिडेविट मिले ही नहीं थे. अगर कोई एफिडेविट मिला ही नहीं था तो जिलाधिकारी आखिर सफाई किस बात की दे रहे हैं. उन्होंने सवाल उठाया कि जब मतदाताओं के नाम हटाए गए थे तो उस वक्त मृतक प्रमाणपत्र कहां हैं. यदि सब कुछ नियमानुसार था तो जवाब देने में इतने साल क्यों लग गए. अखिलेश के मुताबिक यह साफ तौर पर दर्शाता है कि आयोग और डीएम में से कोई एक झूठ बोल रहा है और इस पूरे मामले की गहन जांच-पड़ताल होनी चाहिए.
बीजेपी की ओर से इन आरोपों को राजनीतिक हताशा बताया गया. बीजेपी के प्रवक्ता समीर सिंह कहते हैं, “जब सपा हारती है तो चुनाव आयोग, ईवीएम और वोटर लिस्ट सब कुछ गलत लगता है और जब जीतती है तो सब सही.” बीजेपी का दावा है कि वोटर लिस्ट का पुनरीक्षण एक नियमित प्रक्रिया है जिसमें मृतकों के नाम और डुप्लीकेट नाम हटाना ज़रूरी होता है, इसमें किसी तरह की साज़िश नहीं होती. बीजेपी नेताओं का यह भी कहना है कि अगर चुनाव आयोग सचमुच निष्पक्ष न होता तो सपा और कांग्रेस गठबंधन लोकसभा चुनाव में कैसे जीत पाता.
अखिलेश यादव के आरोपों पर एक सवाल इसलिए भी खड़ा होता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में जब सपा और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा तो इन्हीं विधानसभा क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाली लोकसभा सीटों पर गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया. सपा ने एटा संसदीय सीट (अमनपुर विधानसभा क्षेत्र सहित), मोहनलालगंज (बख्शी का तालाब सहित) और जौनपुर (जौनपुर सदर सहित) से चुनाव लड़ा, जबकि कांग्रेस ने बाराबंकी (कुर्सी सहित) से चुनाव लड़ा. गठबंधन ने चारों लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की. बाराबंकी में कांग्रेस बीजेपी से 47,000 वोटों से आगे रही. जौनपुर में सपा को बीजेपी पर 22,000 वोटों की बढ़त मिली. यह नतीजे बताते हैं कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मतदाता का रुझान बदल सकता है लेकिन सपा का आरोप पूरी तरह से निराधार नहीं माना जा सकता.
असल सवाल यही है कि आखिर डीएम इतने सालों बाद सफाई देने क्यों सामने आए? क्या यह सचमुच केवल एक प्रशासनिक जवाब था या सपा के बढ़ते हमले के दबाव में प्रशासन सक्रिय हुआ? यही वो बिंदु है जिस पर अब सियासत गरमा गई है. अखिलेश बार-बार कह रहे हैं कि लोकतंत्र को बचाना है तो चुनाव आयोग की निष्पक्षता की गारंटी होनी चाहिए, वरना जनता का भरोसा टूट जाएगा. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जब तक चुनाव आयोग खुद आगे आकर सारे सवालों के स्पष्ट और पारदर्शी जवाब नहीं देगा, तब तक अविश्वास की यह स्थिति बनी रहेगी. लखनऊ के शिया कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक अमित राय कहते हैं, “यह पूरा मामला केवल तकनीकी नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा है. अगर वास्तव में नाम काटे गए थे तो यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है. अगर आरोप बेबुनियाद हैं तो यह विपक्ष की रणनीति मात्र है. लेकिन किसी भी सूरत में यह विवाद अब एक स्थायी बहस का रूप ले चुका है.”
अखिलेश यादव वोटर लिस्ट को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में
सपा ने अब इसे एक व्यापक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बना दिया है. त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के लिए वोटर लिस्ट पुनरीक्षण शुरू हुआ है और सपा ने बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी सौंपी है कि वे मतदाता सूचियों पर कड़ी नज़र रखें. जिनके नाम कटे हैं उनसे आधार या पहचान पत्र की प्रति ली जाएगी, जरूरत पड़ने पर शपथपत्र भरवाए जाएंगे और जिला व तहसील स्तर पर निगरानी समितियां बनाई जाएंगी.
इन समितियों की रिपोर्ट राज्य स्तर पर रिकॉर्ड के रूप में तैयार की जाएगी. पार्टी की योजना है कि पंचायत चुनाव से लेकर अगले विधानसभा चुनाव तक यही रणनीति अपनाई जाए ताकि बीजेपी द्वारा संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के आरोप को जनता के बीच मजबूत किया जा सके.
अखिलेश यादव का यह अभियान केवल 2022 का हिसाब मांगने तक सीमित नहीं है. यह वर्ष 2027 विधानसभा चुनावों की तैयारी का हिस्सा है. पंचायत चुनावों से लेकर आगामी पुनरीक्षण अभियानों तक सपा यह नैरेटिव बनाना चाहती है कि बीजेपी संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करती है और चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है. बीजेपी के लिए चुनौती यह है कि वह इन आरोपों को केवल राजनीतिक बयान साबित करे और जनता के बीच आयोग की विश्वसनीयता बनाए रखे. उत्तर प्रदेश की राजनीति में वोटर लिस्ट विवाद अब ईवीएम की तरह एक स्थायी बहस बन गया है.
अगर सपा इस नैरेटिव को 2027 तक जिंदा रखने में कामयाब रही तो यह बीजेपी के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है. अखिलेश लगातार यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर सब कुछ सही था तो जिलाधिकारियों को सफाई देने में इतने साल क्यों लगे. यही सवाल अब उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र बन गया है.