scorecardresearch

“जज़्बातों ने खामोशी से बात की…” लेकिन अखिलेश-आज़म असल राजनीतिक मेल से कितनी दूर?

रामपुर में 8 अक्टूबर को अखिलेश यादव और आज़म खान की भावनात्मक मुलाकात हुई. इसने दोनों के बीच खटपट की अफवाहों पर विराम तो लगा दिया लेकिन कई पेच अभी-भी उलझे हुए हैं

Akhilesh Yadav meets Azam Khan, Akhilesh Yadav calls Azam Khan heartbeat, Azam Khan false cases news, Akhilesh Yadav latest statement on Azam Khan, Samajwadi Party leaders meeting news
आज़म खान के साथ अखिलेश यादव
अपडेटेड 9 अक्टूबर , 2025

समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता आज़म खान और पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की 8 अक्टूबर को रामपुर में हुई मुलाकात महज औपचारिक भेंट नहीं थी. इसे एक राजनीतिक पुनर्मिलन कहा जाना ज्यादा सही होगा जिसने पार्टी के भीतर लंबे समय से चली आ रही खामोश तनातनी को विराम देने की कोशिश की. 

अखिलेश के चार्टर्ड फ्लाइट से बरेली पहुंचने और वहां से हेलीकॉप्टर द्वारा सीधे रामपुर के मौलाना जौहर अली विश्वविद्यालय उतरने का फैसला अपने आप में प्रतीकात्मक था. यह वही संस्थान है जिसे आज़म खान ने अपनी जिंदगी का सपना मानकर खड़ा किया और जिसके चलते वे बीजेपी सरकार के निशाने पर आए.

इस मुलाकात ने न केवल आज़म खान की वापसी का ऐलान किया बल्कि यह भी साफ किया कि अखिलेश यादव आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले मुस्लिम राजनीति में बिखराव नहीं चाहते. जेल से रिहा होने के बाद आज़म खान सियासत में अपनी जगह और सम्मान की पुनर्स्थापना के दौर से गुजर रहे हैं. करीब दो साल जेल में बिताने और सौ से अधिक मुकदमों का सामना करने के बावजूद, आज़म आज भी उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति में सबसे बड़ा चेहरा बने हुए हैं. इसी वजह से अखिलेश का उनके घर जाकर मिलना सिर्फ एक सम्मान नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति भी थी. 

भावनात्मक पलों से भरी मुलाकात

अखिलेश यादव जैसे ही जौहर विश्वविद्यालय में उतरे, आज़म खान ने खुद जाकर उनकी अगवानी की. दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया और कई मिनट तक बातचीत के दौरान भावुक दिखाई दिए. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि आज़म की आंखें नम थीं और अखिलेश भी सहज नहीं रह पाए. मुलाकात करीब दो घंटे चली, जो तय समय से कहीं ज्यादा थी. इस दौरान किसी अन्य नेता, विधायक या सांसद को पास नहीं आने दिया गया. यह आज़म की पुरानी राजनीतिक शैली का हिस्सा भी था, अपनी अहमियत दिखाना और यह जताना कि अभी भी उनके बिना रामपुर या पश्चिमी यूपी की सपा अधूरी है. मुलाकात के बाद अखिलेश ने आज़म को एक कलम भेंट की. इसे प्रतीक के रूप में देखा गया-शिक्षा और विचार की उस विरासत का जिसे आज़म ने ‘जौहर यूनिवर्सिटी’ के रूप में खड़ा किया.

मुलाकात के बाद अखिलेश ने सोशल मीडिया पर लिखा- “क्या कहें भला उस मुलाकात की दास्तां...जहाँ जज़्बातों ने खामोशी से बात की.” यह भावुकता राजनीतिक संदेशों से कहीं गहरा असर छोड़ गई. राजनीतिक विश्लेषक पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह इस मुलाकात को सपा के मुस्लिम जनाधार को एकजुट रखने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं. लखनऊ के प्रतिष्ठ‍ित अवध कालेज की प्राचार्य बीना राय बताती हैं, “पिछले कुछ समय से यह धारणा बन रही थी कि आज़म खान पार्टी से नाराज हैं और सपा में उनकी पकड़ कमजोर पड़ रही है. जेल से रिहाई के बाद उन्होंने कई बार बिना नाम लिए अखिलेश यादव पर तंज भी कसे. उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें जेल से लेने कोई बड़ा नेता नहीं आया. ऐसे में अखिलेश का खुद रामपुर जाना और आज़म को सार्वजनिक रूप से सम्मान देना, इस नाराजगी को दूर करने की दिशा में बड़ा कदम था.”

इससे पार्टी कार्यकर्ताओं को यह संदेश भी गया कि सपा अपने संस्थापक नेताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती. पश्चिमी यूपी में आज़म का प्रभाव सिर्फ रामपुर तक सीमित नहीं है. वे संभल, मुरादाबाद, अमरोहा, बिजनौर और बरेली तक मुस्लिम समाज में गहरी पकड़ रखते हैं. इन इलाकों में 60 से ज्यादा विधानसभा सीटें आती हैं जिनमें आधे से ज्यादा पर मुस्ल‍िम आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है. बीना राय बताती हैं, "यही वह इलाका है जहां सपा का पारंपरिक ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण बार-बार सत्ता का रास्ता बनाता रहा है. इसलिए वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले आज़म खान सपा के लिए जरूरी हो गए हैं. 8 अक्टूबर की मुलाकात में अखिलेश को दो घंटे रोककर और बाकी नेताओं को बाहर रखकर आज़म खान यह साबित किया कि उनकी ‘हनक’ अभी कायम है.”

पार्टी संगठन के सामने चुनौती

इस मुलाकात का दूसरा बड़ा पहलू रामपुर के सपा सांसद मोहिबुल्लाह नदवी हैं. नदवी, जो अखिलेश के करीबी माने जाते हैं, आज़म की नजर में लंबे समय से ‘गैर-जरूरी’ हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने आज़म की मर्जी के खिलाफ नदवी को टिकट दिया था और वे जीत भी गए. आज़म खान के जेल में रहने के दौरान एक बार सांसद मोहिबुल्लाह ने बोल दिया था कि 'वे सुधार गृह में हैं.' इसके बाद से आज़म और चिढ़ गए. उन्होंने अपने एक बयान में कहा भी कि "वे सुधार गृह से आए हैं मगर अभी सुधरे नहीं हैं.” यह तंज आज़म की नाराजगी का खुला इज़हार था. 

इसी तरह मीहिबुल्लाह नदवी के नाम पर आज़म खान ने मीडिया से कहा था, "मैं तो उन्हें जानता ही नहीं.” कुल मिलाकर रामपुर के वर्तमान और पूर्व सांसद के बीच रिश्ते ठीक नहीं हो पा रहे हैं. 8 अक्टूबर की मुलाकात के लिए जब अखिलेश बरेली पहुंचे तो नदवी उनके साथ थे. लेकिन रामपुर पहुंचने से पहले अखिलेश ने हेलीकॉप्टर में अकेले सवार होकर जाने का फैसला किया. नदवी दिल्ली लौट गए. यह संकेत साफ था कि आज़म और अखिलेश की मुलाकात के बीच कोई तीसरा नहीं होगा. इस कदम ने यह भी दिखाया कि अखिलेश इस बार आज़म के साथ ‘सम्मान की दूरी’ बनाए रखते हुए रिश्ते सुधारना चाहते हैं.

सपा के संगठन के लिए यह स्थिति जटिल है. एक तरफ आज़म खान के पास स्थानीय स्तर पर मजबूत जनाधार है, दूसरी ओर नदवी पार्टी अध्यक्ष के करीबी सांसद हैं. नई दिल्ली में संसद मार्ग की मस्जिद के इमाम व समाजवादी पार्टी के रामपुर सांसद मोहिबुल्लाह नदवी ने 22 जुलाई को मस्जिद परिसर में सपा की बैठक कराई थी जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव उनकी पत्नी सांसद डिंपल यादव समेत अन्य नेता मौजूद रहे. इसी बैठक को लेकर विवाद भी हो गया था. अब आज़म और मो‍हिबुल्लाह नदवी बीच संबंध सुधरना पार्टी के लिए जरूरी है, क्योंकि अगर यह टकराव जारी रहा तो रामपुर और उसके आसपास की सीटों पर सपा की एकजुटता खतरे में पड़ सकती है. संगठन के कुछ पदाधिकारियों का कहना है कि अखिलेश यादव खुद दोनों के बीच पुल बनने की कोशिश करेंगे.

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि सियासी तौर पर देखा जाए तो यह अखिलेश के लिए दोहरी चुनौती है, एक तरफ उन्हें आज़म के अनुभव और मुस्लिम जनाधार का सहारा चाहिए, दूसरी तरफ उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि पार्टी की कमान पर किसी एक नेता की छाया न पड़े.

मुस्लिम राजनीति का नया संतुलन

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम राजनीति के समीकरण पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदले हैं. असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM, चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी और इमरान मसूद जैसे नेताओं की सक्रियता से सपा के पारंपरिक मुस्लिम वोटों में सेंध की आशंका बढ़ी है. ऐसे में आज़म खान का पार्टी में रहना और सक्रिय रहना सपा के लिए जीवनरेखा जैसा है. 

आज़म का प्रभाव सिर्फ मुस्लिम मतों पर ही नहीं, बल्कि सपा के ‘संघर्षशील’ चरित्र पर भी है. उनके साथ सपा के पुराने कार्यकर्ताओं और शिक्षित मुस्लिम युवाओं का भावनात्मक जुड़ाव है. यही वजह है कि अखिलेश यादव ने आज़म के घर जाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि सपा का पुराना घर अब भी खुला है और उसके बड़े बुजुर्ग का सम्मान बरकरार है. बीना राय बताती हैं, “अखिलेश की यह यात्रा पूरी तरह राजनीतिक प्रतीकवाद से भरी थी. हेलीकॉप्टर का उतरना जौहर यूनिवर्सिटी में, आज़म को दी गई कलम, और फिर सोशल मीडिया पर साझा की गई शायरी. इन सबने मिलकर एक कहानी रची. यह कहानी थी 'सम्मान, पुनर्स्थापना और एकजुटता' की.”

सपा जानती है कि बीजेपी सरकार के खिलाफ आज़म के मुकदमे और उनके संघर्ष का इस्तेमाल अब राजनीतिक रूप से किया जा सकता है. अखिलेश पहले ही संकेत दे चुके हैं कि पार्टी आज़म के खिलाफ दर्ज मामलों को जनता के सामने BJP के ‘अत्याचार’ के उदाहरण के रूप में पेश करेगी. 

पार्टी के भीतर इस बात की चर्चा है कि आने वाले महीनों में अखिलेश यादव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समाज के बड़े चेहरों के साथ संवाद शुरू करेंगे. इसमें आज़म खान की भूमिका केंद्रीय होगी. अगर सपा अपने पारंपरिक ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण को और मजबूत करना चाहती है तो उसे आज़म खान जैसे नेताओं की सक्रियता की जरूरत होगी. हालांकि चुनौती यह भी है कि क्या आज़म अब पहले जैसी सक्रिय भूमिका निभा पाएंगे? उम्र, मुकदमे और स्वास्थ्य उन्हें पहले से कमजोर कर चुके हैं. लेकिन सियासी अनुभव और भाषणों की धार अब भी उनके पास है. अखिलेश के लिए यह जरूरी है कि वे आज़म की साख का इस्तेमाल करें, लेकिन ऐसा करते हुए पार्टी में नेतृत्व का संतुलन भी बनाए रखें. 

आज़म खान के अपने शब्दों में, “हमसे बात न करें, ये हमारा हक है, मगर बिना बताए घर आएं, यह उनका अधिकार है.” यह पंक्ति रिश्ते की जटिलता और सियासत की गरिमा दोनों को साथ लेकर चलती है. यही कसौटी अखिलेश यादव के लिए वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकती है.

Advertisement
Advertisement