ग़ाज़ीपुर ज़िले के सैदपुर ब्लॉक में बीते हफ़्ते किसानों ने सहकारी समिति का घेराव कर दिया. घंटों नारेबाज़ी चली. वजह- यूरिया की सप्लाई खत्म हो चुकी थी और धान की रोपाई का मौसम निकल रहा था. हाल-फिलहाल उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों से ऐसी ही तस्वीरें सामने आईं- किसान घंटों लाइनों में खड़े, ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर खाली बोरे लिए चिलचिलाती धूप में नारे लगाते हुए और सहकारी समितियों के बाहर पुलिस बल तैनात. वजह एक ही थी: यूरिया की किल्लत.
देवरिया से लेकर हरदोई और जौनपुर से लेकर कानपुर देहात तक, किसानों का गुस्सा सरकार और प्रशासन दोनों पर खुलकर फूटा. कहीं किसानों ने वितरण केंद्रों का घेराव किया, तो कहीं सड़कों पर उतरकर यातायात रोक दिया. उत्तर प्रदेश में, किसानों का आरोप है कि देरी और कालाबाज़ारी के कारण संकट और भी बदतर हो रहा है, हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि उर्वरकों की कोई कमी नहीं है. वहीं सोशल मीडिया पर लगातार अपलोड हो रहे वीडियो में सहकारी केंद्रों पर लंबी कतारें दिखाई दे रही हैं. किसानों का सवाल साफ है- सरकार कहती है कि यूरिया पर्याप्त है, लेकिन बोरी हमें क्यों नहीं मिल रही?
गोंडा जिले के घनश्यामपुर गांव के प्रधान अतीतानंद त्रिपाठी कहते हैं, "कुछ जगहों पर तो भीड़ इतनी ज़्यादा है कि टोकन बांटे जा रहे हैं." उन्होंने आगे कहा कि मांग आपूर्ति से कई गुना ज़्यादा है. "खरीफ का मौसम शुरू होने के साथ, किसान अपनी फसलों की बुवाई के लिए ज़रूरी उर्वरकों की तलाश में दुकान-दुकान भटक रहे हैं. समय पर उपलब्धता की अनिश्चितता ने किसानों को अपनी फसल को लेकर गहरी चिंता में डाल दिया है." गोंडा जिले के ही हरखूपुर गांव के प्रधान अयोध्या यादव ने आरोप लगाया कि "प्रभावशाली लोग" आसानी से उर्वरक जुटा ले रहे है. लेकिन इस कमी ने छोटे और सीमांत किसानों को ऐसे समय में विशेष रूप से असुरक्षित बना दिया है जब उन्हें खरीफ के मौसम के लिए अपने खेतों को तैयार करने के लिए उर्वरकों की तत्काल आवश्यकता है.
यूरिया की सप्लाई कैसे होती है
यूरिया का उत्पादन और वितरण केंद्र सरकार के नियंत्रण में है. नेशनल फर्टिलाइजर लिमिटेड (NFL), इंडियन फर्टिलाइजर कॉर्पोरेशन, इंडियन पोटाश लिमिटेड जैसी कंपनियां उत्पादन और आयात दोनों करती हैं. इसके बाद केंद्र, राज्यवार आवंटन तय करता है. उत्तर प्रदेश को मिलने वाला यूरिया रेल रैक और ट्रकों के जरिये मंडल और ज़िला स्तरीय गोदामों तक पहुंचता है.
यहां से इसे सहकारी समितियों, प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसाइटीज़ (PACS), यूपी सहकारी उपभोक्ता संघ और लाइसेंसधारी डीलरों के माध्यम से किसानों तक पहुंचाया जाता है. सरकारी रेट तय है- 266 रुपये प्रति 45 किलो बोरी. पर ज़मीनी स्तर पर सबसे बड़ी खामी यही है कि वितरण का रिकॉर्ड कागज़ पर भले सटीक दिखे, असल में यूरिया समय पर और पर्याप्त मात्रा में समितियों तक नहीं पहुंचता. किसान नेताओं का कहना है कि यूरिया की एक बोरी, जो आधिकारिक रूप से 266 रुपये में मिलनी चाहिए, गांवों में 350-400 रुपये तक बेची जा रही है. लेकिन किसानों की नाराज़गी का असली कारण सिर्फ़ मौजूदा संकट नहीं, बल्कि यह डर भी है कि समय पर खाद न मिलने से धान और गन्ने की फसल पर सीधा असर पड़ेगा.
यूपी जैसे कृषि प्रधान राज्य में यह संकट महज़ खाद का नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक असंतोष की नई ज़मीन तैयार करने वाला मुद्दा बन चुका है. सोशल मीडिया प्लेटफार्म X पर एक पोस्ट में, समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार पर "किसानों को निराश" करने का आरोप लगाया. उन्होंने लाठीचार्ज करते पुलिसकर्मियों का 31 सेकंड का एक वीडियो क्लिप पोस्ट किया. कैप्शन में लिखा था, "कहते हैं... ऐसा भाजपा शासित 'कलयुग' आएगा... किसानों पर लाठियां बरसेंगी... खाद का संकट और गहरा जाएगा." कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी किसानों के धरनों को समर्थन दिया.
वहीं, बीजेपी सरकार इसे “विपक्ष की राजनीति और कालाबाज़ारियों की साज़िश” बता रही है. हालांकि, योगी सरकार ने दोहराया है कि स्टॉक पर्याप्त है. कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल 18 अगस्त तक 36.76 लाख मीट्रिक टन खाद की बिक्री हुई थी, जबकि इस साल बिक्री 42.64 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गई. अब तक 31.62 लाख मीट्रिक टन यूरिया, 5.38 लाख मीट्रिक टन डीएपी, 2.39 लाख मीट्रिक टन एनपीके, 0.46 लाख मीट्रिक टन एमओपी और 2.79 लाख मीट्रिक टन एसएसपी वितरित किया जा चुका है- जो पिछले साल से ज़्यादा है. अखिलेश के आरोपों का जवाब देते हुए, उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि यादव को किसानों के मुद्दों पर बोलने का "कोई नैतिक अधिकार नहीं है".
राज्य सरकार का दावा है कि केंद्र से आवंटन पर्याप्त है, लेकिन वितरण में गड़बड़ी हो रही है. एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, "उर्वरक वितरण में अनियमितताओं के खिलाफ कार्रवाई तेज कर दी गई है." शाही ने कहा, "अब तक 1,196 खुदरा विक्रेताओं के लाइसेंस रद्द किए गए हैं, 132 थोक विक्रेताओं को नोटिस जारी किए गए हैं, 13 निलंबित किए गए हैं और 4 लाइसेंस निरस्त किए गए हैं. 93 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, जबकि सीतापुर, बलरामपुर और श्रावस्ती के जिला कृषि अधिकारियों को लापरवाही के लिए निलंबित कर दिया गया है." किसान नेता हरिनाम सिंह वर्मा बताते हैं “यह संकट केवल “एक सीज़नल समस्या” नहीं, बल्कि यूपी के कृषि ढांचे और वितरण तंत्र की कमज़ोरियों का प्रतीक है. सवाल यह है कि सरकार किसानों को राहत कब और कैसे दिलाएगी, ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले पंचायत चुनाव में यह मुद्दा भारी पड़ सकता है.”
कालाबाज़ारी रोकने के लिए समितियों और गोदामों पर छापेमारी शुरू हुई है. डिजिटल टोकन व्यवस्था लागू करने की बात हो रही है ताकि किसान लाइन में खड़े बिना अपना यूरिया ले सकें. लेकिन गांवों में किसान मानते हैं कि ये कदम देर से उठाए गए. पूर्वांचल के किसान नेता रघुवंश यादव कहते हैं, “धान की फसल समय पर खाद मांगती है. अगर बुवाई का वक्त निकल गया तो बाद की सप्लाई किसी काम की नहीं.” यूपी में यूरिया संकट सिर्फ़ खाद की कमी की कहानी नहीं है. यह प्रशासनिक तंत्र की खामियों, राजनीति की तकरार और किसानों की बेबसी का आईना है. अगर सरकार समय रहते सप्लाई और वितरण दोनों को दुरुस्त नहीं करती, तो यह मुद्दा आने वाले महीनों में सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक फसल पर चोट कर सकता है.
मांग और सप्लाई का गणित
मांग : यूपी देश का सबसे बड़ा कृषि राज्य है. खरीफ सीजन (धान और गन्ना) में यूरिया की मांग 32–35 लाख टन तक पहुंच जाती है. सिर्फ़ धान की खेती के लिए ही लगभग 18–20 लाख टन यूरिया की ज़रूरत होती है.
सप्लाई : केंद्र सरकार औसतन यूपी को 30–31 लाख टन का आवंटन करती है. आंकड़ों में यह पर्याप्त दिखता है, लेकिन अक्सर आवंटन और ज़मीनी वितरण के बीच 10–15 फीसदी की कमी रह जाती है.
आयात पर निर्भरता : देश की कुल मांग का लगभग 25–30 फीसदी हिस्सा आयात से पूरा किया जाता है. अगर वैश्विक बाज़ार में देरी हो जाए या सप्लाई बाधित हो, तो सीधा असर यूपी पर पड़ता है.
हर बार यूरिया की ‘कमी’ क्यों हो जाती है
अचानक मांग का दबाव : जब धान या गन्ने में टॉप ड्रेसिंग का समय आता है, कुछ ही हफ्तों में मांग अचानक बढ़ जाती है.
डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क की खामियां : रेल रैक समय पर न मिलना, गोदामों से समितियों तक ट्रांसपोर्ट में देरी.
कालाबाज़ारी और डाइवर्जन : समितियों पर किसान को 5-10 बोरी से ज्यादा नहीं दी जाती, लेकिन उसी स्टॉक का हिस्सा खुले बाज़ार में महंगे दामों पर बिकता है.
डिजिटल मॉनिटरिंग की कमजोरी : स्मार्ट कार्ड और आधार आधारित वितरण की कोशिशें हुईं, लेकिन ज्यादातर जगह यह लागू नहीं हो पाया.