
उत्तर प्रदेश में डॉ. बी. आर. आंबेडकर का एक 'मॉर्फ्ड' (डिजिटल रूप से छेड़छाड़ की गई) पोस्टर विवाद का केंद्र बन गया है. दरअसल, समाजवादी लोहिया वाहिनी के एक पोस्टर में 'बाबा साहेब' आंबेडकर की तस्वीर को आधा करके उसके साथ अखिलेश यादव की फोटो लगाई गई थी.
इस मामले ने जल्दी ही तूल पकड़ा और राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने इस मुद्दे को हाथो-हाथ लपका. दोनों दलों के नेताओं ने इसे दलितों का अपमान बताया. बीजेपी ने इसे आंबेडकर का अपमान बताते हुए राज्यव्यापी आंदोलन की घोषणा की.
यह पूरा मामला 29 अप्रैल को शुरू हुआ. समाजवादी पार्टी (सपा) की सहयोगी इकाई समाजवादी लोहिया वाहिनी के कार्यकर्ताओं ने इस दिन एक पोस्टर होर्डिंग लगाया. इसमें आंबेडकर और अखिलेश को एक चेहरे के दो हिस्सों के रूप में दिखाया गया, जिसे एक सीधी सफेद रेखा के जरिए दो हिस्सों में बांटा गया था.
यह होर्डिंग लखनऊ में सपा कार्यालय के बाहर लगाया गया था, ताकि बैठक में भाग लेने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं का स्वागत किया जा सके. इसी कार्यक्रम में, लोहिया वाहिनी के जिला अध्यक्ष लालचंद गौतम ने अखिलेश को एक ऐसी ही फ्रेम वाली तस्वीर भेंट की, जिसने दो अलग-अलग राजनीतिक विरासतों के 'सिम्बोलिक फ्यूजन' (प्रतीकात्मक मिश्रण) के लिए आलोचना को बुलावा भेजा.

बीजेपी ने कहा है कि यह पोस्टर आंबेडकर का अपमान है और पार्टी ने राज्यव्यापी आंदोलन की घोषणा की है. ऐसा ही एक विरोध प्रदर्शन 30 अप्रैल को लखनऊ में आयोजित भी किया गया.
यह विवाद ऐसे समय में सामने आया, जब सपा राज्य में दलित वोटरों को लुभाने के लिए स्पष्ट और भरसक प्रयास कर रही है. अखिलेश यादव की पार्टी ने प्रतीकात्मक चिह्नों, रणनीतिक पार्टी नियुक्तियों और खुद को दलित हितों के रक्षक के रूप में आक्रामक तरीके से पेश करने की कोशिश की है. यूपी की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी लगभग 20 फीसद है.
हाल ही में, सपा के दलित नेताओं की एक के बाद एक विवादास्पद टिप्पणियों ने राज्य में तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया. हालांकि, पार्टी ने इन बयानों से दूरी बनाने के बजाय इन्हें और मजबूती से समर्थन दिया. विश्लेषकों का कहना है कि यह आक्रामक रुख यूपी के खंडित राजनीतिक परिदृश्य को 2027 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ सपा को प्रमुख चुनौती देने वाली पार्टी के रूप में पेश करने की व्यापक रणनीति का संकेत देता है.
दलित समर्थन की कोशिशें
पहला विवाद तब शुरू हुआ जब सपा के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन ने मार्च में राज्यसभा की बहस के दौरान कथित तौर पर 16वीं सदी के राजपूत शासक राणा सांगा को 'गद्दार' कहा, क्योंकि सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराने के लिए मुगल सम्राट बाबर को भारत आमंत्रित किया था. यह टिप्पणी बीजेपी नेताओं के उस दावे के जवाब में थी कि भारतीय मुसलमानों में 'बाबर का डीएनए' है.
इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया दिखी. करणी सेना और अखिल भारत हिंदू महासभा जैसे संगठनों ने सुमन और उनकी पार्टी के खिलाफ प्रदर्शन किए. करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने कथित तौर पर आगरा में सुमन के घर पर हमला किया; कुछ दिन पहले अलीगढ़ में एक टोल प्लाजा के पास उनके काफिले को निशाना बनाया गया. करणी सेना ने राणा सांगा की जयंती पर आगरा में 'रक्त स्वाभिमान सम्मेलन' भी आयोजित किया. इस कार्यक्रम का एक वायरल वीडियो सामने आया, जिसमें एक व्यक्ति अखिलेश को जान से मारने की धमकी देता दिखा.
15 अप्रैल को एक और विवाद तब शुरू हुआ जब सपा के ही विधायक इंद्रजीत सरोज ने मुहम्मद बिन कासिम और मुहम्मद गौरी जैसे आक्रमणकारियों के सैन्य अभियानों के दौरान हिंदू देवी-देवताओं की शक्ति पर सवाल उठाया. सरोज ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा, "अगर हमारे देवी-देवता इतने शक्तिशाली थे, तो उन्होंने उन लोगों को श्राप क्यों नहीं दिया या नष्ट क्यों नहीं किया जिन्होंने इस देश को लूटा?" उन्होंने आंबेडकर को अपना "असली भगवान" घोषित किया.
अखिलेश ने अपनी पार्टी के दलित नेताओं का जोरदार बचाव किया है. उन्होंने बीजेपी और राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर जाति आधारित हमलों को उकसाने का आरोप लगाया. सपा नेताओं ने इस संघर्ष को राजपूतों और दलितों-ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के बीच का संघर्ष बताकर इसे अखिलेश के पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) नारे के साथ जोड़ा, जिसे पिछड़े वर्ग के समर्थन को मजबूत करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.
सपा की दलित वोटरों को अपने पाले में करने की आक्रामक कोशिशों ने मायावती की बसपा से भी तीखी प्रतिक्रिया को आमंत्रित किया. बसपा का यूपी में दलित समर्थन ऐतिहासिक रूप से मजबूत रहा है, लेकिन हर चुनाव के साथ यह कमजोर भी होता जा रहा है. मायावती ने दलितों, ओबीसी और मुसलमानों को सपा की "संकीर्ण, स्वार्थी राजनीति" से सावधान रहने की चेतावनी दी. उनके भतीजे आकाश आनंद ने भी अखिलेश पर निशाना साधते हुए एक बयान जारी किया और इस पोस्टर को अक्षम्य अपराध बताया.
बीजेपी ने मौके का फायदा उठाया
बीजेपी, जो अपने पारंपरिक क्षत्रिय आधार और अहम दलित वोटों के बीच फंसी है, इस पोस्टर विवाद को भुनाने में लगी है. बीजेपी के राज्यसभा सांसद बृज लाल ने 'एक्स' पर घोषणा की: "मैंने लखनऊ में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की स्टैच्यू के पास आयोजित विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया. अखिलेश यादव को बाबा साहेब का अपमान करने की आदत है. हम संविधान के निर्माता का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते."
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने कहा कि आंबेडकर और अखिलेश के चेहरों को एक साथ जोड़ने से बड़ा अपमान कोई नहीं हो सकता. मालवीय ने 'एक्स' पर लिखा, "अखिलेश यादव कितनी बार भी जन्म लें, वे बाबा साहेब की महानता और समाज के वंचित वर्गों के उत्थान में उनके योगदान की बराबरी नहीं कर सकते. सपा और अखिलेश ने पहले महान योद्धा राणा सांगा और अब बाबा साहेब का अपमान किया. यह हिंदू समाज के लिए बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है."
मामले को और तूल देते हुए केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने नई दिल्ली में एक मीडिया सम्मेलन आयोजित किया. इसमें उन्होंने इस पोस्टर को आंबेडकर का अपमान बताया. मेघवाल ने कहा, "वे इस फोटो को दिखाकर दलितों के वोट लेने की कोशिश कर रहे हैं. अखिलेश यादव भ्रम में जी रहे हैं. यह कांग्रेस थी जिसने 1952 में पहला चुनाव और फिर 1953 में उपचुनाव में बाबा साहेब को हरवाया था. अखिलेश यादव अब कांग्रेस के साथ हैं. दलित समुदाय अखिलेश यादव का समर्थन कैसे कर सकता है?"
अखिलेश इस मामले में स्पष्ट रूप से बैकफुट पर हैं. सपा सुप्रीमो ने कहा कि वे लाल चंद गौतम को उनके और आंबेडकर की 'मॉर्फ्ड' तस्वीर बनाने की गलती के बारे में समझाएंगे.
अखिलेश ने इस साल की शुरुआत में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के एक विवादास्पद बयान का जिक्र करते हुए कहा, "हम उनसे (गौतम) कहेंगे कि किसी भी महान व्यक्तित्व के साथ किसी भी नेता की (मॉर्फ्ड) तस्वीर न बनाएं. लेकिन क्या बीजेपी अपने उन नेताओं को भी समझाएगी जिन्होंने संसद में बयान दिया था कि वे (आंबेडकर) भगवान नहीं हैं?"

