उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने ही विधायकों के प्रदर्शन का सर्वे कराने का निर्णय लेकर राजनीतिक हलकों में अच्छी-खासी चर्चा है. यूपी बीजेपी के शीर्ष पदाधिकारियों के मुताबिक यह एक ज़मीनी रणनीति का हिस्सा है ताकि संभावित सत्ता विरोधी लहर को रोका जा सके और साथ ही 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले विपक्ष- मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी (सपा) और उसकी सहयोगी कांग्रेस- की लगातार बढ़ती आक्रामकता को बेअसर किया जा सके.
योजना के मुताबिक पार्टी विधायकों का विवरण सीधे राज्य भर के लगभग 1.65 लाख बूथों पर तैनात 20 लाख से ज़्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं से एकत्र करेगी. यह उस सर्वेक्षण के अलावा होगा जो बीजेपी अक्सर स्वतंत्र एजेंसियों की मदद से किसी भी चुनावी राज्य में मौजूदा ज़मीनी स्थिति का आकलन करने के लिए करती है. ज़मीनी स्तर पर जनता की राय से लेकर संगठन की अपेक्षाओं तक, इस सर्वे को कई मायनों में देखा जा रहा है.
पार्टी की इस कवायद के पीछे वर्ष 2022 का वह प्रयोग है जिसमें बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर नए उम्मीदवार उतार कर बाजी पलट दी थी. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन योगी सरकार में मंत्री रहे पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले स्वामी प्रसाद प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और डा. धर्म सिंह सैनी सहित कई विधायक बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल हो गए थे तो अटकलें लगाई जाने लगीं कि बीजेपी कम से कम विधायकों के टिकट काटेगी. मगर, देखने में आया था कि सत्ताधारी दल की रणनीति पर इस भगदड़ का खास फर्क नहीं पड़ा था. बीजेपी ने वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में कुल 104 विधायकों को दोबारा लड़ने का मौका न देते हुए प्रत्याशी बदल दिए.
इस फैसले ने स्थानीय स्तर पर उठ रही सत्ता विरोधी लहर को काफी हद तक कुंद कर दिया और 80 नए प्रत्याशी जीत गए थे. अब इस आंकड़े में उन सीटों को भी शामिल कर लें, जिन पर 2017 के चुनाव में बीजेपी को हार मिली थी तो ऐसी सीटों की संख्या 85 थी. हारी हुई सीटों को जीतने के लिए 69 सीटों पर नए चेहरे जनता के सामने लाए गए, जिसमें से 19 प्रत्याशी ही जनता का विश्वास जीतकर विधानसभा पहुंच सके. वहीं, वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के 16 पिटे चेहरों पर बीजेपी ने 2022 के चुनाव में दांव लगाया था. इनमें से सिर्फ 4 ही पुरानी बाजी बदल पाने में सफल हुए थे. इस तरह 85 हारी सीटों में से मात्र 23 यानी 27 प्रतिशत पर ही बीजेपी को इस जीत मिल सकी थी. कुल बदलाव का परिणाम देखें तो बदले गए 173 बीजेपी प्रत्याशियों में से 99 को जिताकर जनता ने विधानसभा भेजा था.
वर्ष 2017 में 312 विधानसभा सीटें और 2022 के विधानसभा चुनाव में 255 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाली बीजेपी को वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना करना पडा. यूपी में केवल 33 लोकसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी के कई विधायकों और मंत्रियों की विधानसभा सीटों पर पार्टी ने खराब प्रदर्शन किया था. 18वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों को अगर विधानसभावार देखा जाए तो सत्ताधारी बीजेपी केवल 162 क्षेत्रों में ही बढ़त बना सकी थी और सपा 2024 के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 183 सीटों पर आगे रही थी.
वहीं वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस ने भी 40 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी. इस तरह लोकसभा चुनाव में एनडीए को जहा 174 विधानसभा क्षेत्रों में ही बढ़त मिली थी वहीं विपक्षी “इंडिया गठबंधन” 224 सीटों पर आगे था. 50 सीटों पर आगे रहना वाला विपक्षी गठबंधन, राज्य में सरकार बनाने के लिए जरूरी 202 विधानसभा सीटों के जादुई आंकड़ों से काफी आगे था. इसी ने यूपी में बीजेपी की चिंता बढ़ा दी है.
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान कई सीटों पर पार्टी के परंपरागत वोटर का उत्साह कम दिखा और ग्रामीण इलाकों में एंटी-इन्कम्बेंसी की झलक दिखी थी. इन नतीजों ने संगठन को चेताया कि अगर समय रहते सुधार नहीं किया गया तो आने वाले विधानसभा चुनाव में नुकसान हो सकता है.
विधायकों का सर्वे इसी सुधार प्रक्रिया का हिस्सा है. विधायकों के परफार्मेंस सर्वे में बीजेपी उन विधानसभा क्षेत्रों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करेगी जिन पर वह 2024 के संसदीय चुनावों में हार गई थी. इसके अलावा पार्टी को दो और सहयोगियों - रालोद और सुभासपा - को शामिल करने के लिए कई विधानसभा सीटों पर अपनी हिस्सेदारी भी छोड़नी होगी. ये पार्टियां 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद सपा से नाता तोड़ने के बाद भगवा दल में शामिल हो गए थे.
बीजेपी का यह कदम साफ बताता है कि पार्टी नेतृत्व चुनावी जीत को लेकर किसी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहता. जिन विधायकों के खिलाफ जनता में असंतोष है या जिन पर काम न करने, घमंडी व्यवहार या भ्रष्टाचार के आरोप हैं, उनकी पहचान की जा रही है. यह संकेत भी है कि 2027 विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण केवल राजनीतिक रसूख या जातीय समीकरण पर नहीं, बल्कि जनता और संगठन की राय पर आधारित होगा.
जानकारी के मुताबिक सर्वे में बीजेपी के जमीनी कार्यकर्ताओं से पूछा जाएगा कि विधायक कितनी बार इलाके में आते हैं, समस्याओं को सुनते हैं या सिर्फ सत्ता के रसूख में डूबे रहते हैं. विकास कार्यों की स्थिति, सरकारी योजनाओं का लाभ और आम लोगों तक विधायक की पहुंच को भी परखा जाएगा. बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक सुशील पांडेय बताते हैं, “बीजेपी जानती है कि चुनाव जीतने के लिए सिर्फ मोदी-योगी की लोकप्रियता काफी नहीं, बल्कि स्थानीय चेहरों की छवि भी उतनी ही महत्वपूर्ण है.”
यह सर्वे विधायकों के लिए अप्रत्यक्ष चेतावनी है कि पार्टी काम करो या काम छोड़ो के सिद्धांत पर चल रही है. जो विधायक जनता से कटे पाए जाएंगे, उनके टिकट कटने की पूरी संभावना है. सुशील पांडेय बताते हैं, “इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में भी यह भरोसा जाता है कि संगठन सिर्फ नेताओं पर निर्भर नहीं बल्कि छोटे कार्यकर्ता की आवाज़ को भी महत्व देता है.” विश्लेषकों के अनुसार, यह बहुप्रतीक्षित सर्वे केवल बीजेपी विधायकों की लोकप्रियता के बारे में ही नहीं होगा, बल्कि केंद्र और राज्य कल्याणकारी योजनाओं के प्रभाव का भी आकलन करेगा. इससे पता चलेगा कि क्या सरकारी योजनाओं का लाभ वोटों में तब्दील हो रहा है या फिर कहीं कोई अवरोध भी है.
दरअसल, बीजेपी का यह सर्वे सिर्फ विधायकों की परीक्षा नहीं बल्कि संगठनात्मक मजबूती की बड़ी रणनीति है. यह पार्टी के लिए आत्ममंथन का मौका भी है और विधायकों के लिए अलर्ट सिग्नल भी. साफ है कि मिशन 2027 के लिए बीजेपी ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है और इसमें सबसे पहले कसौटी पर उसके अपने विधायक ही हैं.