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टर्बन टॉरनेडो: मैराथन रनर फौजा सिंह कैसे बन गए थे पंजाबियों के नैतिक मार्गदर्शक?

114 वर्षीय फौजा सिंह न केवल दुनिया के सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक थे बल्कि पंजाब के लिए एक नैतिक मार्गदर्शक और सांस्कृतिक प्रतीक थे. उन्हें चढ़दी कला में चलता-फिरता अवतार माना जाता था.

फौजा सिंह
फौजा सिंह
अपडेटेड 16 जुलाई , 2025

जालंधर स्थित अपने पैतृक गांव ब्यास पिंड के पास 14 जुलाई को एक सड़क हादसे में फौजा सिंह की मृत्यु ने पंजाब के लोगों को गहरे शोक में डुबो दिया है, उन्हें अभी तक इस घटना पर भरोसा नहीं हो रहा. 114 वर्षीय फौजा सिंह न केवल दुनिया के सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक थे बल्कि पंजाब की एक ऐसी शख्सीयत थे, जिन्होंने विभाजन और औद्योगिक विकास के पहले का दौर देखा था, और जनश्रुतियों व कृषि संस्कृति ने उनके भीतर गहरी जड़ें जमा रखी थीं.

करीब तीन दशक समय से आगे दौड़ने की होड़ लगाए रहे फौजा सिंह की सुबह की सैर के वक्त एक तेज रफ्तार वाहन की चपेट में आने के कारण हुई मौत से हर तरफ शोक की लहर छाई है. सिख समुदाय के लिए फौजा सिंह ‘टर्बन टॉरनेडो’ थे और सौ वर्षीय मैराथन धावक के आगे उम्र और पहचान का कोई मायने ही नहीं रह गया था.

पंजाब और पूरी दुनिया में बसे सिख समुदाय के लिए वह बहुत ही गहरे मायने रखते थे: वह एक नैतिक दिग्दर्शक थे, एक सांस्कृतिक प्रतीक की तरह थे. शाश्वत आशावाद में आस्था रखने वाले सिखों के लिए वह चढ़दी कला के चलते-फिरते अवतारी पुरुष थे. एक ऐसे राज्य, जहां युवा नशे, बेरोजगारी और निराशा जैसी समस्याएं झेल रहे हैं, फौजा सिंह धीरज, अनुशासन और स्वच्छ जीवन के प्रतीक थे. मृत्यु से कुछ हफ्ते पहले ही उन्होंने नशीले पदार्थों के सेवन के खिलाफ एक प्रतीकात्मक पदयात्रा का नेतृत्व किया, जिसमें पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया भी शामिल हुए. 114 वर्ष की आयु में भी फौजा सिंह एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जी रहे थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शोक संदेश में कहा, “फौजा सिंह जी अपने अद्वितीय व्यक्तित्व और फिटनेस जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भारत के युवाओं को प्रेरित करने के अपने तरीके के कारण असाधारण थे. वे अद्भुत दृढ़ संकल्प वाले असाधारण एथलीट थे. उनके निधन से मुझे बहुत दुख हुआ. मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और दुनियाभर में उनके अनगिनत प्रशंसकों के साथ हैं.”

1911 में ब्रिटिश भारत में जन्मे फौजा सिंह ने अंग्रेजी शासन, लड़ाइयों, विभाजन के कारण पलायन जैसी तमाम त्रासदियों को देखा. अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने एक साधारण किसान के तौर पर बिताया. अपनी पत्नी और बेटे को खोने के बाद 80 की उम्र में उन्होंने एक थेरेपी के तौर पर पैदल चलना और फिर दौड़ना शुरू किया. दुखों से उबरने की यह शुरुआत कुछ आध्यात्मिक होते-होते उन्हें वैश्विक ख्याति दिलाने का साधन बन गई.

उन्होंने 89 साल की उम्र में लंदन में अपनी पहली मैराथन दौड़ लगाई. और 2011 में वह 100 साल की उम्र में टोरंटो में दौड़कर, पूर्ण मैराथन पूरी करने वाले सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति बन गए. हालांकि गिनीज ने जन्म प्रमाणपत्र के अभाव में इस उपलब्धि को प्रमाणित करने से इन्कार कर दिया लेकिन दुनिया उनकी इस उपलब्धि को मान्यता देने में पीछे नहीं रही. जैसा, उनके जीवनी लेखक खुशवंत सिंह ने कहा, “इस महान व्यक्ति को दस्तावेजी साक्ष्यों की जरूरत नहीं. उनके कदम खुद गवाही देते हैं.”

फौजा सिंह की सहनशक्ति ने उन्हें सौ साल से ज्यादा उम्र के एथलीटों की एक विशिष्ट श्रेणी में ला खड़ा किया. पोलैंड के स्टैनिस्लाव कोवाल्स्की ने 110 वर्ष की उम्र में स्प्रिंट और थ्रो में हाथ आजमाया. 105 की उम्र में 100 मीटर दौड़ में भाग लेने वाले जापान के हिदेकिची मियाजाकी को ‘गोल्डन बोल्ट’ का उपनाम मिला. थाईलैंड के सवांग जानप्रम—जो अब 105 वर्ष के हैं—अभी तक मास्टर्स ट्रैक स्पर्धाओं में अपना दबदबा बनाए हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया के हेनरी यंग (101 वर्ष) दोनों घुटने बदलवाने के बाद टेनिस प्रतिस्पर्द्धाओं में हिस्सा लेते हैं. लेकिन फौजा सिंह को जो बात इन सबसे अलग करती थी, वो थी उनकी प्रतिस्पर्धा का वैश्विक मंच, जिस पर वह एक सांस्कृतिक ताकत के प्रतीक बने. इसने उन्हें सिख प्रवासियों के बीच एक वैश्विक प्रतीक बना दिया.

और, यह भी एक तथ्य है कि विशिष्ट आयु-वर्ग प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले अन्य लोगों के विपरीत फ़ौजा सिंह ने न्यूयॉर्क, लंदन, हांगकांग, एडिनबर्ग जैसी प्रमुख मैराथन दौड़ों में ऐसे एथलीटों के साथ मुकाबला किया जो उनकी उम्र से कोसों दूर थे. जीवनी लेखक खुशवंत सिंह ने कहा था कि उन्होंने पैसे या प्रसिद्धि के लिए दौड़ नहीं लगाई. उन्होंने आपदा राहत, कैंसर अनुसंधान, अनाथ बच्चों की मदद के लिए धन जुटाने जैसे उद्देश्यों के साथ प्रतियोगित में हिस्सा लिया. उन्होंने दौड़ में शामिल होने की फीस लेने से इन्कार कर दिया, ऐसे प्रायोजित विज्ञापनों को ठुकरा दिया जो उनकी नैतिकता को गवारा नहीं थे. और, अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा दान कर दिया. जब उनसे पूछा गया कि वह क्यों दौड़ते हैं, तो उन्होंने बेहद सहजता से उत्तर दिया, “ऊपर वाले के करीब महसूस करने के लिए.”

फौजा सिंह की पगड़ी और सफेद दाढ़ी उनकी एक पहचान बन चुकी थी. फिनिश लाइन पर हाथ जोड़ने का उनका अंदाज भी हर किसी को अपना कायल बना लेता थे. 9/11 हमले के बाद जब सिखों की पहचान संकट में घिरी, जब उन्हें अक्सर गलत समझा जाता था या गलत तरीके से पेश किया जाता था, तब फौजा सिंह ने बेहद शांति के साथ लोगों की सोच बदलने में अहम भूमिका निभाई. किसी तरह की भाषणबाजी के बिना ही उन्होंने शालीनता, विनम्रता और ताकत का लोहा मनवाया. उन्होंने महाद्वीपों के परे सिख पहचान को स्थापित करने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई और उन लोगों के दिलों को भी छू लिया जो पंजाब या उसके लोकाचार से कतई अपरिचित थे.

वह कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत भी बने. शतायु धाविका मान कौर उन्हें अपना आदर्श मानती रही हैं. लंदन में उनके साथ प्रशिक्षण लेने वाले हरमंदर सिंह जैसे सिख एथलीट उनके अनुशासन और शांत स्वभाव को याद करते हैं. थाई, ऑस्ट्रेलियाई और अमेरिकी मास्टर्स एथलीट उन्हें ही देखकर कहते रहे हैं कि अगर खुद पर भरोसा और अनुशासन हो तो शरीर की उम्र बेमानी हो जाती है.

उनकी दिनचर्या बेहद सरल थी, शाकाहारी खाना, दाल-रोटी, फल आदि खाना, प्रोसेस्ड फूड से दूरी और ढेर सारा पानी पीना. उनके सहयोगी बताते हैं कि एक धर्मनिष्ठ सिख की तरह वह रोज ध्यान करते थे और एक सख्त दिनचर्या का पालन करते थे. ब्रिटिश एम्पायर मेडल पाने और 2012 में ओलिंपिक मशालवाहक बनने के बावजूद विनम्रता उनके स्वभाव का हिस्सा बनी रही. 2005 में नाइकी ने उन्हें अपने “असंभव कुछ भी नहीं” अभियान का हिस्सा बनाया.

उनके निधन की खबर मिलते ही पूरे पंजाब के गुरुद्वारों के अलावा कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और केन्या (जहां वे कुछ समय तक रहे) में प्रवासी समुदायों की तरफ से अरदास का आयोजन किया गया. ब्यास पिंड में ग्रामीण उनके हर किसी से गर्मजोशी से मिलने, नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने में आगे रहने और चलते-फिरते रहने की उनकी आदत को उत्सुकता को याद करते हैं. उनसे कभी नहीं मिलने वाले युवा पीढ़ी के लोगो ने भी सोशल मीडिया पर “धैर्य के प्रतीक” और “जीवित किंवदंती, अब अनंत यात्रा पर” जैसी टिप्पणियां लिखकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.

उनकी विरासत में सिनेमाई रुचि भी रही है. निर्देशक उमंग कुमार और निर्माता कुणाल शिवदासानी ने 2021 में एक बॉलीवुड बायोपिक, “फौजा” की घोषणा की थी, जो खुशवंत सिंह की किताब “द टर्बन्ड टॉरनेडो” पर आधारित है. अब कुछ वर्षों की देरी के बाद इस परियोजना को फिर गति मिल सकती है. जाहिर-सी बात है कि दुख, उदारता, बदलाव और आध्यात्मिक ताकत से परिपूर्ण फौजा सिंह की कहानी एक सार्वभौमिक अपील रखती है, खासकर ऐसे देश में जो वृद्धावस्था, फिटनेस और उद्देश्यपूर्ण जीवन को लेकर अपने विचारों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है.

एक बार, हांगकांग मैराथन के दौरान उन्होंने एक अनमोल बात कही. जब उनसे पूछा गया कि दौड़ते समय उन्हें क्या लगता है तो उन्होंने कहा, “वाहेगुरु! हर कदम एक प्रार्थना है.” अब, जब पूरा पंजाब और सिख समुदाय उनके निधन से शोक में डूबा है, तो उनके कदमों की आहट पहले से कहीं ज्यादा तेज सुनाई देती है. इसलिए नहीं कि उनके कदमों की आवाज तेज थी. बल्कि इसलिए कि उन्होंने कभी रुकना नहीं सीखा था.

114 वर्षीय फौजा सिंह न केवल दुनिया के सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक थे बल्कि पंजाब के लिए एक नैतिक मार्गदर्शक और सांस्कृतिक प्रतीक थे. उन्हें चढ़दी कला में चलता-फिरता अवतार माना जाता था.

जालंधर स्थित अपने पैतृक गांव ब्यास पिंड के पास 14 जुलाई को एक सड़क हादसे में फौजा सिंह की मृत्यु ने पंजाब के लोगों को गहरे शोक में डुबो दिया है, उन्हें अभी तक इस घटना पर भरोसा नहीं हो रहा. 114 वर्षीय फौजा सिंह न केवल दुनिया के सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक थे बल्कि पंजाब की एक ऐसी शख्सीयत थे जिन्होंने विभाजन और औद्योगिक विकास के पहले का दौर देखा था, और जनश्रुतियों व कृषि संस्कृति ने उनके भीतर गहरी जड़ें जमा रखी थीं. करीब तीन दशक समय से आगे दौड़ने की होड़ लगाए रहे फौजा सिंह की सुबह की सैर के वक्त एक तेज रफ्तार वाहन की चपेट में आने के कारण हुई मौत से हर तरफ शोक की लहर छाई है.

सिख समुदाय के लिए फौजा सिंह ‘टर्बन टॉरनेडो’ थे और सौ वर्षीय मैराथन धावक के आगे उम्र और पहचान का कोई मायने ही नहीं रह गया था. पंजाब और पूरी दुनिया में बसे सिख समुदाय के लिए वह बहुत ही गहरे मायने रखते थे: वह एक नैतिक दिग्दर्शक थे, एक सांस्कृतिक प्रतीक की तरह थे. शाश्वत आशावाद में आस्था रखने वाले सिखों के लिए वह चढ़दी कला के चलते-फिरते अवतारी पुरुष थे. एक ऐसे राज्य, जहां युवा नशे, बेरोजगारी और निराशा जैसी समस्याएं झेल रहे हैं, फौजा सिंह धीरज, अनुशासन और स्वच्छ जीवन के प्रतीक थे. मृत्यु से कुछ हफ्ते पहले ही उन्होंने नशीले पदार्थों के सेवन के खिलाफ एक प्रतीकात्मक पदयात्रा का नेतृत्व किया, जिसमें पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया भी शामिल हुए. 114 वर्ष की आयु में भी फौजा सिंह एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जी रहे थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शोक संदेश में कहा, “फौजा सिंह जी अपने अद्वितीय व्यक्तित्व और फिटनेस जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भारत के युवाओं को प्रेरित करने के अपने तरीके के कारण असाधारण थे. वे अद्भुत दृढ़ संकल्प वाले असाधारण एथलीट थे. उनके निधन से मुझे बहुत दुख हुआ. मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और दुनियाभर में उनके अनगिनत प्रशंसकों के साथ हैं.”

1911 में ब्रिटिश भारत में जन्मे फौजा सिंह ने अंग्रेजी शासन, लड़ाइयों, विभाजन के कारण पलायन जैसी तमाम त्रासदियों को देखा. अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने एक साधारण किसान के तौर पर बिताया. अपनी पत्नी और बेटे को खोने के बाद 80 की उम्र में उन्होंने एक थेरेपी के तौर पर पैदल चलना और फिर दौड़ना शुरू किया. दुखों से उबरने की यह शुरुआत कुछ आध्यात्मिक होते-होते उन्हें वैश्विक ख्याति दिलाने का साधन बन गई.

उन्होंने 89 साल की उम्र में लंदन में अपनी पहली मैराथन दौड़ लगाई. और 2011 में वह 100 साल की उम्र में टोरंटो में दौड़कर, पूर्ण मैराथन पूरी करने वाले सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति बन गए. हालांकि गिनीज ने जन्म प्रमाणपत्र के अभाव में इस उपलब्धि को प्रमाणित करने से इन्कार कर दिया लेकिन दुनिया उनकी इस उपलब्धि को मान्यता देने में पीछे नहीं रही. जैसा, उनके जीवनी लेखक खुशवंत सिंह ने कहा, “इस महान व्यक्ति को दस्तावेजी साक्ष्यों की जरूरत नहीं. उनके कदम खुद गवाही देते हैं.”

फौजा सिंह की सहनशक्ति ने उन्हें सौ साल से ज्यादा उम्र के एथलीटों की एक विशिष्ट श्रेणी में ला खड़ा किया. पोलैंड के स्टैनिस्लाव कोवाल्स्की ने 110 वर्ष की उम्र में स्प्रिंट और थ्रो में हाथ आजमाया. 105 की उम्र में 100 मीटर दौड़ में भाग लेने वाले जापान के हिदेकिची मियाजाकी को ‘गोल्डन बोल्ट’ का उपनाम मिला. थाईलैंड के सवांग जानप्रम—जो अब 105 वर्ष के हैं—अभी तक मास्टर्स ट्रैक स्पर्धाओं में अपना दबदबा बनाए हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया के हेनरी यंग (101 वर्ष) दोनों घुटने बदलवाने के बाद टेनिस प्रतिस्पर्द्धाओं में हिस्सा लेते हैं. लेकिन फौजा सिंह को जो बात इन सबसे अलग करती थी, वो थी उनकी प्रतिस्पर्धा का वैश्विक मंच, जिस पर वह एक सांस्कृतिक ताकत के प्रतीक बने. इसने उन्हें सिख प्रवासियों के बीच एक वैश्विक प्रतीक बना दिया.

और, यह भी एक तथ्य है कि विशिष्ट आयु-वर्ग प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले अन्य लोगों के विपरीत फ़ौजा सिंह ने न्यूयॉर्क, लंदन, हांगकांग, एडिनबर्ग जैसी प्रमुख मैराथन दौड़ों में ऐसे एथलीटों के साथ मुकाबला किया जो उनकी उम्र से कोसों दूर थे. जीवनी लेखक खुशवंत सिंह ने कहा था कि उन्होंने पैसे या प्रसिद्धि के लिए दौड़ नहीं लगाई. उन्होंने आपदा राहत, कैंसर अनुसंधान, अनाथ बच्चों की मदद के लिए धन जुटाने जैसे उद्देश्यों के साथ प्रतियोगित में हिस्सा लिया. उन्होंने दौड़ में शामिल होने की फीस लेने से इन्कार कर दिया, ऐसे प्रायोजित विज्ञापनों को ठुकरा दिया जो उनकी नैतिकता को गवारा नहीं थे. और, अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा दान कर दिया. जब उनसे पूछा गया कि वह क्यों दौड़ते हैं, तो उन्होंने बेहद सहजता से उत्तर दिया, “ऊपर वाले के करीब महसूस करने के लिए.”

फौजा सिंह की पगड़ी और सफेद दाढ़ी उनकी एक पहचान बन चुकी थी. फिनिश लाइन पर हाथ जोड़ने का उनका अंदाज भी हर किसी को अपना कायल बना लेता थे. 9/11 हमले के बाद जब सिखों की पहचान संकट में घिरी, जब उन्हें अक्सर गलत समझा जाता था या गलत तरीके से पेश किया जाता था, तब फौजा सिंह ने बेहद शांति के साथ लोगों की सोच बदलने में अहम भूमिका निभाई. किसी तरह की भाषणबाजी के बिना ही उन्होंने शालीनता, विनम्रता और ताकत का लोहा मनवाया. उन्होंने महाद्वीपों के परे सिख पहचान को स्थापित करने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई और उन लोगों के दिलों को भी छू लिया जो पंजाब या उसके लोकाचार से कतई अपरिचित थे.

वह कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत भी बने. शतायु धाविका मान कौर उन्हें अपना आदर्श मानती रही हैं. लंदन में उनके साथ प्रशिक्षण लेने वाले हरमंदर सिंह जैसे सिख एथलीट उनके अनुशासन और शांत स्वभाव को याद करते हैं. थाई, ऑस्ट्रेलियाई और अमेरिकी मास्टर्स एथलीट उन्हें ही देखकर कहते रहे हैं कि अगर खुद पर भरोसा और अनुशासन हो तो शरीर की उम्र बेमानी हो जाती है.

उनकी दिनचर्या बेहद सरल थी, शाकाहारी खाना, दाल-रोटी, फल आदि खाना, प्रोसेस्ड फूड से दूरी और ढेर सारा पानी पीना. उनके सहयोगी बताते हैं कि एक धर्मनिष्ठ सिख की तरह वह रोज ध्यान करते थे और एक सख्त दिनचर्या का पालन करते थे. ब्रिटिश एम्पायर मेडल पाने और 2012 में ओलिंपिक मशालवाहक बनने के बावजूद विनम्रता उनके स्वभाव का हिस्सा बनी रही. 2005 में नाइकी ने उन्हें अपने “असंभव कुछ भी नहीं” अभियान का हिस्सा बनाया.

उनके निधन की खबर मिलते ही पूरे पंजाब के गुरुद्वारों के अलावा कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और केन्या (जहां वे कुछ समय तक रहे) में प्रवासी समुदायों की तरफ से अरदास का आयोजन किया गया. ब्यास पिंड में ग्रामीण उनके हर किसी से गर्मजोशी से मिलने, नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने में आगे रहने और चलते-फिरते रहने की उनकी आदत को उत्सुकता को याद करते हैं. उनसे कभी नहीं मिलने वाले युवा पीढ़ी के लोगो ने भी सोशल मीडिया पर “धैर्य के प्रतीक” और “जीवित किंवदंती, अब अनंत यात्रा पर” जैसी टिप्पणियां लिखकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.

उनकी विरासत में सिनेमाई रुचि भी रही है. निर्देशक उमंग कुमार और निर्माता कुणाल शिवदासानी ने 2021 में एक बॉलीवुड बायोपिक, “फौजा” की घोषणा की थी, जो खुशवंत सिंह की किताब “द टर्बन्ड टॉरनेडो” पर आधारित है. अब कुछ वर्षों की देरी के बाद इस परियोजना को फिर गति मिल सकती है. जाहिर-सी बात है कि दुख, उदारता, बदलाव और आध्यात्मिक ताकत से परिपूर्ण फौजा सिंह की कहानी एक सार्वभौमिक अपील रखती है, खासकर ऐसे देश में जो वृद्धावस्था, फिटनेस और उद्देश्यपूर्ण जीवन को लेकर अपने विचारों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है.

एक बार, हांगकांग मैराथन के दौरान उन्होंने एक अनमोल बात कही. जब उनसे पूछा गया कि दौड़ते समय उन्हें क्या लगता है तो उन्होंने कहा, “वाहेगुरु! हर कदम एक प्रार्थना है.” अब, जब पूरा पंजाब और सिख समुदाय उनके निधन से शोक में डूबा है, तो उनके कदमों की आहट पहले से कहीं ज्यादा तेज सुनाई देती है. इसलिए नहीं कि उनके कदमों की आवाज तेज थी. बल्कि इसलिए कि उन्होंने कभी रुकना नहीं सीखा था.

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