scorecardresearch

बिहार के किसान आंदोलन को दुनिया के सामने लाने वाले अमेरिकी रिसर्चर वॉल्टर हाउजर की कहानी

साठ के दशक में बिहार आए अमेरिकी रिसर्चर वॉल्टर हाउजर ने स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनके किसान आंदोलन पर महत्वपूर्ण काम किया था. वे बिहार से इतना प्यार करते थे कि निधन के बाद उनकी और उनकी पत्नी की अस्थियां 26 जून को पटना के पास गंगा में विसर्जित की गई हैं

अपने बिहार प्रवास के दौरान वाल्टर हाउजर
अपने बिहार प्रवास के दौरान बड़हिया के किसान नेता सीताराम शर्मा के साथ वाल्टर हाउजर
अपडेटेड 27 जून , 2025

यह 1958 की बात है जब वह अमेरिकी रिसर्चर पहली बार बिहार आया. उसे अपनी रिसर्च के लिए एक अच्छे टॉपिक की तलाश में. राजधानी पटना से सटे बिहटा के सीताराम आश्रम में उसे किसान आंदोलन और सहजानंद सरस्वती से जुड़े कई महत्वपूर्ण दस्तावेज मिले.

1930 के दशक में बिहार में शुरू हुए इस आंदोलन की अहमियत को दुनिया के सामने लाने में उसने अपना पूरा जीवन खपा दिया. अपने शिष्यों को भी उसने बार-बार बिहार भेजा, अलग-अलग विषयों पर शोध करने के लिए. अब उस शख्स की राख पटना आई है.

इस गुरुवार यानी 26 जून को उसकी संतानों और शिष्यों ने मिलकर उस रिसर्चर और उसकी पत्नी के अस्थि अवशेषों को गंगा में प्रवाहित कर दिया. यह कहानी वॉल्टर हाउजर की है.

गुरुवार को दीघा घाट से जब प्रोफेसर वॉल्टर हाउजर और उनकी पत्नी रोजमेरी हाउजर के अस्थि अवशेषों को लेकर इनलैंड वॉटरवेज का स्टीमर जब चला तो उस पर उनकी बेटी शीला, उनके बेटे माइकल, बहू प्रोफेसर एलिजाबेथ, नातिन रोजमेरी हाउजर जॉस, उनके शिष्य विलियम पिंच, वेंडी सिंगर और सिंगर के बेटे ऐरन तो थे ही, उनके साथ पटना का पूरा नागरिक समाज था.

स्टीमर के डेक के पास दो कलशों में दोनों अस्थि अवशेष रखे थे और जो लोग यह नहीं जानते, उनके मन में यह सवाल घुमड़ रहा था कि आखिर एक ईसाई धर्मावलंबी वॉल्टर हाउजर ने अपने अंतिम संस्कार के लिए हिंदू रीति को क्यों चुना? क्यों दोनों पति-पत्नी को दफनाने के बदले उनका दाह संस्कार किया गया? और फिर क्यों प्रोफेसर हाउजर के निधन के छह साल बाद उनका परिवार उनकी अस्थियां लेकर पटना आया है?

वाल्टर हाउजर और रोजमेरी हाउजर की अस्थियां गंगा में विसर्जित करने स्टीमर पर सवार उनका परिवार और उनके शिष्य

सीताराम आश्रम ट्रस्ट के वर्तमान अध्यक्ष कैलाश चंद्र झा लंबे समय तक सहयोगी के रूप में वॉल्टर हाउजर के साथ जुड़े रहे और उन्होंने प्रोफेसर हाउजर की शोध सामग्रियों को फिर से बिहार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

झा बताते हैं, "वॉल्टर हाउजर अपनी जवानी में खेतिहर मजदूर रह चुके थे. इसलिए जब यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में पढ़ते वक्त उन्हें फुलब्राइट स्कॉलरशिप मिली तो उन्होंने खेतिहर मसलों पर काम करने का मन बनाया. हालांकि वे इतिहास के छात्र थे लेकिन यूनिवर्सिटी में रहते हुए ही उन्हें वहां होने वाले 'इंडिया विलेज सेमिनारों' के जरिये भारत के बारे में जानने का मौका मिल गया था."

वे आगे बताते हैं, "बहरहाल फुलब्राइट स्कॉलरशिप लेकर जब वे भारत आए तो हैरत की बात यह है कि उनके साथ उनकी गर्भवती पत्नी रोजमेरी हाउजर भी भारत आईं और यहीं उनकी बेटी का जन्म हुआ, भारत के प्रेम में उन्होंने अपनी बेटी का नाम शीला रखा, जो आज पटना आई हुई हैं. वे शोध के लिए किसी अच्छे विषय की तलाश में थे ही कि उन्हें दिल्ली में फुलब्राइट हाउस में एक प्रोफेसर ने बिहटा के सीताराम आश्रम जाने की सलाह दी और कहा कि उन्हें वहां उनके काम की सामग्री मिल जाये."

जब वॉल्टर आश्रम आए तो यहां की सामग्रियों को देखकर चकाचौंध रह गए. यहां देश के सबसे महत्वपूर्ण किसान आंदोलन से जुड़ी तमाम सामग्रियां थीं. बिहटा में स्थित उस सीताराम आश्रम की स्थापना देश के सबसे महत्वपूर्ण किसान आंदोलन के नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की थी. जमींदारों के अत्याचार के खिलाफ बिहार में 1927 में शुरू हुए इस आंदोलन ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के चरित्र को बदलने और उसे जनवादी स्वरूप देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. यह आश्रम उस आंदोलन का केंद्र था, इसलिए स्वामी जी के गुजरने के आठ साल बाद भी उस आश्रम में इस आंदोलन से जुड़े तमाम दस्तावेज और दूसरी सामग्रियां थीं.

इस आश्रम से जुड़े लेखक एवं संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर कहते हैं, "यहां आंदोलन से जुड़े परचे थे, "हुंकार'(स्वामी जी द्वारा शुरू किया गया अखबार) और जनता(संपादक-रामवृक्ष बेनीपुरी) अखबार की प्रतियां थीं, स्वामी जी के पत्र थे. एक तरह से पूरे किसान आंदोलन का दस्तावेज था. भारतीय एकेडमिया ने उनके काम को बहुत महत्व नहीं दिया, इसलिए इन दस्तावेजों में किसी की दिलचस्पी नहीं थी. हाउजर ने इन दस्तावेजों में से महत्वपूर्ण चीजों को छांटा और फिर उन पर काम किया. सबसे जरूरी बात यह कि स्वामी जी ने 1941 में जो किताबें लिखी थीं, चाहे वह खेत-मजदूर हो या झारखंड के किसान इन्हें भी वॉल्टर हाउजर दुनिया के सामने लाए."

वॉल्टर हाउजर जैसे रिसर्चर बहुत कम होते हैं. उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर स्वामी सहजानंद सरस्वती के जानने वालों का इंटरव्यू लिया. 1961 में उन्हें पीएचडी अवॉर्ड हो चुकी था मगर 40 साल बाद उन्होंने उस ब्रिटिश अफसर से मुलाकात की और उनका अनुभव दर्ज किया जिन्होंने 1937 में बड़हिया टाल में किसानों पर गोलियां चलवाने का आदेश दिया था.

अनीस इस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, "इसी से आप रिसर्च के प्रति उनकी निष्ठा और किसान आंदोलन के प्रति उनके लगाव को समझ सकते हैं. उनकी अपनी पहली किताब 2018 में छपी, उनके निधन से सिर्फ एक साल पहले. एक तरह से वे आजीवन बिहार के किसान आंदोलन के अध्येता और प्रवक्ता बने रहे."

वाल्टर हाउजर और रोजमेरी हाउजर की बिहार प्रवास की तसवीरें

हालांकि बिहार और भारत से उनका जुड़ाव सिर्फ किसान आंदोलन पर उनके शोध तक ही सीमित नहीं रहा. बिहार की लगातार यात्राओं के दौरान उनका जुड़ाव यहां के लोग, समाज और संस्कृति से भी होता रहा. इस यात्रा में पटना आए उनके बेटे माइकल हाउजर कहते हैं, "अमेरिका में जो हमारा घर है उसका नाम मेरे पिता ने नीलगिरी रखा था. इससे आप समझ सकते हैं कि वे भले अमेरिका में रहते थे, उनका दिल भारत में ही होता था."

अपनी शुरुआती भारत यात्रा के बारे में उनकी बेटी शीला बताती हैं, "1965 में मैं और मेरे भाई अपने माता-पिता के साथ पटना आए थे और हमलोग यहां के बीएन कॉलेज में ठहरे थे. वे अक्सर बिहार आते और यहां के किसानों से मिलते, उनकी कहानियां जानने की कोशिश करते. मैंने एक बार उनसे पूछा था कि आप अपने जीवन में अपने पीछे क्या छोड़कर जाना चाहते हैं, तब उन्होंने कहा था, मैं चाहता हूं कि दुनिया भारतीय और खासकर बिहारियों की दयालुता और सहृदयता को जाने, समझे. यहां की खूबसूरती को महसूस करे."

उन्होंने अपना अंतिम संस्कार हिंदू रीति से क्यों कराया और अपनी अस्थियां यहां क्यों विसर्जित कराना चाहते थे. इसके जवाब में शीला कहती हैं, "दरअसल वे बिहारी थे. भले वे अमेरिका में रहते थे, मगर उनके दिल में बिहार बसता था." कैलाश चंद्र झा कहते हैं, "उन्हें दीघा के मालदह आम से बहुत लगाव था, खिचड़ी बहुत पसंद आती थी. वहां के एकेडमिक सर्कल में कहा जाता था कि वे बिहार को लेकर सिनिकल हैं. बिहार के साथ-साथ उनका भारत से भी लगाव हो गया था. इसलिए बांग्लादेश युद्ध के दौरान उन्होंने अमेरिका में भारत के पक्ष में लॉबीइंग की. उनकी मौत के बाद अमेरिका में उन्हें ‘ग्रेट बेटा ऑफ बिहार’ कहा गया."

इसी लगाव की वजह से उन्होंने अलग-अलग समय पर अपने कई छात्रों को शोध करने के लिए बिहार भेजा. अनीश अंकुर बताते हैं, "उनके शिष्य क्रिस्टोफर हिल ने कोसी नदी पर बेहतरीन काम किया. आनंद यांग ने यहां के बाजारों हाटों पर काम किया. विलियम पिंच अंगरेजी राज के किसानों पर काम किया. पीजेंट्स एंड मंक्स इन ब्रिटिश इंडिया  उनकी बेहतरीन किताब है. वेंडी सिंगर ने बड़हिया टाल के किसानों पर काम किया."

संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर

हालांकि वॉल्टर के बिहार और भारत के प्रति प्रेम को गलत भी समझा गया. वे सीताराम आश्रम से अपने साथ किसान आंदोलन के दस्तावेजों को शिकागो ले गए थे. साठ और सत्तर के दशक में जब छात्रों के आंदोलन और नक्सलवाड़ी मूवमेंट की वजह से किसानों का सवाल मुख्यधारा में आने लगा तो इन दस्तावेजों की तलाश होने लगी. तब इस बात को लेकर काफी विवाद हुआ. संसद तक में यह सवाल उठा और यहां तक कहा गया कि वाल्टर हाउजर सीआईए के एजेंट हैं.

अनीश अंकुर कहते है, "यह समझा जाना चाहिए कि किन परिस्थितियों में वे अपने साथ इन दस्तावेजों को लेकर गए. जब वे सीताराम आश्रम आए थे तो वहां दस्तावेज नष्ट हो रहे थे. उन्हें कोई संभालने वाला नहीं था. इसके बावजूद ऐसा मेरा मानना है कि वे सभी दस्तावेजों को लेकर नहीं गए. अगर सौ पैंफलेट थे तो दो अपने साथ ले गए. उनके बाद भी यहां भरपूर दस्तावेज रह गए थे. मगर हमारे एकेडमिया ने न तब उनकी परवाह की, न अब. वे बस अपनी गलतियों के लिए उनकी आड़ लेते रहे. जिन लोगों ने आरोप लगाया, उन्होंने बिहार के दूसरे दस्तावेजों को संभालने की जिम्मेदारी नहीं उठाई. जबकि वॉल्टर हाउजर ने न सिर्फ उन दस्तावेजों को संभालकर रखा बल्कि आखिरी दिनों में हमें वापस भी कर दिया. 1975 के आसपास उन्होंने कई दस्तावेजों का नेहरू म्यूजियम में प्रिजर्वेशन भी कराया."

पिछले कुछ वर्षों से सीताराम आश्रम इन दस्तावेजों को संभालने के लिए खुद को तैयार कर रहा है. इसी बीच कैलाश चंद्र झा ने वॉल्टर के आखिरी दिनों में उनसे बात की और वे उन दस्तावेजों को भारत ले आए. वे भी इस बात से सहमत हैं कि दस्तावेजों को लेकर वॉल्टर की मंशा पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए.

कैलाश चंद्र कहते हैं, "वॉल्टर के मन में यह हमेशा रहता था कि ये सीताराम आश्रम की चीजें हैं. उन्होंने अपनी रिसर्च के दौरान बड़हिया और दूसरी जगहों से भी कई दस्तावेज जुटाए थे. वे आश्रम के दस्तावेज नहीं थे, मगर उन्होंने उनको भी संभालकर रखा. 2017 में उनके 90वें जन्मदिन पर मैं सपरिवार उनके घर अमेरिका गया था. उस वक्त तक सीताराम आश्रम की व्यवस्था ठीक होने लगी थी. तब यह तय हुआ कि अब यह सही वक्त है कि आश्रम की चीजों को लौटा दिया जाए. इसके साथ में उन्होंने अपनी शोध सामग्रियों भी हमें दीं. 2017 से 2018 के आखिर तक मैं तीन बार उनके घर गया. उनके साथ मिलकर मैंने इन सामग्रियों को अरेंज किया, फिर 2018 में ये चीजें भारत आईं. अब बिहार स्टेट आर्काइव इसका डिजिटाइजेशन करेगा. मूल प्रतियां सीताराम आश्रम में रहेगी."

बुधवार 25 जून से बिहार राज्य अभिलेखागार में इन सामग्रियों की प्रदर्शनी लगी है. इसमें स्वामी जी की चिट्ठियां, अखबार, उनके दस्तावेज, रिकार्डिंग के कैसेट्स, किताबें, नेगेटिव आदि तमाम चीजें प्रदर्शित की गईं हैं. 

बिहार में वाल्टर हाउजर के रिसर्च सहयोगी रहे कैलाश चंद्र झा

इन तमाम प्रसंगों से गुजरते हुए आखिर में यह सवाल बना ही रहता है कि आखिर कोई शोधार्थी क्यों अपने विषय से इतना जुड़ जाता है कि उसका विषय उसके जीवन, उसकी संवेदना और उसकी आस्था का हिस्सा बन जाता है.

इस सवाल के जवाब में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, "सबसे बड़ा कारण है कि लोगों में अनजानी चीजों के प्रति आकर्षण होता है. वह उसके लिए एक नई दुनिया खोल देता है. अनजान को समझने के रोमांस में उसके नए रिश्ते बनते हैं. ऐसे में वह अपने समाज में लौटता भी है तो इसका आकर्षण उसे छोड़ता नहीं. चूंकि यह समाज उसके लिए अनजान है तो इसे समझने के लिए वह अपना पूरा जीवन लगा देता है. वह कल्चर से भी प्रभावित होता है और उसके रीति-रिवाज भी उसे आकर्षित करते हैं. यह उनका लाइफ लॉन्ग रोमांस बन जाता है. वॉल्टर हाउजर के मामले में भी यही हुआ. वे सिर्फ किसान और सहजानंद सरस्वती तक सीमित नहीं रहे. यहां की नदियां, यहां के पहाड़, जनजीवन सबसे उनका जुड़ाव हुआ. इसमें गंगा भी आती है, जहां आज उनकी अस्थियां प्रवाहित हुई."

Advertisement
Advertisement