कानून की किताब में जमानत या अंग्रेजी में “बेल” एक संवैधानिक अधिकार है. लेकिन उत्तर प्रदेश के कई जिलों में यह अधिकार अब एक संगठित धंधे में बदल गया है. नतीजा यह कि यहां पेशेवर गारंटर, फर्जी दस्तावेज, ढीली निगरानी और पैसों के लालच ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है.
हाल के महीनों में कुशीनगर, आजमगढ़ और गौतमबुद्ध नगर में जो मामले पकड़े गए हैं, उन्होंने यह साफ कर दिया है कि फर्जी जमानत अब इक्का-दुक्का धोखाधड़ी नहीं रही, बल्कि एक समानांतर उद्योग की तरह काम कर रही है.
कुशीनगर : बेल को धंधे में बदलने वाले लोग
कुशीनगर पुलिस का हालिया ऑडिट इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है. पांच साल के बेल रिकॉर्ड की जांच में पता चला कि सिर्फ 12 लोग बार-बार वही भूमिका निभाते हुए कई तस्करों को बाहर निकाल रहे थे. जमानत की यह मशीनरी इतनी पेशेवर थी कि आरोपी दोबारा जेल से बाहर आते ही उसी अपराध में लौट जाते थे, बल्कि कुछ तो तस्करी चेन का हिस्सा बने रहते थे. कुशीनगर के एसपी केशव कुमार बताते हैं, “जांच में साफ हुआ कि कई बेल एफिडेविट नकली थे और कागजों में हेरफेर की गई थी. वे लोग यह काम पैसों के लिए कर रहे थे और एक तरह का सिंडिकेट खड़ा हो गया था.”
कुशीनगर के आंकड़े चौंकाने वाले हैं- रितेश ने 39 बार जमानत दी, मुकेश ने 32, दहारी ने 30, खदेरू ने 28, राजेंद्र सिंह ने 24, अवधेश ने 23, जनार्दन ने 13, सुरेश कुशवाहा और श्रीकिशुन ने 12-12, जगरूप ने 10, महेंद्र ने 9 और कमलेश ने 10 बार. इन बार-बार इस्तेमाल होने वाले “गारंटरों” ने अपने दस्तावेज कई तस्करों के नाम पर लगाए, जिन्हें पुलिस पहले ही सक्रिय अपराधी के तौर पर पहचान चुकी थी. इनमें से चार को इस सप्ताह गोपालगढ़ तिराहे से गिरफ्तार किया गया. बाकी की तलाश जारी है. पुलिस ने उनके बैंक खातों से लेकर जमीन के रिकॉर्ड तक की जांच शुरू की है ताकि यह पता लगाया जा सके कि यह “जमानत उद्योग” किस तरह चलता था.
आजमगढ़ : ऑपरेशन शिकंजा और बेल माफिया का खुलासा
आजमगढ़ में तस्वीर और भी बड़ी निकली. 13 नवंबर को “ऑपरेशन शिकंजा” के तहत पुलिस ने 41 फर्जी गारंटर और 10 अपराधियों को दबोचा. जांच में सामने आया कि कई वकील महज दो से तीन हजार रुपये लेकर “प्रोफेशनल जमानतदारों” की मदद से बेल फाइल करते थे. एसएसपी अनिल कुमार बताते हैं कि बेल पर बाहर आने के बाद कई आरोपी तुरंत फिर अपराध में लौट जाते थे. जब पुलिस ने पुराने दस्तावेज खंगाले तो पता चला कि एक ही जमीन, एक ही पहचान पत्र और एक ही हलफनामे का इस्तेमाल कई आरोपियों के लिए किया गया है.
कई जमानतदारों के डॉक्यूमेंट वकीलों के पास ही रहते थे. वे इन्हीं कागजों को बार-बार लगाकर बेल दिलाते रहे. यह पूरी प्रक्रिया बेल की मूल भावना के खिलाफ खड़ी होती गई, क्योंकि अदालत यह मानकर जमानत दे रही थी कि गारंटर असली है और आरोपी का जिम्मेदार भी. एक थानाध्यक्ष की शिकायत पर 99 लोगों (50 जमानतदार और 49 आरोपी) के खिलाफ कई BNS धाराओं में केस दर्ज हुआ. जांच क्राइम ब्रांच को सौंपी गई. पूछताछ में पकड़े गए फर्जी गारंटरों ने कबूला कि उन्हें तो उन लोगों का नाम तक नहीं पता था जिनकी जमानत वे ले रहे थे.
गौतमबुद्ध नगर : बड़ा और चुपचाप फैलता नेटवर्क
पश्चिमी यूपी का सबसे आधुनिक न्यायिक ढांचा रखने वाला गौतमबुद्ध नगर भी इससे अछूता नहीं है.
16 सितंबर 2025 को जिला न्यायालय में लूट के आरोपी के लिए फर्जी आधार कार्ड और झूठे दस्तावेज के साथ आए दो लोग मौके पर पकड़े गए. ठीक इससे एक साल पहले सेक्टर 24 थाने में गैर इरादतन हत्या के आरोपी को फर्जी जमानतदारों की मदद से बेल दिला दी गई थी. यहां का नेटवर्क ज्यादा व्यवस्थित है.
फर्जी पहचान पत्र, नकली निवास प्रमाणपत्र और कई मामलों में फर्जी खसरा-खतौनी तक तैयार कर ली जाती है. दस्तावेजों का सत्यापन पुलिस थानों और तहसील अधिकारियों पर निर्भर करता है. यही कमजोरी बेल माफिया के लिए सबसे बड़ा सुराख साबित हुई.
थानों में बरती जा रही लापरवाही, या कई मामलों में मिलीभगत, ने इस पूरे रैकेट को फलने-फूलने में मदद दी. जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रमेन्द भाटी इस पर चिंता जताते हैं, “ये घटनाएं बार और बेंच की गरिमा कम करती हैं. दस्तावेजों की सही जांच बेहद जरूरी है.” अपर पुलिस आयुक्त राजीव नारायण मिश्र कहते हैं कि सत्यापन में सुधार के लिए कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन यह लड़ाई लंबी है.
कैसे काम करता है बेल माफिया
तीनों जिलों की केस-स्टडी से यह साफ होता है कि इस नेटवर्क की कार्यशैली लगभग एक जैसी है.
1. पेशेवर गारंटर (कुछ लोग सिर्फ इसी काम से पैसा कमाते हैं. वे वकीलों से संपर्क में रहते हैं और हर केस में नए आरोपी के लिए अपने दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं.)
2. दो से तीन हजार रुपये की फीस (कई जमानतदार बहुत मामूली रकम पर अपनी पहचान बेच देते हैं. वकील उनकी कागजी फाइल अपने पास रखते हैं ताकि हर केस में तेजी से उपयोग हो सके.)
3. एक ही जमीन पर कई बेल (कई जगह एक ही खसरा-खतौनी को दस-बीस मामलों में इस्तेमाल किया गया. अदालत इस पर भरोसा कर लेती है क्योंकि सत्यापन अक्सर औपचारिक ही होता है.)
4. पुलिस सत्यापन की कमजोर कड़ी (थानों में दस्तावेज जांचने की प्रक्रिया धीमी और अक्सर सतही होती है. कई बार जमानतदार के पते पर फिजिकल वेरिफिकेशन तक नहीं होता.)
5. कोर्ट को झांसा देने वाले हलफनामे (जिन कागजों में यह लिखना जरूरी है कि जमानतदार पहले कितनी बेल ले चुके हैं, वहां यह तथ्य जानबूझकर छिपा लिया जाता है.)
6. अपराधियों की रिहाई और दोबारा अपराध में वापसी (मवेशी तस्करी, ड्रग्स, चोरी और हिंसा जैसे मामलों में आरोपी बेल मिलते ही उसी नेटवर्क में लौट आते हैं. गारंटर भी वही रहते हैं और चक्र चलता रहता है.)
सरकार क्या कर रही है
प्रदेश में पिछले एक साल में कई जिलों की पुलिस ने बेल डॉक्यूमेंट्स का ऑडिट शुरू किया है. कुशीनगर मॉडल (पांच साल के डॉक्यूमेंट खंगालकर एक्टिव तस्करों और उनके गारंटरों की क्रॉस-जांच की जा रही है.), आजमगढ़ मॉडल (ऑपरेशन शिकंजा जैसे अभियानों में बेल इतिहास, जमीन रिकॉर्ड और गारंटर पहचान की डेटाबेस-स्तर पर जांच की जा रही है. इससे नेटवर्क तुरंत पहचान में आया.) गौतमबुद्ध नगर मॉडल (पुलिस ने बेल सत्यापन में डिजिटल फाइलिंग और ऑनलाइन डेटा मिलान का प्रस्ताव दिया है, ताकि फर्जी दस्तावेज तुरंत पकड़े जा सकें.)
यूपी पुलिस मुख्यालय में तैनात एक अधिकारी बताते हैं “कई जिलों में यह सुझाव दिया गया है कि एक व्यक्ति कितनी बार किसी अपराधी के लिए गारंटर बन सकता है, इसका सीमा-निर्धारण हो. गारंटर का रिकॉर्ड डिजिटल रूप से अदालत, पुलिस और तहसील के साझा पोर्टल में दर्ज किया जाए. बार काउंसिल और जिला न्यायालय प्रशासन वकीलों के लिए सख्त मानक बनाए, ताकि कोई भी बिना दस्तावेज सत्यापन के बेल फाइल न कर सके.”
सिस्टम की कमजोरी या संगठित धंधा?
जानकार मानते हैं कि मूल समस्या दो हिस्सों में बंटी है. पहला, जमानत की प्रक्रिया पर निर्भर कई संस्थाएं, थाने, तहसील, अदालत और वकील, आपस में समन्वय नहीं करतीं. दूसरे, फर्जी जमानत का धंधा इतना आसान और कम जोखिम वाला है कि बेरोजगार युवा, गलत राह पर चलने वाले वकील और अपराधियों के गिरोह मिलकर इसे आय का साधन बना लेते हैं. पुलिस की पूछताछ में जमानतदारों का कहना है कि वे तो सिर्फ थोड़े-से पैसे के लिए यह काम करते थे, लेकिन असल नुकसान कानून व्यवस्था को होता है. अपराधियों का जेल से जल्द बाहर आ जाना पुलिस की मेहनत पर पानी फेर देता है. इसीलिए कुशीनगर और आजमगढ़ में पकड़ी गई बेल फाइलों ने पुलिस को चौंका दिया. अपराधियों को सिर्फ इसलिए बेल मिल जाती थी क्योंकि अदालत को यकीन था कि गारंटर असली है और जवाबदेह भी. लेकिन जब अदालत के भेजे NBW तामील करने की बारी आती, तो पता चलता कि जमानतदार उस पते पर रहता ही नहीं.
पुलिस की हालिया कार्रवाई ने बेल माफिया की जड़ों को हिलाया जरूर है, लेकिन इसे खत्म करने के लिए सिस्टम-स्तर के बड़े बदलाव की जरूरत होगी. डिजिटल सत्यापन, सीमित जमानत कोटा, वकीलों की जवाबदेही और दस्तावेज जांच में सुधार, ये चार कदम तय करेंगे कि बेल प्रक्रिया अपराध का रास्ता बने या न्याय का साधन. अब पहली बार पुलिस ने इस धंधे की रीढ़ पर वार किया है. आने वाले महीनों में यह साफ होगा कि क्या यह सिर्फ कुछ केसों का खुलासा है या एक बड़े और खतरनाक नेटवर्क पर सर्जिकल स्ट्राइक की शुरुआत.

