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तमिलनाडु की राजनीति में MGR की विरासत धुंधली क्यों नहीं पड़ती? अब कौन दावा ठोक रहा?

पलानीस्वामी के लिए MGR की विरासत पर दावा AIADMK को उसके संस्थापक से जोड़ने का मामला है; वहीं एक्टर विजय के लिए यह एक सियासी जमीन तलाशने की कोशिश है

एमजी रामचंद्रन यानी MGR
अपडेटेड 11 सितंबर , 2025

तमिलनाडु के सियासी परिदृश्य में MGR (एम.जी. रामचंद्रन) एक ऐसा नाम है जिसने आज भी अपना वजूद बरकरार रखा है. निधन के चार दशक बाद भी वे एक ऐसे नायक के तौर पर राज्य के जनमानस में छाए हैं जिन्होंने सिनेमा और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में असाधारण सहजता से अपनी पैठ बनाई. 

आज भी, MGR का नाम लेना खुद को स्थापित करने का सबसे आसान तरीका माना जाता है और नेता चाहे वरिष्ठ हों या नए, उनकी विरासत पर दावेदारी जताने का कोई मौका नहीं चूकते. एक तरफ जहां अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (AIADMK)- जिसकी स्थापना MGR ने 1972 में की थी- के महासचिव एडप्पादी के. पलानीस्वामी (EPS) खुद को MGR का राजनीतिक उत्तराधिकारी बताकर राजनीतिक स्थिति मजबूत करने की कोशिश में जुटे हैं तो दूसरी तरफ अभिनेता विजय भी उनके सहारे अपनी सियासत चमकाने में लगे हैं. अपनी राजनीतिक पार्टी तमिझागा वेत्री कड़गम (TVK) गठित करने वाले विजय खुद को MGR के नक्शेकदम पर चलने वाले अगले महान व्यक्ति के तौर पर स्थापित करने में लगे हैं.

कुल मिलाकर ये MGR की यादों को भुनाने की एक सियासी लड़ाई है- MGR का सच्चा उत्तराधिकारी बनने का अधिकार किसे है? लेकिन MGR के करियर को करीब से देखने-समझने वालों का कहना है, ईपीएस और विजय जिस विरासत पर काबिज होने का सपना देख रहे हैं वो उनकी समझ से परे की चीज है. AIADMK के गठन के समय ही उसकी कवरेज करने वाले वरिष्ठ मीडिया टिप्पणीकार दुरई करुणा इस पर एकदम दो-टूक कहते हैं, "MGR की विरासत किसी की नहीं है.”

उनके मुताबिक, MGR सिनेमा और राजनीति दोनों में बेजोड़ ऊंचाइयों पर पहुंचे. न उनके जीवित रहते कोई उस जगह तक पहुंच सका और न ही उनके निधन के बाद कोई उनकी जगह ले सकता है. उनका दृष्टिकोण और चरित्र बिल्कुल अलग था. जब वे द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) में थे, तब भी लोग इसे MGR की पार्टी ही कहते थे. MGR से किसी की तुलना नहीं की जा सकती, न विजय की, न ही पलानीस्वामी की.

तमिलनाडु में MGR के लिए पुरात्ची तमिझार (क्रांतिकारी तमिल) उपनाम इस्तेमाल होता है और जे. जयललिता के लिए पुरात्ची थलाइवी.  AIADMK नेताओं और कार्यकर्ताओं ने पोस्टरों में EPS को MGR की तुकबंदी में एडप्पादियार कहना शुरू कर दिया है. करुणा का मानना है, “कुछ जगह पलानीस्वामी को पुरात्ची थलाइवर के तौर पर भी पेश किया गया. लेकिन यह कारगर नहीं होगा. अपने दृष्टिकोण और रवैये के चलते ईपीएस केवल MGR और उनकी बनाई पार्टी को नुकसान ही पहुंचा रहे हैं.”इस बीच, विजय भी MGR को पृष्ठभूमि में रखकर अपने राजनीतिक सफर की पटकथा लिखने में जुटे हैं. हाल ही में एक बैठक में उन्होंने घोषणा की है, "तमिलनाडु जिस तरह 1967 और 1977 में परिवर्तन का गवाह बना, उसी तरह 2026 में फिर से बदलाव होगा.”

1967 में DMK सदस्य रहते हुए MGR ने कांग्रेस के खिलाफ पार्टी की पहली जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. करुणा के मुताबिक, “MGR ने 1967 में DMK की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने पहले और बाद में निभाई, जब तक कि उन्होंने अपनी पार्टी नहीं बना ली.”

एक दशक बाद 1977 में DMK से अलग होकर बनाई गई MGR की पार्टी अपने दम पर सत्ता में आई. 1967 और 1977 का हवाला देकर विजय दरअसल खुद को अगले बड़े राजनीतिक बदलाव का सूत्रधार साबित करना चाहते हैं. लेकिन क्या इस तरह MGR के नाम का सहारा लिया जा सकता है?

यह बात हर किसी के गले नहीं उतर रही. MGR को समर्पित पत्रिका इदायकनी के संपादक इदायकनी विजयन ऐसे दावों को खारिज करते हैं. विजयन कहते हैं, “MGR की विरासत पर कोई भी दावा नहीं कर सकता. कोई भी उनके जैसे व्यक्तित्व वाला नहीं है. सिर्फ उनका नाम लेने से काम नहीं चलेगा. विजय अपनी फ़िल्मों में MGR के गाने या संवाद इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन वे MGR के नक्शेकदम पर नहीं चल सकते तो इसका क्या फायदा? न तो पलानीस्वामी और न ही विजय ने ऐसा किया है. MGR ने कभी खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं किया. एडप्पादी को तो पार्टी ने चुना भी नहीं था- उन्होंने खुद को महासचिव बना लिया था. MGR के अनुयायी खुद-ब-खुद उनके पीछे चलने लगते थे.”

विजयन आगे कहते हैं कि सिनेमाई रूप से MGR की छवि को भुनाने से पुरानी यादें ताजा हो सकती हैं लेकिन इससे सियासी विश्वसनीयता हासिल नहीं की जा सकती. उनके मुताबिक, “यही बात पलानीस्वामी पर भी लागू होती है. वे सिर्फ AIADMK महासचिव होने वजह से MGR की विरासत पर काबिज नहीं हो सकते.”

MGR की जगह लेना इतना मुश्किल क्यों है?

ऐसे कई फैक्टर हैं जो उनकी विरासत पर दावेदारी के प्रयासों को विरोधाभासों से भर देते हैं. पहली बात तो यह है कि स्टार और राजनेता, दोनों ही रूप में उनकी सशक्त पहचान उस दौर में एकदम अनूठा पहलू थी. MGR की फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं करती थीं. बल्कि नैतिक दृष्टांत सामने रखती थीं और गरीबों के मसीहा के तौर पर उनकी छवि को मजबूत करने वाली थीं.

जब MGR राजनीति में आए तो पर्दे पर नजर आने वाला व्यक्तित्व उनकी सार्वजनिक भूमिका के साथ सहजता से घुल-मिल गया, जिससे जनता के साथ उनका एक ऐसा रिश्ता बना जो राजनीतिक से ज्यादा भावनात्मक था. जानकार ये भी कहते हैं कि विजय ने अपनी खुद की पार्टी बनाई और कुछ ही वर्षों में सत्ता हासिल करने की उम्मीद कर रहे हैं, जबकि MGR ने अपनी पार्टी शुरू करने से पहले दो दशकों से ज़्यादा समय तक DMK के साथ काम किया था.

MGR की राजनीति उस दौर की थी जब सिनेमा और राजनीति एक-दूसरे से इस तरह जुड़े थे जैसा आज के मीडिया परिदृश्य में कल्पना भी नहीं की जा सकती. ये महज कोई संयोग नहीं है कि EPS और विजय दोनों MGR के नाम का सहारा लेने को मजबूर हैं. ईपीएस के लिए ये AIADMK को उसके संस्थापक व्यक्तित्व से जोड़े रखने और उस निरंतरता की भावना को जीवित रखने की कोशिश है जो जयललिता के निधन के बाद गुटबाजी के कारण बिखरी पार्टी को एकजुट रख सकती है.

करुणा का मानना है, “ईपीएस चुनाव जीतने की उम्मीद सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास AIADMK का नाम और “दो पत्ती” वाला चुनाव चिह्न है. लेकिन तमाम कार्यकर्ता, खासकर युवा, उनसे खासे निराश हैं. जब तक AIADMK सभी असंतुष्ट नेताओं को साथ नहीं लाती और खुद को पूरी तरह एकजुट नहीं दर्शाती, जीत हासिल करना संभव नहीं है.”

विजय के लिए ये एक ऐसी सियासी जमीन तलाशने की कोशिश हैं जो उनके स्टारडम को चुनावी वादों से जोड़ सके, एक ऐसा समीकरण जिसे न सिर्फ MGR ने गढ़ा था बल्कि सफलता के साथ उसे लागू भी कर सके थे. जैसे-जैसे 2026 नजदीक आ रहा, विजय अगले महान परिवर्तनकारी के तौर पर खुद को पेश करने की कोशिशों को धार दे सकते हैं, और ईपीएस भी खुद को MGR के नक्शेकदम पर चलने वाला साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. 

फिर भी, जैसा करुणा और विजयन दोनों कहते हैं, MGR की विरासत पर काबिज होना आसान काम नहीं हैं. ये इस बात की याद दिलाता है कि कैसे मिथक अक्सर उन लोगों की तुलना में ज्यादा समय तक प्रासंगिक रहते हैं जो उन्हें भुनाना चाहते हैं.

- कविता मुरलीधरन

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