राहुल गांधी अपनी पैंट ऊपर चढ़ाकर बिहार के कटिहार में कीचड़ भरे तालाब में उतरे और उसमें खिली मखाने की फलियां तोड़ने लगे. उनके आसपास मौजूद किसान बता रहे थे कि मखाने की खेती करना कितना कठिन काम है, जिसे आमतौर पर नदी के किनारे बसे बेहद गरीब परिवारों के लोग ही करते हैं.
राहुल ने उनसे सवाल पूछे, उनकी बातों को ध्यान से सुना, और पूरी गंभीरता से उनसे सहमति जताते हुए महसूस किया कि इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद किसानों को कोई खास लाभ नहीं मिलता. बाद में उन्होंने एक्स पर एक वीडियो पोस्ट किया और लिखा, “मखाना बिहार के किसानों के पसीने और मेहनत की उपज है. ये हजारों रुपये में बिकता है लेकिन उनकी कमाई सिर्फ कुछ पैसे की होती है. पूरा मुनाफा बिचौलियों के पास चला जाता है. हमारी लड़ाई इस अन्याय के खिलाफ है- इस कड़ी मेहनत और कौशल का लाभ पाना मजदूर का हक है.”
यह सिर्फ संयोग नहीं था, बल्कि एक संदेश देने की कोशिश थी. राहुल गांधी की मतदाता अधिकार यात्रा- जो 16 दिन तक बिहार के कस्बों-गांवों से होकर गुजरने वाली 1,300 किलोमीटर लंबी पदयात्रा है- सिर्फ एक सियासी ड्रामा भर नहीं है. ये कांग्रेस परिवार के उत्तराधिकारी और अब लोकसभा में नेता विपक्ष की तरफ से उस राज्य में खोई जमीन तलाशने और उसे वापस पाने की सबसे गंभीर कोशिश है जहां उनकी पार्टी कभी निर्विरोध शासन करती थी. लेकिन अब लगभग पूरी तरह साफ हो चुकी है.
अतीत और वर्तमान
1990 तक बिहार में कांग्रेस ने पूर्ण एकाधिकार के साथ शासन किया. लेकिन मंडल लहर और लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के उदय ने सामाजिक समीकरणों को बदल दिया और पार्टी हाशिये पर पहुंच गई. 2005 में जब नीतीश कुमार ने अपनी स्थिति मज़बूत की, तब तक कांग्रेस लगभग दरकिनार होकर अपने सहयोगियों पर हावी रहने वाले राजद की एक जूनियर पार्टनर बन चुकी थी.
2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कुल 243 सीटों में 70 पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 19 पर जीत हासिल की. इस आंकड़े ने महागठबंधन के भीतर असंतोष और भड़का दिया, जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से एक मामूली अंतर- 12 सीटें और कुछ हजार वोट से पीछे रह गया था.
वर्षों तक राहुल गांधी पर आरोप लगता रहा वे बिहार से पूरी तरह कटे हुए हैं और सिर्फ चुनावी गहमागहमी के बीच ही यहां पर नजर आते हैं. ये साल इस मायने में अलग रहा. 17 अगस्त को सासाराम से शुरू होकर 1 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में खत्म होने वाली मतदाता अधिकार यात्रा 2025 में राज्य की उनकी छठी यात्रा है. ये प्रतीकात्मक भी है और एक तरह का सियासी दांव भी. प्रतीकात्मक इसलिए क्योंकि एक पार्टी अपनी खोई जमीन पर फिर से जड़ें जमाने की कोशिश कर रही है; और दांव ये है कि लंबी यात्रा राज्य में पार्टी को राजनीतिक दायित्व से ऊपर उठाकर प्रासंगिक बना सकती है.
प्रतीकों के जरिये साधने की कोशिश
यात्रा शुरू करने के लिए सासाराम का चयन काफी सोच-समझकर किया गया है, क्योंकि शाहाबाद क्षेत्र में ही इंडिया ब्लॉक ने 2024 में सभी चार लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाया था- कांग्रेस ने सासाराम, राजद ने औरंगाबाद और बक्सर और भाकपा (माले) लिबरेशन ने आरा. पूरा यात्रा मार्ग काफी संतुलित रखा गया है, जो 23 जिलों से होकर गुजरेगा और मगध, मिथिला, सीमांचल, तिरहुत, अंग और सारण के 50 विधानसभा क्षेत्रों को कवर करेगा. ये क्षेत्र सुरक्षित गढ़ हैं और वोट स्विंग की संभावनाओं से भरे भी हैं- औरंगाबाद और गया में जहां ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और दलितों की बड़ी आबादी रहती है, सीमांचल मुस्लिम बहुल इलाका है और तिरहुत-सारण में जातिगत समीकरण काफी अस्थिर है.
यात्रा के दौरान राहुल के कटिहार में मखाना किसानों से मिलने जैसी गतिविधियों को इस तरह निर्धारित किया गया है जिससे जाति और वर्ग की शिकायतें सीधे जानी-समझी जा सकें. मखाना की खेती मुख्यत: मल्लाह समुदाय करता है जो एक अत्यंत पिछड़ी जाति है लेकिन जनसांख्यिकीय के लिहाज से खासा दबदबा रखने वाले इस समुदाय की राजनीतिक भागीदारी बहुत कम है. इन्हें साधने की सियासी अहमियत को समझते हुए ही बीजेपी ने 2025 के केंद्रीय बजट में मखाना बोर्ड की घोषणा की, जिसमें प्रशिक्षण और समर्थन का वादा किया गया था.
पैंट चढ़ाकर मखाना तालाबों में उतरने और फलियां तोड़ने का राहुल का फैसला कोई साधारण सैर-सपाटा नहीं था. बल्कि एक जवाबी कदम है, जिससे जताया जा सके कि पार्टी उस वर्ग के साथ सहानुभूति के साथ खड़ी है, जिसके लिए बीजेपी ने अपनी नीति घोषित की थी.
‘वोट चोरी’ की राजनीति
ग्रामीण अंचलों में काफी आक्रामक बयानबाजी की सहारा लिया जा रहा है. राहुल ने अपनी यात्रा को ‘वोट चोरी’ के खिलाफ लड़ाई के तौर पर पेश किया है- कथित तौर पर चुनाव आयोग (ईसी) के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभियान के जरिये वोटों की चोरी, जिसके तहत बिहार की मतदाता सूचियों से 65 लाख नाम हटा दिए गए हैं. नवादा में राहुल ने सुबोध कुमार नामक एक व्यक्ति को भीड़ से बाहर खींचा, जिनका नाम 2024 में वोट देने के बावजूद मतदाता सूची से गायब हो गया है. एक हाथ सुबोध के कंधे पर रखकर दूसरे में माइक्रोफोन पकड़कर राहुल गांधी ने हुंकार भरी, “हम उन्हें एक भी वोट नहीं चुराने देंगे.”
कांग्रेस के लिए ‘वोट चोरी’ का नारा सिर्फ सियासी दिखावा नहीं है. ये आरोप एक ऐसे राज्य में गूंज रहा है जहां नौकरशाही की मनमानी अक्सर लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर काफी असर डालती है. वोट के अधिकार को कौशल के अधिकार से जोड़कर राहुल एक ऐसी राजनीति गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जहां मताधिकार से वंचित होने का मतलब बेदखल होना भी है.
पार्टी की पुर्स्थापना
ये यात्रा कांग्रेस के आंतरिक पुनर्गठन के लिहाज से भी खास मायने रखती है. मार्च में कांग्रेस ने अपने उच्च-जाति के दिग्गज नेता अखिलेश सिंह की जगह रविदास समुदाय के दलित नेता राजेश कुमार को राज्य में पार्टी अध्यक्ष नियुक्त किया, जो उस सामाजिक जनाधार को तरजीह देने का स्पष्ट संकेत था जो उससे दूर हो चुका था. यात्रा में राजेश कुमार का राहुल के साथ चलना बताता है पार्टी दलितों, ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्गों (EBC) पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित कर रही है. पार्टी सहयोगियों की तरफ से किए गए वादों के जरिये भी लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही है- प्रत्येक निवासी के लिए 25 लाख रुपये की मुफ्त चिकित्सा सेवा, सैनिटरी पैड वितरण और रोजगार मेलों का आयोजन.
ये प्रतीकात्मक कोशिशें बताती हैं कि कांग्रेस सिर्फ राजद की पीठ थपथपाने की कोशिश नहीं कर रही, बल्कि स्वतंत्र रूप से अपनी प्रासंगिकता को फिर हासिल करने की कोशिश भी कर रही है. अगर वो इस चुनाव में अपनी विधानसभा सीटें 19 से बढ़ाकर 30 या उससे ज्यादा करने में सफल रहती है तो गठबंधन का पूरा अंकगणित बदल जाएगा. ऐसे राज्य में जहां कभी महज 12 सीटों ने हार-जीत का फैसला किया, ऐसी बढ़त जाहिर तौर पर बेहद महत्वपूर्ण ही साबित होगी.
बड़ा दांव
यात्रा मार्ग से जुड़े 50 विधानसभा क्षेत्रों में से 21 पर मौजूदा समय में महागठबंधन का कब्ज़ा है. इसमें राजद का दबदबा है लेकिन औरंगाबाद, कटिहार, अररिया, भागलपुर और मुजफ्फरपुर में कांग्रेस की पकड़ भी ठीकठाक है. यही वो इलाके हैं जहां राहुल अपनी पैठ मजबूत करना चाहते हैं. बीजेपी की अगुवाई वाला एनडीए अभी मिथिलांचल के एक बड़े हिस्से पर काबिज है, जहां उसने मखाने पर दांव लगाया है. लेकिन तिरहुत-सारण क्षेत्र में मतदाताओं की निष्ठा बहुत स्थिर नहीं है. यही अस्थिर सियासी जमीन यात्रा की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा होगी.
सत्तारूढ़ गठबंधन की प्रतिक्रिया उपहासपूर्ण रही. उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने राहुल गांधी और उनके सहयोगी राजद नेता तेजस्वी यादव का जिक्र करते हुए चुटकी ली, “एक भाई ने देश बर्बाद किया, और दूसरे ने बिहार.” हालांकि, प्रतिक्रिया देने की जरूरत ही बदले सियासी माहौल का संकेत देने के लिए काफी है. वर्षों बाद शायद पहली बार कांग्रेस एनडीए को अपनी उपस्थिति स्वीकारने पर बाध्य कर रही है.
आगे की राह
बिहार हमेशा से भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला रहा है- नब्बे के दशक में मंडल, और पिछले दो दशकों में नीतीश का शासन मॉडल. अब, परीक्षा ये होगी कि क्या कांग्रेस खुद को एक बार फिर प्रासंगिक बना पाएगी. राहुल की यात्रा रूपक और प्रयोग दोनों है- रूपक इस संदर्भ में कि उन्होंने एक बिसराए गए राज्य में फिर से कदम रखा है और प्रयोग इसलिए कि क्या उनकी मौजूदगी, दृढ़ता और प्रतीकात्मक राजनीति वोटों में तब्दील हो पाएगी.
बिहार की धरती की धूल-मिट्टी फांकता और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से गुजरता काफिला जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, राहुल गांधी की किसानों के साथ घुटनों तक गहरे तालाब में उतरने, धुंधली रोशनी वाले हाल में मजदूरों का दुख-दर्द बांटने, मताधिकार से वंचित लोगों से बातें करने और सड़क किनारे ढाबे पर चाय की चुस्कियां लेने की तस्वीरें सुर्खियां बटोर रही हैं. ये सब कई दशकों में कांग्रेस की तरफ से बिहार के ज्वलंत मुद्दों से खुद को जोड़ने की सबसे ठोस कवायद है.
राहुल यात्रा के आखिरी चरण में 1 सितंबर को जब पटना के गांधी मैदान में रैली को संबोधित करेंगे, तब तक कोई फैसला नहीं होगा. चुनाव होने में अभी वक्त है, सियासी समीकरण उलट-पुलट होंगे और फिर बिहार अपना जनादेश सुनाएगा.
लेकिन एक मायने में मतदाता अधिकार यात्रा ने काफी कुछ बदलकर रख दिया है. एक पूरी पीढ़ी गुजरने के बाद पहली बार कांग्रेस बिहार में सिर्फ रास्ते ही नहीं नाप रही बल्कि मजूबत इरादे, आक्रामकता और नए सिरे से उभरने की ललक के साथ आगे बढ़ रही है.