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पूजा पाल का बयान और सपा से निष्कासन; यूपी की राजनीति में किस बदलाव की आहट है?

समाजवादी पार्टी ने पहले भी अपने विधायकों को बाहर का रास्ता दिखाया है लेकिन पूजा पाल का मामला कई मायनों काफी अलग साबित हो सकता है

सपा विधायक पूजा पाल
अपडेटेड 16 अगस्त , 2025

अगस्त की 14-15 तारीखों में उत्तर प्रदेश का विधानसभा सत्र (विजन-2047 बहस) 24 घंटे तक चला और यह प्रदेश में पहली बार हुआ. इन दिनों इसकी चर्चा तो थी ही लेकिन असल राजनीतिक उठपटक दिखी समाजवादी पार्टी (सपा) की चायल (कौशांबी) से विधायक पूजा पाल को लेकर.

सत्र की कार्यवाही के दौरान पूजा पाल ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खुले मंच से सराहना की- खासतौर पर ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ अपराध-नीति और अपने पति, दिवंगत विधायक राजू पाल के हत्याकांड में न्याय दिलाने के संदर्भ में. कुछ ही घंटों में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. 

पूजा पाल का निजी-राजनीतिक इतिहास इस प्रसंग को असाधारण बनाता है: वे 2005 में प्रयागराज में दिनदहाड़े मारे गए बसपा विधायक राजू पाल की पत्नी हैं. इस हत्या में माफिया-राजनीतिज्ञ अतीक अहमद और उसके नेटवर्क पर आरोप लगे; बाद में 2023 में अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या पुलिस कस्टडी में हुई, और 2024 में सीबीआई की विशेष अदालत ने राजू पाल हत्याकांड में कई दोषियों को सज़ा सुनाई. 

इसी हवाले से योगी सरकार की ‘माफिया-विरोधी’ छवि को उन्होंने सार्वजनिक धन्यवाद दिया जो सपा लाइन के खिलाफ गया. यह कार्रवाई उसी सिलसिले की अगली कड़ी दिखती है, जिसमें सपा ने जून 2025 में तीन विधायकों (अभय सिंह, राकेश प्रताप सिंह, मनोज पांडे) को क्रॉस-वोटिंग’ के कारण बाहर किया था. 

पूजा पाल का निष्कासन बताता है कि 2027 से पहले अखिलेश यादव पार्टी-लाइन के उल्लंघन को लेकर ‘ज़ीरो-टॉलरेंस’ मोड में हैं, खासकर उन विधायकों पर जो बीजेपी शासन की किसी प्रमुख नीति व छवि की सार्वजनिक सराहना करें. इससे पार्टी कोर-वोट को यह संकेत जाता है कि नेतृत्व डगमगा नहीं रहा, पर साथ ही ‘मध्यमार्गी-सहानुभूति-आधार’ वाले चेहरों का स्पेस सिमटता है. 

योगी सरकार के ‘लॉ-एंड-ऑर्डर’ नैरेटिव को बल

पूजा पाल ने जिस तरह योगी और उनकी सरकार का आभार जताया वह ‘माफिया के ख़िलाफ़ सख़्ती’ के नैरेटिव को एक पीड़ित परिवार के स्वर में वैधता देती है. साल 2017 के बाद से योगी सरकार की यह सबसे सशक्त चुनावी दलील रही है; विपक्ष अक्सर ‘एनकाउंटर राजनीति’ बनाम ‘कायदे-कानून’ की बहस उठाता है लेकिन पीड़ितो के प्रति आम जनता की सहानुभूति से इस बहस में कमजोर पड़ जाता है. 

राजनीतिक विश्लेषक पूजा पाल के घटनाक्रम को पीडीए बनाम ‘परिवारवाद’ नारे की काट के सत्तारूढ़ दल के प्रयास के रूप में भी देख रहे हैं. लखनऊ के प्रतिष्ठ‍ित अवध कालेज की प्राचार्य और राजनीतिक शास्त्र विभाग की प्रमुख बीना राय कहती हैं, “सदन में जिस समय ‘पीडीए’ (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) पर दोनों पक्षों की टकराहट चल रही थी, तब सीएम योगी ने पीडीए को “परिवार विकास प्राधिकरण” कहकर चुटकी भी ली थी. ऐसे समय पाल ओबीसी बिरादरी से आने वाली पूजा पाल का सार्वजनिक समर्थन बीजेपी को सामाजिक-न्याय वाली बहस में ‘कानून-व्यवस्था से सुरक्षित ओबीसी-महिला’ का उदाहरण देता है, जबकि सपा के पीडीए नैरेटिव को कुछ डैमेज-कंट्रोल की ज़रूरत पड़ सकती है.” 

मामले का जमीनी राजनीति से भी लेना-देना है

पूजा पाल प्रकरण के भौगोलिक पहलू भी हैं. प्रयागराज-कौशांबी बेल्ट में राजू-अतीक टर्फ पर राजनीति भावनात्मक याददाश्त से चलती है. पूजा पाल की पहचान प्रयागराज-कौशांबी क्षेत्र में ‘न्याय की लड़ाई’ से जुड़ी रही है. उनका निष्कासन स्थानीय सपा कैडर में असहजता और बीजेपी-पक्ष में संभावित ‘नैतिक-समर्थन’ या भविष्य के ट्रांजिशन की अटकलें बढ़ाएगा. अगर वे ‘उपेक्षित व निष्कासित’ टैग के साथ बीजेपी समर्थक नैरेटिव पर टिकती हैं, तो क्षेत्रीय समीकरण बदल सकते हैं. (औपचारिक दलबदल के कानूनी‐तकनीकी पहलू अलग प्रश्न हैं—फिलहाल वे निष्कासित सदस्य हैं; ऐसी स्थिति में पिछली मिसाल के अनुसार स्पीकर अक्सर उन्हें “अनअटैच्ड” मानते हैं.) 

वहीं सपा ने 2024 की राज्यसभा क्रॉस-वोटिंग के बाद चरणबद्ध अनुशासन-कार्रवाई की है. पूजा पाल के मामले में ‘तुरंत’ निष्कासन बताता है कि सत्र के बीच पार्टी किसी भी सार्वजनिक ‘लाइन क्रॉस’ को बर्दाश्त नहीं करेगी. इससे शेष असंतुष्ट विधायकों को भी संदेश जाता है; लेकिन इस नीति का उल्टा प्रभाव यह हो सकता है कि “लोकल इश्यू-स्पेस” (जैसे क़ानून-व्यवस्था पर अपने इलाके के अनुभव) रखने वाले चेहरे पार्टी से दूर चले जाएं. 

पूजा पाल भविष्य की राजनीति के लिए एक औजार बन सकती हैं. बीना राय के मुताबिक, “बीजेपी इस प्रकरण को महिला-सुरक्षा और ‘न्याय हुआ’ की कहानी के रूप में प्रस्तुत करेगी—खासकर तब, जब पीड़िता-परिवार का कोई सदस्य खुद सदन में सरकार का आभार जता रहा हो. यह कथा 2027 की राह में कानून-व्यवस्था और माफिया-कंट्रोल को वोट-कन्वर्टर की तरह उपयोगी बनाती है.” भारतीय दल-व्यवस्था में ‘व्हिप’ और ‘लाइन-टूटना’ बड़ा अपराध माना जाता है. पर जिन मामलों में विधायक का स्टैंड निजी-न्याय व स्थानीय-अनुभव से प्रेरित हो, वहां कठोर अनुशासन और जनता की संवेदना टकराते हैं. पूजा पाल केस इस ‘ग्रे ज़ोन’ की मिसाल बन सकता है- जहां एक पक्ष ‘पार्टी-लाइन’ कहेगा, दूसरा ‘व्यक्तिगत न्याय’ की आवाज़. 

माफिया मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद के नेटवर्क पर कार्रवाई और अदालतों में प्रगति ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में लड़ाई का एक नया मैदान बनाया है जहां पार्टियां अपराध-नियंत्रण पर क्रेडिट व ब्लेम की लड़ाई लड़ती दिख रही हैं. पूजा पाल का वक्तव्य इस नए मैदान को संस्थागत समर्थन देता है क्योंकि यह विरोधी दल के विधायक की ज़ुबानी आया है. लेकिन इसी के साथ मानवाधिकार व प्रक्रियात्मक न्याय की बहस भी जीवित रहेगी. विपक्ष इस कोण से सरकार की नीति को चुनौती देता रहा है. 

पूजा पाल का अगला कदम क्या होगा?

अब पूजा पाल सपा से बाहर हैं; तकनीकी रूप से वे बतौर विधायक ‘अनअटैच्ड’ की श्रेणी में जा सकती हैं. अगर वे औपचारिक रूप से किसी दल में शामिल होती हैं, तो दलबदल-कानून, विधायी प्रक्रिया के प्रश्न उठते हैं. पिछले माह जिन तीन सपा विधायकों को निष्कासित किया गया, उन्हें स्पीकर ने ‘अनअटैच्ड’ माना था. इसका मतलब है कि वे पार्टी के सदस्य तो बने रहते हैं लेकिन उसकी व्हिप मानने के लिए बाध्य नहीं होते. इसी मिसाल के आधार पर पूजा पाल के अगले कदम पर सबकी नज़र रहेगी. 

बीजेपी ऐसे मामलों में ‘मोरल-हाईग्राउंड’ रखती हुई ‘उचित समय’ की रणनीति अपनाती दिखती है. हालांकि पूजा पाल प्रकरण सपा को भी कुछ हद तक डैमेज कंट्रोल करने को बाध्य करेगा. पार्टी अंदरूनी संवाद पर जोर दे सकती है, ताकि अलग राय रखने वाले विधायकों से बातचीत की जा सके और उन्हें समझाया जा सके. इसके अलावा सपा पीडीए को सुरक्षा-न्याय के ठोस एजेंडे (पीड़ित सहायता, तेज़ ट्रायल, गवाह सुरक्षा) से जोड़ने की कोशि‍श भी करेगी ताकि ‘कानून-व्यवस्था’ पूरी तरह बीजेपी की विशिष्ट थीम न बन जाए. 

पूजा पाल के एक धन्यवाद-वाक्य ने यूपी की राजनीति के कई परतें खोल दीं—सपा की अनुशासन रेखा, बीजेपी का कानून-व्यवस्था नैरेटिव, पीडीए बनाम सुरक्षा की वैचारिक टकराहट, और वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले के दलबदल व समीकरणों की आहट. 

सपा का तुरत-फुरत निष्कासन अपने कोर-कैडर को संदेश देता है, पर क्षेत्रीय स्तर पर बीजेपी को को अपने नैरेटिव में बढ़त मिलती है. अंतिम असर इस पर निर्भर करेगा कि पूजा पाल आगे किस पथ पर चलती है- ‘अनअटैच्ड’ रहकर स्थानीय मुद्दों पर सक्रिय, या औपचारिक पाला-बदल. जो भी हो, उनके बयान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उत्तर प्रदेश की 2027 की लड़ाई में ‘सुरक्षा भी सामाजिक न्याय है’ बनाम ‘सामाजिक न्याय ही असली सुरक्षा है’ दोनों कथाएं आमने-सामने रहेंगी.

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