बिहार में दशकों से सत्ता पर काबिज अनुभवी दलों व नेताओं के खिलाफ किसी नई पार्टी का चुनाव लड़ना बेहद मुश्किल है. यह जानते हुए भी प्रशांत किशोर ने बिहार में अपनी नई पार्टी ‘जन सुराज’ बनाई और 243 सीटों पर मजबूती से चुनाव लड़े.
चुनाव में एक भी सीट नहीं मिलने पर कुछ लोग कह रहे हैं कि जन सुराज का राजनीतिक अंत हो गया. लेकिन सच यह है कि इस चुनाव के बाद प्रशांत किशोर की पार्टी बिहार में एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो चुकी है.
पहले ही चुनाव में जन सुराज पार्टी ने 3.4 फीसद से ज्यादा वोट शेयर हासिल किया है. भले ही एक भी सीट न जीती हो, लेकिन वोट फीसद के मामले में जन सुराज ने कई पुरानी व स्थापित पार्टियों को पीछे छोड़ दिया.
एक खास बात ये भी है कि जन सुराज के उम्मीदवार जिन सीटों पर लड़े, उनमें से लगभग आधी सीटों पर तीसरा स्थान हासिल किया. कई जगहों पर तो दूसरे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवारों से महज कुछ हजार वोट का फासला रहा. यह साफ बताता है कि पार्टी का जमीनी अभियान और मुद्दों पर केंद्रित प्रचार रंग लाया है.
चुनाव से महज 14-15 महीने पहले प्रशांत किशोर ने जो नींव रखी है, वह साबित करती है कि उनका राजनीतिक अभियान कतई नाकाम नहीं रहा. जन सुराज का यह प्रदर्शन इस बात का संकेत है कि बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों में पार्टी ने कुछ ही महीनों की मेहनत से मजबूत पकड़ बना ली है. ऐसे में यह कोई छोटी शुरुआत नहीं, एक मजबूत शुरुआत है.
नतीजों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि विधानसभा चुनाव में पड़े 5 करोड़ से ज्यादा वोटों में से जन सुराज को 16.77 लाख से ज्यादा वोट मिले. दिलचस्प बात यह है कि शून्य सीटें हासिल करने के बावजूद पीके की पार्टी को कांस्य पदक विजेता कहा जा सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि जन सुराज के उम्मीदवार 129 निर्वाचन क्षेत्रों में तीसरे स्थान पर रहे, जो उसके इस पार्टी के जरिए लड़ी गई सीटों का 54 फीसद से ज्यादा है.
जन सुराज का वोट फीसद वास्तव में BSP (जिसने उत्तर प्रदेश की सीमा से लगी एक सीट जीती), AIMIM (जिसने पांच सीटें जीती) और तीन वामपंथी दलों के संयुक्त वोट फीसद से भी अधिक है. किशोर और उनकी पार्टी का पैदल मार्च एक तरह से कारगर रहा है, क्योंकि पहले ही चुनावों में इसकी नींव पड़ गई है.
जन सुराज ने वोट शेयर के मामले में कई पुराने दिग्गजों को पीछे छोड़ दिया है. बसपा (1.62 फीसद), AIMIM (1.85 फीसद) और वामपंथी दल सीपीआई (एमएल) को (2.84 फीसद), सीपीआई (एम) (0.6 फीसद), और सीपीआई (0.74 फीसद) वोट हासिल हुआ है. जबकि पीके की पार्टी को करीब साढ़े तीन फीसद वोट हासिल हुआ है.
यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि बसपा राज्य की 192 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इसी तरह AIMIM भले ही 29 सीटों पर चुनाव लड़ी हो, लेकिन उसकी 24 सीटें सीमांचल क्षेत्र में थीं, जहां मुसलमानों का अच्छा खासा मतदाता आधार है. ऐसे में पीके की पार्टी के प्रदर्शन का इन दलों से तुलना करना किसी भी तरह से गलत नहीं है.
हालांकि, यह भी एक सच्चाई है कि जन सुराज के 238 में से 236 उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गई. इसका मतलब है कि जन सुराज को हर सीट पर वोट तो मिले, लेकिन कम संख्या में. उल्लेखनीय बात यह भी है कि इतना वोट शेयर मिलने के बावजूद जन सुराज का डेटा चुनाव आयोग की वेबसाइट से गायब था, जिससे कई लोग हैरान हुए और सोशल मीडिया पर ऑनलाइन प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं.
जन सुराज पार्टी के वोटों की संख्या कई विधानसभा क्षेत्रों में जीत के अंतर से ज्यादा रही. जानकारों का कहना है कि जन सुराज पार्टी को मिले ज्यादातर वोट अन्य दलों के थे. यह रुझान लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था. जन सुराज सारण जिले की मढ़ौरा विधानसभा सीट पर पार्टी 58,190 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रही. यह सीट राजद ने जीती है. औसतन, जन सुराज पार्टी के उम्मीदवार को हर सीट पर 7,000 से ज्यादा वोट मिले. 73 सीटों पर पार्टी चौथे स्थान पर रही.
एक ऐसे राज्य में जहां जाति, धर्म या पैसों के आधार पर वोट डाले जाते हैं. वहां पहली बार बनी एक राजनीतिक पार्टी का यह प्रदर्शन हतोत्साहित करने वाली नहीं हैं. यह सच है कि वोट सीटों में तब्दील नहीं हुए, लेकिन ऐसा लगता है कि जन सुराज ने NDA, महागठबंधन या AIMIM को कई सीटों पर नुकसान पहुंचाया है, जैसे चनपटिया, जोकीहाट, चेरिया-बरियारपुर, बेलसंड, शेरघाटी, करगहर और सहरसा. इन सीटों पर जीत का अंतर जन सुराज के वोट से काफी कम है.
चनपटिया में जन सुराज के उम्मीदवार यूट्यूबर मनीष कश्यप के कारण BJP उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस के अभिषेक राजन ने यह सीट जीत ली. प्रशांत किशोर ने अपने चुनाव अभियान के दौरान भविष्यवाणी की थी कि उनकी पार्टी NDA और महागठबंधन दोनों से युवाओं का वोट छीन लेगी. शायद पीके की यह भविष्यवाणी सच साबित हुई.
गौर करने वाली बात यह भी है कि जन सुराज एकमात्र ऐसी पार्टी थी, जिसने आपराधिक रिकॉर्ड वाले बाहुबलियों या नकारात्मक छवि वाले किसी भी उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा. प्रशांत किशोर के उम्मीदवारों में नौकरशाह, शिक्षाविद, डॉक्टर, इंजीनियर, आम आदमी और ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्ति शामिल थे.
प्रशांत किशोर का आदर्शवाद. बिहार जैसे राज्य में सुधार के लिए सही नजरिया होते हुए भी चुनावी सफलता में तब्दील नहीं हो सका. कम से कम पहली कोशिश में तो नहीं. इसमें कोई दो राय नहीं कि पीके और उनकी पार्टी अगर अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित रहे तो बिहार में वह बेहतर कर सकते हैं.

