
"नीतीश कुमार इतने दिनों तक मुख्यमंत्री रहे. आज बिहार के जो बच्चे तीस साल के हो गए हैं, उन्होंने लालूजी का जंगल राज नहीं देखा. उस समय सड़कें-अस्पताल और स्कूलों की स्थिति जर्जर थी. आज नीतीश कुमार ने इन चीजों को एक नई ऊंचाई पर ले जाने का काम किया है. उसी तरह नवीन पटनायक ने भी ओडिशा के विकास के लिए बहुत काम किया. ऐसे व्यक्तियों को देश में पुरस्कृत किया जाए, भारत रत्न से नवाजा जाए."
दिसंबर की 25 तारीख को केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने अपने लोकसभा क्षेत्र बेगूसराय में पत्रकारों से बात करते हुए, जब ये बात कही तो सभी लोग चकित रह गए. उनके इस बयान पर एकबारगी लोगों को लगा कि पिछले दिनों इंडिया टुडे के एक कार्यक्रम में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान से जो विवाद खड़ा हो गया था, यह उस पर विराम लगाने की कोशिश है.
इस स्टोरी में जानेंगे कि आखिर नीतीश कुमार को लेकर कभी हां, कभी ना में क्यों उलझी है BJP और RJD के ऑफर के बाद कैसे डैमेज कंट्रोल करने में लगी है BJP ?
इन 4 वजहों से बिहार में सियासी सरगर्मी बढ़ी
पहली वजह: अमित शाह का एजेंडा आज तक में दिया गया बयान
'एजेंडा आज तक' में अमित शाह से सवाल किया गया था कि क्या महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी चुनाव के बाद सीएम तय होगा या नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ेंगे? अमित शाह इस सवाल को टालने के अंदाज में कहते हैं कि देखो भाई आप कितना भी चाहो NDA में दरार नहीं होने वाली है. गृहमंत्री कहते हैं कि देखिए इस तरह का मंच पार्टी के डिसिजन लेने के लिए या बताने के लिए नहीं होता है. मैं पार्टी का डिसिप्लिन कार्यकर्ता हूं. पार्टी पार्टिलियामेंट्री बोर्ड की बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा होगी और फैसला लिया जाएगा.
जाहिर है कि अमित शाह के इसी बयान के बाद 2025 चुनाव के बाद नीतीश कुमार के सीएम बनने को लेकर कयासबाजी लगनी शुरू हो गई है. हालांकि अमित शाह के बयान के अगले ही दिन बिहार BJP और डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कही थी.

दूसरी वजह: डिप्टी सीएम विजय कुमार सिन्हा का बयान
25 जनवरी को ही बिहार के उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा ने कहा, "जब बिहार में भाजपा की अपनी सरकार बनेगी, तभी अटल बिहारी वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि मिलेगी."
हालांकि बाद में गिरिराज सिंह और विजय सिन्हा दोनों ने अपने बयानों का डैमेज कंट्रोल करते हुए कहा, "बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही हैं, उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा चुनाव लड़ेगी."
तीसरी वजह: RJD नेताओं का JDU को सरकार बनाने के लिए ऑफर
BJP के दो सीनियर नेताओं के बयान के बाद RJD नेता भाई वीरेंद्र के ऑफर ने बिहार में सियासी सरगर्मी को और ज्यादा बढ़ा दिया है. दरअसल, 26 दिसंबर को राजद के वरिष्ठ नेता भाई वीरेंद्र ने भी कहा, "राजनीति में न कोई परमानेंट दोस्त होता है, न परमानेंट दुश्मन होता है. अगर वे (नीतीश) सांप्रदायिक शक्तियों को छोड़कर आते हैं और उनका भी मन भर चुका है, तो आएं, उनका स्वागत है."
इस बयान के बाद BJP ने एक बार फिर डैमेज कंट्रोल शुरू कर दिया. पहले नीतीश कुमार की प्रगति यात्रा में पार्टी नेता नहीं होते थे, गुरुवार को पूरे दिन उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी नीतीश कुमार के साथ रहे. दूसरे उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा ने नीतीश को अटल बिहारी वाजपेयी का चहेता बताया और अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने कहा, राजद दिन में सपने देख रही है.

कहीं भारत रत्न देकर BJP की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने की तो नहीं...
दो हफ्ते पहले पूर्णिया में जदयू के सम्मेलन में पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने खुद कहा था, "नीतीश कुमार भारत रत्न से भी बड़े पुरस्कार के हकदार हैं, उन्होंने बिहार को रसातल से निकाला है." इससे पहले अक्तूबर में जदयू की बिहार राज्य कार्यकारिणी बैठक के दौरान पर नीतीश कुमार को भारत रत्न दिये जाने की मांग करने वाला एक पोस्टर प्रदेश महासचिव छोटू सिंह के नाम से लगा था.
मगर इस बयान पर जब इंडिया टुडे ने जदयू के वरिष्ठ प्रवक्ता नीरज कुमार से प्रतिक्रिया मांगी तो उनका कहना था, "नीतीश कुमार का व्यक्तित्व किसी पुरस्कार का कायल नहीं है. उन्हें 22 से अधिक पुरस्कारों से नवाजा गया है. संयुक्त राष्ट्र की राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में उन्हें क्लाइमेट लीडर की उपाधि दी गई है. नीतीश कुमार को ग्लोबल थिंकर कहा गया है. जब गठबंधन नहीं था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि डॉ. राममनोहर लोहिया और जॉर्ज फर्नांडीस के बाद अगर समाजवादी आंदोलन में कोई व्यक्तित्व है, तो वह नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार ने किसी पुरस्कार के लिए आवेदन नहीं दिया. हमारे नेता का व्यक्तित्व इतना भारी है कि पुरस्कार उनके पीछे चलता है."
इस प्रतिक्रिया से यह साफ है कि जदयू भाजपा नेता गिरिराज सिंह के इस बयान को सकारात्मक तरीके से नहीं ले रही. इससे उन कयासबाजियों को भी बल मिल रहा है कि गिरिराज सिंह का यह बयान इस बात की तरफ इशारा कर रहा है कि नीतीश कुमार चाहें तो भारत रत्न ले लें, मगर बिहार की कुर्सी BJP के लिए छोड़ दें.
पिछले लगभग दो हफ्तों से बिहार को लेकर BJP नेताओं के बयान इसी दुविधा से भरे नजर आ रहे हैं. कभी भाजपा नीतीश के नेतृत्व को अस्वीकारती नजर आती है तो कभी उनकी शर्तों पर बिछी नजर आने लगती है. यह सब इंडिया टुडे के उस कार्यक्रम के बाद शुरू हुआ है, जहां बिहार में नेतृत्व के सवाल पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था, "सभी दल साथ में बैठकर यह तय करेंगे."
अमित शाह के बयान के अगले दिन JDU प्रदेश अध्यक्ष के घर हुई NDA नेताओं की बैठक हुई. इसके बाद अचानक खबर आई कि नीतीश कुमार बीमार हो गये हैं, 20 दिसंबर के बिहार बिजनेस कनेक्ट समेत उनके तमाम कार्यक्रम रद्द कर दिये गये. उसी रोज जदयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा के आवास पर बिहार एनडीए के तमाम नेताओं की बैठक हुई, जिसमें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल भी मौजूद थे. उस बैठक के बाद कहा गया कि आगामी चुनाव को लेकर बिहार में एनडीए एकजुट है और 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा.
इसे एक तरह से नीतीश कुमार की नाराजगी के असर के तौर पर देखा जा रहा था. हालांकि अगले दिन भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने यह कह कर पीछा छुड़ाने की कोशिश की कि वे छोटे नेता हैं, इस तरह के फैसले दिल्ली में बड़े नेता करते हैं.
आरिफ मोहम्मद खान की नियुक्ति संबंधों को बेहतर करने की पहल!
इस बीच बिहार में नए राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान की नियुक्ति के बाद भी लगा कि भाजपा नीतीश कुमार के साथ संबंधों को बेहतर करना चाह रही है. केंद्रीय मंत्रालय में नीतीश कुमार के सहयोगी रहे आरिफ मोहम्मद खान को पहले मुसलमानों के प्रगतिशील चेहरे के तौर पर देखा जाता था. उनका मुस्लिम होना भी नीतीश कुमार की अपनी राजनीति में मददगार हो सकता है. जदयू हमेशा से यह चाहती है कि मुसलमानों का एक हिस्सा उनके साथ बना रहे. मगर अगले ही दिन से भाजपा नेताओं के विरोधाभासी बयान इन संबंधों को सहज नहीं होने दे रहे.

भाजपा नेता नीतीश कुमार को लेकर अलग-अलग तरह के बयान क्यों दे रहे हैं, इस मसले को लेकर भी राजनीतिक जानकारों के बीच मिली-जुली राय है. एक तरफ जहां जानकार इसे इस रूप में देख रहे हैं कि भाजपा नेता नीतीश कुमार को इस स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे खुद ही मान लें कि अगला चुनाव उनके नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा. वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि यह लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हो रहे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के अंतर्विरोध की वजह से है.
इस मसले पर पूछने पर भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता असितनाथ तिवारी कहते हैं, "हर राजनीतिक दल का कार्यकर्ता चाहता है कि उसके राज्य में उसका अपना मुख्यमंत्री हो, अपने दम पर उसकी सरकार हो. इसलिए जो कहा जा रहा है, उसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए. हालांकि चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जायेगा, कैसे लड़ा जायेगा, इसका फैसला तो केंद्रीय नेतृत्व को लेना है."
आखिर नीतीश को लेकर कभी हां और कभी ना की उलझन में क्यों फंसी है BJP...
इंडिया टुडे ने इस सवाल का जवाब जानने के लिए तीन पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स से बात की. इन एक्सपर्ट्स ने BJP की उलझन की 3 मुख्य वजहें बताई हैं...
1. BJP भारत रत्न ऑफर देकर नीतीश कुमार के रिटायरमेंट का प्लान कर रही है
बिहार भाजपा की राजनीति को करीब से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक रमाकांत चंदन कहते हैं, "भारत रत्न का ऑफर देकर भाजपा यह चाह रही है कि नीतीश अब अपने रिटायरमेंट प्लान के बारे में सोचें. क्योंकि भारत रत्न मिलने के बाद तो अमूमन कोई राजनेता राजनीति में सक्रिय रहता नहीं है. भाजपा यह सब सधे तरीके से कर रही है, उनका एक नेता झटका देता है, तो दूसरा नेता डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश करता है."
वहीं एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक अरुण अशेष कहते हैं, "पिछले दिनों यह भ्रम भी फैलाया गया कि नीतीश मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं, जबकि वे अपने काम-काज के दौरान ऐसा करते दिखते नहीं हैं. भाजपा हमेशा से नीतीश कुमार से अपनी निर्भरता खत्म करना चाहती है. उसे यह अच्छा अवसर दिख रहा है. भारत रत्न की घोषणा का वक्त भी संयोग से दिख रहा है."
2. नीतीश कुमार का नेतृत्व BJP को पसंद नहीं, लेकिन मजबूरी बनती है उलझन की वजह
अरुण अशेष के मुताबिक, "भाजपा कभी बिहार में नीतीश कुमार का नेतृत्व पसंद नहीं करती थी. नवंबर, 2005 में हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव के बीच में दूसरे चरण के पास अरुण जेटली के दखल के बाद यह घोषणा हुई थी कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह चुनाव लड़ा जाएगा. वह अस्थायी व्यवस्था थी, जो बाद में स्थायी हो गई. 2014 से पहले तक तो नीतीश कुमार ही बिहार भाजपा के फैसले भी कर लिया करते थे. मगर 2014 के बाद स्थितियां बदलीं. 2015 में पहली बार भाजपा ने बिहार में खुद लीड लेने की कोशिश की. मगर नीतीश ने राजद के साथ जाकर भाजपा का सपना तोड़ दिया. उसके बाद से भाजपा बिहार में अपनी सरकार तो चाहती है, मगर कदम फूंक-फूंक कर उठाती है."
2014 के बाद भी नीतीश कभी राजद को कभी भाजपा के साथ जाकर अपनी ताकत बनाये हुए हैं. भाजपा ने जदयू को तोड़ने या कमजोर करने की कोशिशें भी कीं, मगर वे सफल नहीं हुए. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में कमजोर होने के बावजूद नीतीश को सीएम बनाना पड़ा. फिर पटना में जेपी नड्डा के बयानों से असहज हुए नीतीश पाला छोड़कर राजद के साथ भी गये, वहां भी वे मुख्यमंत्री बने रहे. इसलिए नीतीश को राजनीतिक तरीके से अपदस्थ करना भाजपा को मुश्किल लगता है.
3. नीतीश की मर्जी से सत्ता हस्तांतरण कराना चाहती है BJP
राजनीतिक विश्लेषक अरुण अशेष के मुताबिक, ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश से भाजपा तक का सत्ता का हस्तांतरण सहज तरीके से और नीतीश की मर्जी से चाहता है. उन्हें इस बात का अहसास है कि अगर कोई बात खटकी तो नीतीश फिर से राजद के साथ जा सकते हैं और राजद हमेशा उसका स्वागत करेगी और फिर दुबारा विश्वास बहाली में वक्त लगेगा.
मगर दिल्ली में भाजपा का एक धड़ा इन दिनों अपनी अतिसक्रियता से केंद्रीय नेतृत्व के लिए दिक्कतें खड़ी कर रहा है. राजनीतिक टिप्पणीकार संजीव पांडेय कहते हैं, "इसकी प्रतिध्वनियां महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने और संसद में अमित शाह के आंबेडकर के मसले पर दिए गये विवादित बयान के तौर पर देखी जा रही है. हो सकता है, बिहार में भाजपा के नेता जो हड़बड़ी दिखा रहे हैं, इसके पीछे भी वही ताकतें हो."
जानकार यह भी कहते हैं कि बिहार में नीतीश को बनाए रखने के सबसे बड़े पक्षधर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. बिहार भाजपा के एक नेता अनौपचारिक बातचीत में इसकी पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि यहां भाजपा नेता नीतीश कुमार पर परोक्ष हमले कर तो जरूर रहे हैं, मगर संभल कर. क्योंकि उन्हें पता है, यहां स्थितियां बिगड़ीं तो दिल्ली में भी माहौल बिगड़ेगा. फिर जो जिम्मेदार होगा उसे पीएम मोदी की नाराजगी का सामना करना होगा.