जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से राजनीतिक बिसात पर बिछी बाजियों को पलट दिया है. नीतीश और इंडियन नेशनल डेवलेपमेंट एनक्लुसिव एलायंस' यानी इंडिया गठबंधन की राहें अब अलग हो गई हैं और जदयू नेता ने एक बार फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हाथ थाम लिया है.
बिहार के सीएम के इस कदम से पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा विरोधी पार्टियों के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं. करीब 18 महीने पहले जब नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से हाथ मिलाया था तब इसे भगवा दल के विरोध और ओबीसी जातियों के एक बड़े तबके में एकजुटता की शुरुआत के रूप में देखा गया था.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर दबाव बनाने के लिए नीतीश कुमार ने बिहार में जाति आधारित गणना कराई. इस कदम ने इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के लिए के लिए भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए पर निशाना साधने का आधार तैयार कर दिया. इसके बाद एनडीए के खिलाफ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को एकजुट करने के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल ने उत्तर प्रदेश में जाति जनगणना की मांग उठाई.
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने यादव जाति के विरोध में कुर्मी, मौर्य व अन्य जातियों को लामबंद कर अपना एक बड़ा जनाधार तैयार किया है. इस जनाधार में सेंध लगाना पिछले एक दशक से विपक्षी दलों के लिए मुश्किल ही साबित हो रहा है. नीतीश कुमार के जाति जनगणना वाले कार्ड ने विपक्षी दलों में भाजपा के अटूट जनाधार में सेंध लगाने की आस जगाई थी. इसी क्रम में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नारा देकर आक्रामक रूप से पिछड़ी जातियों में सेंधमारी की कोशिशें शुरू कर दी थीं.
अखिलेश यादव की नजर कुर्मी मतों पर भी है जिसने वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ जाने के सकारात्मक संकेत दिए थे. सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट के अनुसार यूपी की कुल पिछड़ी जातियों में यादवों की हिस्सेदारी 19.40 फीसद है तो कुर्मी 7.46 फीसद हैं. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के 26 कुर्मी विधायक और सपा के टिकट पर केवल 2 कुर्मी विधायक ही जीते थे. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के कुर्मी विधायकों की संख्या घटकर 22 रह गई. वहीं सपा के कुर्मी विधायकों की संख्या बढ़कर 14 हो गई थी.
कुर्मी जाति को साधने के लिए ही सपा ने नरेश उत्तम को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया और पूर्व बसपा नेता और आंबेडकर नगर की कटेहरी विधानसभा सीट से विधायक लालजी वर्मा को राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने नीतीश कुमार के साथ विपक्षी गठबंधन बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी और लोकसभा चुनाव की रणनीति तैयार करने के लिए दिल्ली में एकसाथ कई बैठकें की थीं. जनता के बीच दो शीर्ष ओबीसी नेताओं के गठबंधन का संदेश देने के लिए लखनऊ में अखिलेश यादव और नीतीश कुमार ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन को भी संबोधित किया था.
कुर्मी मतों की लामबंदी के लिए ही अखिलेश यादव ने नीतीश कुमार को यूपी की फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की पुरजोर वकालत की थी. हालांकि उत्तर प्रदेश में जद (यू) महत्वहीन है, लेकिन विपक्षी नेताओं को लगा कि नीतीश कुमार के करिश्मे और पिछड़े समुदाय पर प्रभाव से मदद मिलेगी. कुर्मी मतदाताओं पर भाजपा की पकड़ को तोड़ने के लिए, विपक्षी गठबंधन की यूपी में तीन सीटों - फूलपुर, मिर्ज़ापुर और आंबेडकर नगर में से किसी एक सीट से नीतीश कुमार को मैदान में उतारने की योजना थी क्योंकि इन तीन सीटों पर ओबीसी की मजबूत उपस्थिति है. जेडीयू के एक नेता बताते हैं कि जदयू के लोगों ने फूलपुर लोकसभा सीट पर सर्वे तक कर डाला था.
लखनऊ विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर शोभित वर्मा के मुताबिक सपा ने वर्ष 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में कुर्मी और दलित वोटों को अपने साथ जोड़ा था. इस बार अखिलेश यादव अपने परंपरागत वोटबैंक यादव और मुस्लिम के साथ कुर्मी, जाट और दलित मतदाताओं को एक साथ लाने की भरसक कोशिश कर रहे थे. इसने यूपी में भाजपा की चुनौती बढ़ा दी थी.
शोभित वर्मा कहते हैं, "नीतीश कुमार के साथ आने वाले लोकसभा चुनावों में यूपी में इंडिया गठबंधन को फायदा होना तय था. अगर वे विपक्षी गठबंधन के साथ बने रहते तो यूपी में कुर्मी मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा इंडिया गठबंधन के साथ जा सकता था." नीतीश के समर्थन से, विपक्ष कुर्मी और अन्य गैर-यादव पिछड़ी जाति के मतदाताओं में सेंध लगा सकता था. हालांकि इसी चुनौती को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने मध्य प्रदेश में मोहन यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपकर यूपी में विपक्षी दलों रणनीति बेअसर करने की कोशिश शुरू की थी. अब नीतीश कुमार के पलटी मारकर एक बार एनडीए में शामिल होने से यूपी में विपक्षी दलों के समीकरण कुछ हिल गए हैं.
28 जनवरी को नीतीश कुमार ने बिहार के राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंपने के बाद राजद से संबंध तोड़ने की घोषणा की और बिहार में महागठबंधन सरकार समाप्त कर दी. कुछ ही देर बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव ने 'एक्स' पर पोस्ट करते हुए लिखा, "विश्वासघात का नया रिकॉर्ड बना है. जनता इसका करारा जवाब देगी. एक व्यक्ति के रूप में किसी को आप पर विश्वास न हो, इससे बड़ी कोई हार नहीं हो सकती."
आगे अखिलेश ने कहा कि भाजपा इतनी कमजोर कभी नहीं थी जितनी अब है. हालांकि भाजपा ने पहले कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की और अब नीतीश कुमार एनडीए में शामिल हो गए. इसके बाद यूपी भाजपा आक्रमक ढंग से पिछड़ी और अति पिछड़ी राजनीति की रणनीति अपनाएगी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यूपी की राजनीति में नीतीश के एनडीए में शामिल होने से केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाला अपना दल (एस) अब कुर्मी मतदाताओं पर अधिक प्रभाव डालेगा और भाजपा को लोकसभा चुनाव में फायदा होगा. हालांकि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के साथ जिस तरह भाजपा ने संकेतों के जरिए पिछड़ी जाति को साधने की कोशिश की उसमें नीतीश कुमार का शामिल होना यूपी में एनडीए की रणनीति में उत्प्रेरक का काम ही करेगा.
यूपी की सभी 80 लोकसभा सीटों को जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा के लिए नीतीश फैक्टर कितना लाभ पहुंचाएगा ये तो चुनाव नतीजे ही बनाएंगे लेकिन भाजपा पिछड़ी जातियों के गुलदस्ते को सजाने का कोई मौका जाया नहीं जाने देना चाहती.