लखीमपुर खीरी की मझगई रेंज में 8 और 9 दिसंबर की दरमियानी रात कड़ाके की ठंड के बीच खेतों में कोहरा इतना घना था कि कुछ कदम आगे तक देखना मुश्किल था. गन्ने के खेत के बीच खड़े राम बहादुर को बस इतना आभास था कि शोर बढ़ रहा है और फसलों के रौंदे जाने की आवाजें साफ सुनाई दे रही हैं. गांव वाले कई दिनों से इसी डर में जी रहे थे कि नेपाल से आए हाथियों का झुंड फिर लौट सकता है.
उस रात यह डर सच हो गया. हाथियों के करीब आने की आहट सुनकर राम बहादुर और दो अन्य किसान टॉर्च लेकर खेत की ओर भागे. उन्होंने चिल्लाकर जानवरों को हटाने की कोशिश की. कोहरे में उन्हें अंदाजा नहीं था कि झुंड कितनी दूरी पर है. अचानक एक विशाल हाथी सामने आ गया. साथी भाग निकले, लेकिन राम बहादुर उतनी तेजी से नहीं भाग पाए. हाथी ने उन पर हमला किया और उन्हें कुचल दिया. सुबह तक गांव में अफरा-तफरी मची रही.
यह दूसरी बार था जब हाथियों ने इस इलाके में जानलेवा हमला किया हो. इससे पहले पीलीभीत में 61 साल के किसान पुन्नू मंडल की मौत हाथी के हमले से हुई थी. उससे दो हफ्ते पहले गांव उझैनिया में श्याम लाल नाम के किसान पर हमला कर दो हाथियों ने उन्हें घायल कर दिया था. लखीमपुर खीरी और पीलीभीत टाइगर रिजर्व का पूरा इलाका पिछले कई वर्षों से इसी तरह की घटनाओं का सामना कर रहा है. सवाल यह है कि आखिर नेपाल से आने वाले हाथियों का खतरा लगातार क्यों बढ़ रहा है?
नेपाल से यूपी तक हाथियों का रास्ता बढ़ा क्यों
वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार इन हमलों की जड़ नेपाल के शुक्लाफांटा और बर्दिया नेशनल पार्क से जुड़ती है. दोनों पार्कों से निकलकर हाथी अक्सर दुधवा टाइगर रिजर्व में आते हैं. यह आवाजाही नई नहीं है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसका पैटर्न बदला है. कई दशक से दोनों देशों के जंगलों के बीच एक प्राकृतिक कॉरिडोर मौजूद है. पर मौसम बदलने, पानी के स्रोत सीमित होने और बढ़ती खेती के दबाव ने इस रास्ते को और सक्रिय बना दिया है. विशेषज्ञ बताते हैं कि नेपाल के मैदानी इलाके में हाथियों की संख्या बढ़ने के बाद वे नई सीमाएं खोज रहे हैं. दुधवा और दक्षिण खीरी का जंगल उन्हें पर्याप्त भोजन देता है और फसलें तो और बड़ा आकर्षण बन जाती हैं.
वन अधिकारियों का कहना है कि हाल में 30 से 35 हाथियों का एक बड़ा झुंड सीमा पार कर खीरी में दाखिल हुआ. पांच दिन तक इन्हें कहीं देखा नहीं गया. माना गया कि वे लौट गए हैं, लेकिन 8 दिसंबर को देर रात यह झुंड फिर से मझगई रेंज में पहुंच गया. इसी दौरान किसानों का सामना उनसे हुआ. रेंजर अंकित कुमार बताते हैं कि हाथियों को हटाने के लिए लगातार गश्त की जा रही है, लेकिन बार-बार पटाखे चलाना और तेज आवाजें निकालना कभी-कभी उलटा असर डाल देता है. उनका कहना है कि ज्यादा शोर से हाथी भड़कने लगते हैं. वे बेचैन होते हैं और किसी भी हरकत को खतरे की तरह लेते हैं. यही वजह है कि कई बार किसानों को खुद भी पता नहीं चलता कि वे जानवर को उकसा बैठे हैं.
पिछले वर्षों की घटनाएं चेतावनी दे रही थीं
लखीमपुर खीरी और आसपास के जिलों में हाथियों के हमले कोई नई बात नहीं हैं. 2018 में लुधौरी रेंज में एक किसान की मौत हुई थी. 2022 में भी कई घटनाएं सामने आईं. नवंबर 2022 में हाथियों ने मोहम्मदी क्षेत्र के शिवपुरी गांव में एक किसान को मार दिया था. 12 दिसंबर 2022 को दो मजदूर गन्ने में काम कर रहे थे, जब झुंड ने उन पर हमला कर दिया और दोनों घायल हो गए. एक अन्य घटना में बेलरायां रेंज के पास एक ग्रामीण के पैर में गंभीर चोट आई. हर बार बाद में यही बयान दिया जाता था कि हाथियों को नेपाल की ओर खदेड़ा जा रहा है और सुरक्षा बढ़ाई जा रही है, लेकिन जमीनी हालात नहीं बदल पाए.
किसानों के अनुसार सबसे बड़ी समस्या यह है कि हाथियों का झुंड खेतों को पहचानने लगा है. गन्ना, धान और गेहूं की फसल उन्हें आसानी से मिल जाती है. गन्ने के खेतों में घुसने पर उन्हें न सिर्फ खाना मिलता है बल्कि ऊंची फसल उन्हें सुरक्षा का एहसास भी देती है. पिछले एक महीने में हाथियों ने इस इलाके की करीब 30 एकड़ फसल रौंद दी है. कई किसानों ने कर्ज लेकर फसल बोई थी. गन्ने का भुगतान नहीं मिला और ऊपर से बर्बादी ने उनकी आर्थिक हालत और खराब कर है. मझगई क्षेत्र, भगवंतनगर, गुलरा टांडा और चौखड़ा फार्म के गांवों में लंबे समय से रातें बेचैन बीत रही हैं.
रात को टॉर्च और डंडे लेकर गांव वाले टोलियां बनाकर चलते हैं. गांव के लोग बताते हैं कि वन विभाग का सहयोग उतना असरदार नहीं होता, जितना होना चाहिए. अधिकारी अक्सर सलाह देते हैं कि लोग खतरे में न जाएं, लेकिन खेती छोड़ देना भी संभव नहीं. फसलें बचाने की कोशिश में ही ज्यादातर घटनाएं होती हैं. कई बार ग्रामीणों ने शिकायत की कि हाथी कई दिनों से आसपास थे, लेकिन उन्हें वापस भेजने का कोई प्रभावी उपाय नहीं अपनाया गया. गुलरा भगवंत नगर गांव में राम बहादुर की मौत के बाद इसी नाराजगी ने प्रदर्शन का रूप ले लिया था. हालात तब शांत हुए जब अधिकारियों ने कार्रवाई का भरोसा दिया.
क्यों बढ़ रहा है खतरा
विशेषज्ञों और वन अधिकारियों के अनुसार खतरा बढ़ने के पांच प्रमुख कारण हैं. पहला, बढ़ती फसलें और आसान भोजन. गन्ना और धान जैसे उत्पाद हाथियों के लिए आसान भोजन हैं. खेतों का विस्तार इतना हो चुका है कि जंगल तक जाने के रास्ते भी खेती से घिर गए हैं. दूसरा वजह है सीमा कॉरिडोर का लगातार इस्तेमाल. नेपाल के पार्कों से दुधवा तक हाथियों का आना अब एक नियमित पैटर्न बन चुका है. इन रास्तों पर निगरानी कम है. इसके अलावा जंगलों में पानी और भोजन की उपलब्धता मौसम के अनुसार बदल रही है. कई बार हाथियों को नए इलाकों में जाना पड़ता है. वहीं कई गांव जंगल के बिल्कुल किनारे हैं. खेत दूर तक फैले हैं और लोग रात भर फसलों की रखवाली करते हैं. यही वह समय होता है जब टकराव ज्यादा होता है. अंतिम और एक मुख्य कारण यह है कि पटाखे, हूटर और आग जैसे तरीके हाथियों पर अब उतना असर नहीं छोड़ते, लगातार शोर उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है.
वन विभाग की रणनीति कितनी कारगर
वन विभाग के मुताबिक हाथियों को रिहायशी क्षेत्रों से हटाने के लिए टीमें तैनात हैं. कई जगह आग में मिर्च पाउडर मिलाकर जलाया जा रहा है ताकि गंध से हाथी पीछे लौट जाएं. कुछ खास रास्तों पर ट्रैक्टर खड़े कर रास्ता रोकने की कोशिश की जाती है. हूटर और पटाखे चलाकर आवाजें पैदा की जाती हैं ताकि झुंड जंगल की ओर मुड़ जाए. लेकिन अधिकारी खुद स्वीकारते हैं कि ये उपाय सीमित राहत ही देते हैं. पीलीभीत के वन्य जीव फोटोग्राफर मो. बिलाल खान बताते हैं, “हाथियों को शांत रखने के लिए लंबी रणनीति चाहिए. कंबाइंड ऑपरेशन, बेहतर कॉरिडोर मॉनिटरिंग और गांव के लोगों के साथ सतत संवाद जरूरी है.”
दुधवा नेशनल पार्क की तरफ से वन्यजीवों को जंगल के अंदर सीमित रखने के लिए जंगल से सटे आबादी वाले क्षेत्रों में तार फेंसिंग कराई गई है, लेकिन यह भी कामयाब साबित होती नहीं दिख रही. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चौखड़ा फार्म में रामबहादुर को मौत के घाट उतारने वाले हाथी तार फेंसिंग को तोड़कर ही खेतों की ओर आए थे. बताया जाता है कि पिछले सालों की तुलना में इस साल नेपाल से बड़ी तादाद में हाथियों का झुंड दुधवा नेशनल पार्क आया है.
ये हाथी आक्रामक होकर तार फेंसिंग को तोड़ते हुए मानव क्षेत्र में प्रवेश कर नुकसान पहुंचा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि पार्क प्रशासन की तरफ से फेंसिंग आदि नहीं कराई गई है, लेकिन पार्क सूत्रों की मानें तो बड़ी तादाद में अगर हाथियों का झुंड आता है तो तार फेंसिंग उनके सामने कुछ भी नहीं है. मझगई क्षेत्र में हुए हमले में भी इस तरह की बातें सामने आई हैं. दुधवा फारेस्ट रिजर्व के निदेशक जगदीश आर. बताते हैं कि तीन से चार झुंड बनाकर हाथी दुधवा में घूम रहे हैं. पिछले सालों में यह समस्या नहीं आई थी, लेकिन इस बार हाथी ज्यादा आए हैं. इस तरह से हाथियों के हमले की घटनाएं अभी तक नहीं हुई थीं, लेकिन आगे इस पर भी ध्यान देते हुए आवश्यक कार्रवाई कराई जाएगी.
वन विभाग यह भी दावा करता है कि हर घटना के बाद परिवारों को मुआवजा दिया जाता है. पर ग्रामीणों का कहना है कि प्रक्रिया धीमी होती है और कई बार उन्हें महीनों इंतजार करना पड़ता है. मरने वालों के परिवार मुश्किल में जिंदगी गुजारते हैं और फसल का नुकसान तो अक्सर बिना किसी राहत के ही सहना पड़ता है.
लखीमपुर खीरी की यह ताजा घटना सिर्फ एक किसान की मौत की कहानी नहीं है. यह उस बड़े संघर्ष की तस्वीर है, जिसमें एक तरफ जीवित रहने की कोशिश कर रहे लोग हैं और दूसरी तरफ अपने प्राकृतिक रास्तों पर चल रहे हाथी. यह संघर्ष तब तक बढ़ता रहेगा जब तक सीमा कॉरिडोर, खेती, जंगल और सुरक्षा के बीच संतुलन नहीं बनता.

